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एडिटोरियल

अंतर्राष्ट्रीय संबंध

राज्यों के लिये करारोपण का समय

  • 25 Jul 2017
  • 9 min read

संदर्भ
गौरतलब है कि 101 वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा लागू की गई नई वस्तु एवं सेवा कर Goods and Services Tax (GST) व्यवस्था वस्तुतः इस मौलिक अवधारणा पर आधारित है कि पूरे देश के कर प्रशासन में समानता लाने का विचार न केवल संपूर्ण देश को एकल बाज़ार के रूप में रूपांतरित करने के लिये बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण है बल्कि अत्यधिक सराहनीय भी है| तथापि इस संबंध में बहुत से ऐसे प्रश्न भी उभर कर सामने आ रहे है जिनके विषय में गंभीरता से चिंतन करने की आवश्यकता है|

राजकोषीय स्वायत्ता की समाप्ति

  • उदाहरण के लिये, हम आज तक यह नहीं जान पाए हैं कि क्या भारत जैसे देश के लिये कर समानता अथवा एकल बाजार की आवश्यकता है और यदि है भी तो क्यों?
  • हम यह भी नहीं जानते है कि इससे हम कैसे खुश रह पाएंगे अथवा यह स्वतंत्रता और समानता (संविधान के मूल तत्व) के कारणों में किस प्रकार वृद्धि करेगा| वस्तुतः हम जो कुछ भी जानते है वह यह है कि जी.एस.टी. सहकारी संघवाद (cooperative federalism) का एक तरीका है|
  • यह वास्तव में भारत के राज्यों को संविधान में दिये गए प्राधिकारों में हस्तक्षेप करता है| इसके परिणामस्वरूप राज्य संविधान के मूल ढांचे के आधार पर राजकोषीय स्वतंत्रता के लिये संघर्ष करते हैं जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने अनुलंघ्नीय बताया है|
  • विदित हो कि संविधान को जब इसके मूल रूप में अपनाया गया था तब इसमें एक स्पष्ट, संघीय व्यवस्था के निर्माण का उल्लेख किया गया था| इसके अतिरिक्त इसके अंतर्गत द्विस्तरीय सरकारों की स्थापना का भी उल्लेख किया गया है जिनमें केंद्र सरकार तथा प्रत्येक राज्य की सरकारों को सम्मिलित किया गया हैं|
  • यद्यपि राष्ट्रीय महत्त्व के मामलें जैसे-भारत का विदेश मंत्रालय और रक्षा क्षेत्र के संबंध में किसी भी प्रकार का निर्णय लेने की शक्ति केंद्र सरकार के पास मौजूद है परन्तु फिर भी राज्यों को दी गई जिम्मेदारियाँ भी अपने स्थान पर बहुत महत्त्वपूर्ण है| 

करों में सहभागिता 

  • इस संवैधानिक योजना में (जहाँ राज्य सरकारों को समान भागीदार के रूप में देखा जा रहा है) संविधान निर्माताओं ने कराधान की शक्तियों को सौपने में बहुत सावधानी बरती है|
  • वस्तुतः इस उद्देश्य के लिये किया गया यह विभाजन बहुत अधिक जटिल है| साथ ही यह इस बात को भी सुनिश्चित करता है कि केंद्र और राज्यों को दिये गए कर अनन्य हैं|
  • राजकोषीय जिम्मदारियों का यह विभाजन राज्यों को आत्मनिर्भर बनने और अपने लोगों की आवश्यकताओं के अनूरूप राज्यों को क्षेत्रीय शक्ति सौंपने के दृष्टिकोण से अपनाया गया था| 

जी.एस.टी . परिषद् 

  • यह और बात है कि जी.एस.टी. का परिचय वृहद् संवैधानिक आधार (संविधान के अनुच्छेद 1 जो कहता है कि ‘भारत, राज्यों का संघ’ है) के साथ दिया गया है तथापि जी.एस.टी. की मूल अवधारणा में निहित संपूर्ण देश के लिये एकल बाज़ार की अवधारणा को सार्थक रूप प्रदान करने के लिये उक्त अधिनियम में केंद्र एवं राज्य दोनों को लगभग सभी अप्रत्यक्ष करों में सहकारिता शक्तियाँ प्रदान की गई है|
  • इस संपूर्ण व्यवस्था को सुचारू रूप से संचालित करने के उद्देश्य से केंद्र सरकार ने उक्त अधिनियम के तहत एक जी.एस.टी. परिषद् की स्थापना करने संबंधी प्रावधान भी किया है| इस परिषद् में केंद्रीय वित्त मंत्री के साथ-साथ केंद्रीय राजस्व या वित्त के प्रभारी राज्य मंत्री और प्रत्येक राज्य सरकार से वित्त के प्रभारी मंत्री को शामिल किया जाएगा|
  • यह परिषद् एक प्रकार की नोडल एजेंसी के रूप में कार्य करेगी| यह परिषद् कई चीजों की सिफारिश भी करेगी जैसे- उन करों की सूची जो जी.एस.टी. के तहत लगाए जाएंगे, वस्तुएँ और सेवाएँ जिन्हें कर के दायरे से बाहर रखा जाएगा तथा वह दर जिससे कर लगाया जाएगा इत्यादि|
  • परिषद् द्वारा किये जाने वाले सभी निर्णयों के लिये तीन चौथाई बहुमत की आवश्यकता होगी परंतु डाले गये सभी मतों में से एक चौथाई का अधिकार केंद्र सरकार के पास होगा, जिसके आधार पर केंद्र सरकार के पास काल्पनिक विशेषाधिकार (virtual veto) मौजूद होगा|

जी.एस.टी . परिषद् पर असमंजस की स्थिति

  • हालाँकि इस संबंध में अभी तक इस बात पर असमंजस की स्थिति बनी हुई है कि क्या जी.एस.टी. परिषद् के निर्णय वास्तव में सभी राज्य सरकारों के लिये बाध्यकारी होंगे अथवा इसमें किसी विशेष छूट का भी प्रावधान है| उदाहरण के लिये आर्थिक रूप से पिछड़े राज्यों हेतु किसी विशेष प्रकार की छुट इत्यादि|
  • उल्लेखनीय है कि जी.एस.टी. के संबंध में संविधान में शामिल किये गए नए अनुच्छेद 279 अ के अंतर्गत परिषद् के गठन का प्रावधान किया गया है| इसके अंतर्गत परिषद् के निर्णयों को अनुशंसाओं के रूप में उल्लेखित किया गया है| परन्तु इसके अंतर्गत परिषद् को यह शक्ति भी प्रदान की गई है कि वह किसी भी ऐसे विवाद के निवारण के लिये एक प्रक्रिया का निर्माण करें जो इसकी अनुशंसाओं के क्रियान्वयन के समय इसके सदस्यों के समक्ष आए|
  • यहाँ प्रश्न यह बनता है कि यदि परिषद् की अनुशंसाओं को पूर्णतः सलाहकारी माना जाए तो हमें विवाद निवारण प्रक्रिया की आवश्यकता ही क्यों है|
  • उक्त विवरण से यह स्पष्ट होता है कि यह संशोधन राजकोषीय विभाजन में मूल परिवर्तन कर देगा| संभवतः यही कारण है कि संविधान निर्माताओं ने संविधान का निर्माण बहुत ही सावधानीपूर्वक किया है|
  • जिसके परिणामस्वरूप, भविष्य में हमारे समक्ष एक ऐसा परिदृश्य होगा जहाँ एक अथवा दूसरे राज्य केवल वस्तुओं की बिक्री पर ही नहीं बल्कि सेवाओं और विनिर्माण पर भी अतिरिक्त कर आरोपित कर सकते हैं| हालाँकि ये ऐसे विषय हैं जहाँ केंद्र सरकार अपनी अनन्य शक्तियों का प्रयोग कर सकती है|
  • दूसरी ओर, यदि इन अनुशंसाओं को अनिवार्य माना गया तो हम एक ऐसी परिस्थिति का सामना करेंगे जहाँ सभी राज्य मिलकर अपनी राजकोषीय स्वायत्ता केंद्र सरकार को सौंप देंगे| ऐसी स्थिति में, एक राज्य को अपने लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये अपने कानूनों का निर्माण करने से पीछे हटने को मजबूर होना पड़ेगा|

निष्कर्ष
जैसा की हम सभी जानते है कि भारत के संघीय ढांचे का निर्माण एक ऐसे सिद्धांत को आधार बनाकर किया गया है जिसमें आतंरिक संप्रभुता को बनाए रखने का वादा किया गया है| आतंरिक संप्रभुता का तात्पर्य ऐसी स्थिति से है जहाँ राज्य केंद्र द्वारा उन्हें (राज्यों को) दिये गए अधिकार क्षेत्र के भीतर एक पृथक राजनीतिक संस्था के रूप में कार्य करते है| परन्तु प्रायः संघवाद को बनाए रखने का विचार राज्यों के अधिकारों के संरक्षण के दायित्वों से परे हो जाता है|

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