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क्यों आवश्यक है पुलिस सुधार?

  • 29 Dec 2017
  • 8 min read

चर्चा में क्यों?

  • हाल ही में केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में एक आवेदन दायर किया है, जिसमें कहा गया है कि न्यायालय को वर्ष 2006 के पुलिस सुधारों से संबंधित अपने आदेश पर पुनर्विचार करना चाहिये।
  • विदित हो कि वर्ष 2006 में पुलिस सुधारों से संबंधित अपने आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने कई अन्य महत्त्वपूर्ण बातों के अलावा यह भी कहा था कि राज्यों में डीजीपी (director general of police) को कम से कम 2 वर्षों का कार्यकाल दिया जाए।
  • पुलिस सुधारों से संबंधित न्यायालय के अन्य निर्णयों को लागू करने में राज्यों का ढुलमुल रवैया रहा है, लेकिन डीजीपी के लिये 2 वर्षों का कार्यकाल वाले आदेश का जमकर दुरुपयोग किया जा रहा है।
  • कई राज्य तो सेवानिवृत्त होने की उम्र में आ चुके अपने मनपसंद अधिकारियों को सेवानिवृत्ति से मात्र कुछ दिन पहले डीजीपी के पद पर आसीन कर दे रहे हैं। फलस्वरूप 65 वर्ष की आयु के पश्चात् भी कई अधिकारी सेवा में बने हुए हैं।
  • अतः केंद्र सरकार ने न्यायालय से इस मामले में दखल देने को कहा है। दरअसल पुलिस सुधार लंबे समय से उपेक्षित रहे हैं और यह उचित समय है कि इस संबंध में गंभीरता से विचार किया जाए।

पुलिस सुधार की ज़रूरत क्यों?

  • अवसंरचनात्मक कमियाँ:

⇒ देश में पुलिस कई प्रकार की अवसंरचनात्मक कमियों से जूझ रही है, जैसे-

1. कार्यबल में कमी।
2. फॉरेंसिक जाँच व प्रशिक्षण की निम्न गुणवत्ता।
3. अत्याधुनिक हथियारों की कमी।
4.वाहनों व संचार साधनों की कमी।

⇒ पदोन्नति तथा कार्य के घंटों को लेकर भी कार्मिक समस्या बनी हुई है और ये अवसंरचनात्मक कमियाँ पुलिस की कार्यशैली को प्रभावित करती हैं।

  • पारदर्शिता का अभाव:

⇒ पुलिस भर्ती के नियमों में पारदर्शिता की कमी के कारण इसमें बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार होता है।
⇒ पुलिस की छवि आज एक भ्रष्ट और गैर-ज़िम्मेदार विभाग की बन चुकी है। यह प्रवृत्ति देश की कानून-व्यवस्था के लिये खतरनाक है।

  • राजनीतिक हस्तक्षेप:

⇒ लोगों में यह आमधारणा बन गई है कि पुलिस प्रशासन सत्ता पक्ष द्वारा नियंत्रित होता है।
⇒ राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण आम जनता के प्रति पुलिस की जवाबदेही संदिग्ध हो गई है।

पुलिस सुधारों के संदर्भ में अब तक के प्रयास:

  • दरअसल, देश में पुलिस-सुधार के प्रयासों की भी एक लंबी श्रृंखला है, जिसमें विधि आयोग, मलिमथ समिति, पद्मनाभैया समिति, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, सोली सोराबजी समिति तथा सबसे महत्त्वपूर्ण प्रकाश सिंह बनाम भारत संघ-2006 मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा दिये गए निर्देश शामिल हैं।
  • इन सभी आयोगों में सर्वाधिक चर्चित रहा धर्मवीर आयोग,  जिसे केंद्र सरकार ने 14 मई 1977 को सभी राज्यों में पुलिस सुधार के लिये आई.ए.एस. अधिकारी धर्मवीर की अध्यक्षता में गठित किया था।

क्यों नाकाफी साबित हुए ये प्रयास?

  • धर्मवीर आयोग ने फरवरी 1979 और 1981 के बीच कुल आठ रिपोर्टें दी थीं। जब काफी लंबे समय तक धर्मवीर आयोग (राष्ट्रीय पुलिस आयोग) की सिफारिशों पर कोई ध्यान नहीं दिया गया तो इन्हें लागू करवाने के लिये प्रकाश सिंह ने सर्वोच्च न्यायालय (वर्ष 1996) में एक जनहित याचिका दायर की।
  • लगभग एक दशक तक यह मामला न्यायालय में चलता रहा और 22 सितंबर, 2006 को आयोग की सिफारिशों की पड़ताल कर न्यायालय ने राज्यों के लिये और केंद्र के लिये कुछ दिशा-निर्देश जारी किये।
  • लेकिन यह चिंतनीय है कि प्रकाश सिंह बनाम भारत संघ-2006 मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा दिये गए निर्देशों के लगभग 11 वर्ष बीतने के बावज़ूद इनका पूर्णतः अनुपालन सुनिश्चित नहीं हो पाया है।

सुप्रीम कोर्ट एवं अन्य समितियों के निर्देश

आगे की राह

पुलिस सुधारों के लिये प्रकाश सिंह मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के पालन के अलावा कुछ अन्य उपाय भी करने होंगे।

  • भारतीय पुलिस अधिनियम 1861 में बदलाव:

⇒ भारतीय संविधान में पुलिस, राज्य सूची का एक अनन्य विषय है। राज्य पुलिस के मुद्दे पर कोई भी कानून बना सकते हैं।
⇒ हालाँकि, अधिकांश राज्य कुछ फेर-बदल के साथ पुराने भारतीय पुलिस अधिनियम, 1861 का ही पालन करते हैं।
⇒ अतः पुलिस अधिनियम, 1861 को किसी ऐसे कानून द्वारा प्रतिस्थापित किया जाना चाहिये जो कि भारतीय राजनीति के लोकतांत्रिक स्वरूप और बदले हुए वक्त से मेल खाता हो।

  • पुलिस-जनसंख्या अनुपात में वृद्धि:

⇒ सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों में कार्यबल में वृद्धि की बात की गई है, लेकिन इस समस्या पर विशेष ध्यान देने की ज़रूरत है।
⇒ जहाँ पूरे विश्व में प्रति 1 लाख व्यक्तियों की सुरक्षा का दयित्व 270 पुलिस वालों के हाथ में है, वहीं भारत में 1 लाख व्यक्तियों पर 120 पुलिस वाले ही उपलब्ध हैं।

  • आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 132 और 197 में बदलाव की आवश्यकता :

⇒ दरअसल आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 132 और 197 में वर्णित प्रावधानों के कारण अदालतों को अपने दायित्वों के निर्वहन में असफल रहने वाले अधिकारियों के विरुद्ध कार्रवाई में दिक्कतें आती हैं। 
⇒ फलस्वरूप किसी पुलिस अधिकारी के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज़ करना एक लंबी और बोझल प्रक्रिया बन जाती है। अतः इन कानूनों में उचित बदलाव किया जाना चाहिये।

  • लोकपाल कानून की ज़रूरत:

⇒ यदि वर्ष 2013 में लोकपाल कानून लागू हो गया तो अब तक बहुत हद तक समस्या का समाधान हो गया होता।
⇒ लोकपाल कानून सीबीआई एवं अन्य वरिष्ठ संस्थाओं में कदाचार रोकने में अहम् भूमिका निभा सकता है।

निष्कर्ष

गौरतलब है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भारतीय पुलिस को SMART अर्थात् संवेदनशील (SENSITIVE), आधुनिक (MODERN), सतर्क व ज़िम्मेदार (ALERT and ACCOUNTABLE), विश्वसनीय (RELIABLE) तथा तकनीकी क्षमता युक्त एवं प्रशिक्षित (TECHNO-SAVY and TRAINED) बनाने का आह्वान किया है। लेकिन, बिना पुलिस सुधारों के ऐसा शायद ही संभव हो पाए।

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