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एडिटोरियल

सामाजिक न्याय

महामारी के बाद महिलाओं की स्थिति

  • 16 Jul 2021
  • 10 min read

यह एडिटोरियल दिनांक 15/07/2021 को ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ में प्रकाशित लेख ‘‘Women work more, earn less, and face greater health risks’’ पर आधारित है। इसमें महामारी के दौरान और उसके बाद महिलाओं को हुई समस्याओं तथा उन पर महामारी के प्रभावों से उबरने के लिये किये जा सकने वाले उपायों की चर्चा की गई है।

संकटकाल में महिलाएँ समाज की रीढ़ होती हैं, यद्यपि ऐसी आपदाओं का अधिक प्रतिकूल प्रभाव उन पर ही पड़ने की संभावना भी अधिक होती है। इस दृष्टिकोण से कोविड-19 महामारी भी कोई अपवाद नहीं है।   

इसने पहले से ही मौजूद लिंग-संबंधी बाधाओं को गंभीर रूप से बढ़ा दिया है, कार्यबल में भारत के लैंगिक अंतराल में वृद्धि की है और स्वास्थ्य-देखभाल कर्मियों एवं फ्रंटलाइन वर्कर्स पर असर डाला है जिसमें अधिकाधिक संख्या में महिलाएँ शामिल हैं।

इसके अलावा, डलबर्ग (Dalberg) द्वारा निम्न-आय परिवार की महिलाओं पर कोविड-19 के सामाजिक-आर्थिक प्रभावों पर एक वृहत अध्ययन में पोषण की खराब स्थिति, गर्भनिरोधकों तक पहुँच की कमी और ऋण जैसे कारकों के बहु-पीढ़ीगत प्रभाव की ओर ध्यान आकर्षित किया गया है। 

महिलाओं पर प्रभाव

  • महिला बेरोज़गारी में वृद्धि: रोज़गार संबंधी मामलों में महिलाएँ पुरुषों की तुलना में अधिक प्रभावित हुईं। महामारी से पहले कार्यबल में महिलाओं की हिस्सेदारी केवल 24% थी, लेकिन फिर भी महामारी के दौरान रोज़गार खोने वाले लोगों की संख्या में उनकी हिस्सेदारी 28% रही। 
  • खाद्य असुरक्षा की समस्याएँ: महिलाओं साथ ही उनके परिवारों की आय में कमी के कारण खाद्य आपूर्ति में कमी आई और परिवार के अन्य सदस्यों की तुलना में महिलाएँ अधिक प्रभावित हुईं। 
  • प्रजनन स्वास्थ्य की समस्याएँ: कोविड महामारी के दौरान महिलाओं के स्वास्थ्य संकेतकों में भी गिरावट आई क्योंकि महामारी के प्रभाव में वे गर्भनिरोधक तथा माहवारी संबंधी उत्पादों का खर्च उठा सकने में असमर्थ रहीं।  
    • अनुमानतः 16% (लगभग 17 मिलियन) महिलाओं को सैनिटरी पैड का उपयोग बंद करना पड़ा और प्रत्येक तीन विवाहित महिलाओं में से एक से अधिक महिलाएँ गर्भनिरोधकों का उपयोग करने में असमर्थ हो गईं।
  • अवैतनिक श्रम: चूँकि भारतीय महिलाएँ पहले से ही भारतीय पुरुषों की तुलना में लगभग तीन गुना अधिक अवैतनिक कार्य करती हैं ऐसे में कुछ सर्वेक्षणों से ज्ञात होता है कि महिलाओं के लिये अवैतनिक श्रम में 47% और उनके लिये अवैतनिक देखभाल कार्य में 41% की वृद्धि हुई। 
  • वंचित/उपेक्षित समूह: ऐतिहासिक रूप से वंचित/उपेक्षित समूहों (मुसलमान, प्रवासी, एकल/परित्यक्ता/तलाकशुदा) की महिलाएँ अन्य महिलाओं की तुलना में अधिक प्रभावित हुईं। 
    • उन एकल/परित्यक्ता/तलाकशुदा महिलाओं की संख्या में वृद्धि हुई जिनके पास खाद्य भंडार या तो सीमित या समाप्त हो रहा था। इसी प्रकार, आय एवं आजीविका खोने वाली मुस्लिम महिलाओं की संख्या में भी वृद्धि हुई।
    • ज़मीनी स्तर पर उन महिलाओं की स्थिति और बदतर होने की संभावना है जो पहले ही सामाजिक भेदभाव का शिकार हैं (जैसे दलित महिलाएँ और ट्रांसजेंडर समूह)।

आगे की राह

  • सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) का विस्तार करना: खाद्य पदार्थों के अतिरिक्त अन्य वस्तुओं तक PDS का विस्तार किये जाने की आवश्यकता है क्योंकि यह दूर तक पहुँच रखने वाली वितरण प्रणाली है। उदाहरण के लिये, इस वितरण प्रणाली के माध्यम से लघु अवधि के लिये सैनिटरी पैड तक महिलाओं की पहुँच में आमूलचूल परिवर्तन लाया जा सकता है।  
    • PDS के साथ निशुल्क माहवारी-संबंधी स्वच्छता उत्पादों को संयुक्त करने से इन आवश्यक वस्तुओं के लिये महिलाओं की आय पर निर्भरता कम होगी।
    • आदर्शतः यह कदम माहवारी-संबंधी स्वास्थ्य एवं स्वच्छता के संदर्भ में राष्ट्रीय, राज्य-स्तरीय  और ज़िला-स्तरीय जागरूकता अभियान को पूरकता ही प्रदान करेगा।
  • योजनाओं के लाभ को सार्वभौमिक बनाना: मनरेगा जॉब कार्ड पर महिलाओं को सूचीबद्ध किया जाना चाहिये ताकि कुल व्यक्ति-दिवसों की संख्या में वृद्धि हो सके और महिलाओं के लिये रोज़गार अवसरों की मांग की पूर्ति की जा सके। 
    • पहले से कार्यान्वित ‘दीनदयाल अंत्योदय योजना - राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन’ के माध्यम से स्वयं सहायता समूहों (SHGs) के आर्थिक पुनरुद्धार और बाज़ार से उनके संपर्कों पर ध्यान केंद्रित कर उनके लचीलेपन को मज़बूत किया जाना चाहिये।   
    • स्वयं सहायता समूह महिलाओं को छोटे व्यवसायों को डिजिटल रूप से चलाने के लिये आवश्यक कौशल विकसित करने में मदद करने हेतु तकनीकी एवं प्रबंधकीय प्रशिक्षण भी प्रदान कर सकते हैं।
  • समावेशी दृष्टिकोण: नई योजना ‘एक राष्ट्र- एक राशन कार्ड’ में एकल/परित्यक्ता/तलाकशुदा महिलाओं को शामिल करने पर ध्यान देना और अनौपचारिक कर्मियों, विशेष रूप से घरेलू कामगारों तथा अनौपचारिक श्रमिकों के लिये सामाजिक सहायता कार्यक्रमों का सृजन करना।     
  • जागरूकता में वृद्धि: सरकार गर्भनिरोधक उपयोग पर रणनीतिक रूप से ध्यान केंद्रित करने के लिये मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्त्ताओं (ASHA), मिशन परिवार विकास तथा अन्य योजनाओं के माध्यम से अपने मौजूदा प्रयासों को और अधिक गति प्रदान कर सकती है।  

निष्कर्ष

  • सर्वेक्षण के अनुसार, तीन में से एक महिला ने यह माना कि सरकारी कल्याणकारी योजनाओं और स्वयं सहायता समूहों ने महामारी से निपटने में उनकी सहायता करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
  • इस प्रकार, प्रत्येक महिला को महामारी के बुरे प्रभाव से ज़ल्द-से-ज़ल्द बाहर निकालने में मदद करने के लिये सरकारी योजनाओं तथा स्वयं सहायता समूह व्यवस्था के सार्वभौमिकरण, सघनीकरण एवं विस्तारीकरण की आवश्यकता है।
  • महिलाओं के मुद्दों में अभी सही निवेश करना हमारी अर्थव्यवस्था और समाज के दीर्घकालिक सुधार एवं स्वास्थ्य की दिशा में परिवर्तनकारी सिद्ध हो सकता है।

अभ्यास प्रश्न: ‘संकटकाल में महिलाएँ समाज की रीढ़ होती हैं यद्यपि ऐसी आपदाओं का अधिक प्रतिकूल प्रभाव उन पर ही पड़ने की संभावना भी अधिक होती है।‘ कोविड-19 महामारी के संदर्भ में इस कथन का विश्लेषण कीजिये।

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