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कृषि संकट सुधार हेतु स्मार्ट समाधान

  • 16 Dec 2017
  • 14 min read

पिछले कुछ समय से कृषि तकनीक चर्चा का विषय बना हुआ है। कृषि में सुधार एवं उत्पादकता बढ़ाने के संबंध में डिजिटल प्रौद्योगिकी, महत्त्वपूर्ण मशीनों के संदर्भ में जानकारी, आवश्यक ज्ञान, आर्टिफिसियल इंटेलिजेंस से संबद्ध मुद्दों, सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी जैसे विभिन्न आयामों के संदर्भ में कार्य किया जा रहा है।  वस्तुतः इन सभी प्रयासों का मूल उद्देश्य भारतीय कृषि को आधुनिक तकनीकी से जोड़ते हुए किसानों के साथ-साथ कृषि कार्यों में संलग्न सभी समुदायों को लाभान्वित करना है। आधुनिक तकनीकी उपकरणों के प्रयोग से कृषिगत समस्याओं का समाधान ढूँढने तथा इस दिशा में अन्य उपयोगी सुधार करने के प्रयास किये जा रहे हैं। हालाँकि, कृषि क्षेत्र की समस्याओं का समाधान करने से पहले हमें इसकी समस्याओं के कारणों के विषय में जानना अधिक ज़रूरी है। इन्हीं सब पक्षों के संदर्भ में इस लेख में प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है।

समस्यागत क्षेत्र कौन-कौन से हैं? 

  • कृषिगत समस्याओं का समाधान करने के लिये सबसे पहले किसानों की दो प्रमुख समस्याओं के विषय में जानना बेहद ज़रूरी है, एक है जोखिम और दूसरी है लाभप्रदता।
  • एक लंबे समय से किसानों की जोखिम उठाने की क्षमता में कमी हो रही है। उनके वित्तीय साधन इतने क्षीण हैं कि मात्र एकल फसल की विफलता उन्हें गंभीर संकट में डाल सकती है, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें आत्महत्या तक के विकल्प को चुनना पड़ता है। 
  • इस संदर्भ में किसानों के समक्ष ज़ोखिम के तीन प्रमुख क्षेत्र मौजूद हैं-

सूखा, ऐसी ही एक समस्या है, जिसके परिणामस्वरूप पूरी फसल विफल हो जाती है। सिंचाई की सुविधाओं तक पहुँच न होना कृषि के मार्ग में बहुत बड़ा व्यवधान है। 

  • वस्तुतः कृषि में पानी के उपयोग की दक्षता में सुधार करने की आवश्यकता है। इसके लिये ज़रूरी है कि बाढ़ के जल को सिंचाई प्रणालियों जैसे ड्रिप प्रणाली इत्यादि से प्रबंधित किया जाए, ताकि बाढ़ के तकरीबन 50-70 प्रतिशत पानी को सिंचाई कार्य हेतु उपयोग में लाया जा सके। 
  • इसके लिये ज़रूरी है हम प्रत्यक्ष रूप से बोये जाने वाले चावल के स्थान पर प्रत्यारोपित धान का उपयोग करना शुरू करें ताकि पानी की एक विशाल मात्रा को बचाया जा सके। 
  • प्रौद्योगिकी के मोर्चे पर इस प्रकार के धान में पानी की बचत करने में सक्षम जीन मौजूद होते हैं जो सामान्य धान की फसल की तुलना में 30 प्रतिशत तक जल संरक्षित कर सकते हैं।
  • यदि भारत में धान की इस किस्म को बोये जाने के संदर्भ में स्वीकृति प्राप्त हो जाती है तो इससे लगभग 10 करोड़ हेक्टेयर वर्षायुक्त कृषि को लाभ पहुँचेगा। 
  • आधुनिक सेंसर हमें मिट्टी की नमी को ट्रैक करने और सिंचाई को नियंत्रित करने में मदद करते हैं।

किसानों की दूसरी सबसे बड़ी समस्या बारिश, बाढ़ और चक्रवात जैसी प्राकृतिक आपदाओं के कारण क्षतिग्रस्त होने वाली तैयार-फसल होती है। हालाँकि, इस नुकसान की भरपाई हेतु एक सशक्त बीमा कार्यक्रम को लागू  करके समाधान किया जा सकता है।

  • फसल बीमा का सही अनुपात में भुगतान करने का सबसे बेहतर तरीक यह है कि फसल नुकसान के संदर्भ में ज़मीनी छानबीन के साथ-साथ उपग्रहों, सेंसरों और अन्य आधुनिक उपकरणों के माध्यम से जानकारियाँ एकत्रित की जानी चाहिये, ताकि ज़मीनी स्तर पर वास्तविक आँकड़ों को प्राप्त किया जा सके। 
  • इसका एक लाभ यह होगा कि इससे फसल तैयार करने से पूर्व तथा फसल तैयार होने के बाद की स्थिति के विषय में सटीक जानकारी प्राप्त हो सकेगी और नुकसान की सटीक भरपाई भी संभव हो सकेगी। 
  • इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि किसानों द्वारा अपनी फसल में जो भी निवेश किया गया है वह पूरी तरह से सुरक्षित है।

तीसरी सबसे अहम् समस्या मूल्य जोखिम की है। 

  • किसी भी फसल के रोपण के दौरान किसान को उसकी फसल के लिये प्राप्त होने वाली कीमत की संभावना के बारे में कोई जानकारी नहीं होती है। वह पिछले साल की कीमतों और वर्तमान बाज़ार मूल्य के आधार पर ही यह निर्णय करता है। इस निर्णय में हुई हल्की सी चूक उसकी वर्ष भर की मेहनत को शून्य कर देती है। 
  • इस प्रर्किया में कभी-कभी गंभीर नुकसान उठाना पड़ता है तो कभी अप्रत्याक्षित लाभ भी होता है। 
  • इसके समाधान के रूप में फसल के लिये न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित किया जा सकता है, ताकि बोई गई फसल के सन्दर्भ में एक न्यूनतम लाभ को सुनिश्चित किया जा सकें। 

इसके अतिरिक्त चौथी अहम् समस्या फसल से प्राप्त होने वाले परिचालन लाभ (operational profits) की कमी है।

  • किसी भी फसल की लाभप्रदता उसमें निवेश की गई मात्रा और उनकी कीमतों तथा उससे प्राप्त होने वाली उपज एवं उसकी कीमत पर निर्भर करती है।
  • एकीकृत खेती के तरीकों का उपयोग करके कृषिगत लागत को कम किया जा सकता है। इसमें पैदावार और गुणवत्ता में कमी लाए बिना निवारक कृषि संबंधी विधियों और कुछ उपयोगी रासायनिक विधियों के बीच संतुलन स्थापित किया जा सकता है। इसके लिये ज़रूरी है कि सबसे पहले जुताई को कम किया जाए तथा बेहतर मिट्टी संरचनाओं को बढ़ावा प्रदान किया जाए। 
  • न्यूनतम जुताई का सुझाव इसलिये दिया गया है क्योंकि इससे मिट्टी के क्षरण को रोकने में मदद मिलती है। 
  • दूसरे, रासायनिक उर्वरकों के अंधाधुंध उपयोग की वज़ह से क्षतिग्रस्त होने वाली मिट्टी की संरचना को बहाल करने की दिशा में प्रयास किये जाने चाहिये। 
  • इसके लिये कुछ महत्त्वपूर्ण जैव प्रौद्योगिकी समाधानों जैसे नाइट्रोजन और फास्फोरस उपयोग की क्षमता वाले जीनों के उपयोग की बढ़ावा दिया जाना चाहिये ताकि उर्वरकों की खपत को कम करने में सहायता मिल सके।  

उर्वरकों का उपयोग कम किया जाना चाहिये 

  • NUE (nitrogen-use efficiency) और PUE (phosphorus-use efficiency) जीन नियामक प्रणाली के अंतर्गत शामिल होते हैं। 
  • अगर इन्हें किसानों को व्यावसायिक तौर पर उपलब्ध कराया जाता है तो ये न केवल उर्वरकों की खपत को कम करने में सहायता करेंगे बल्कि इनसे कृषिगत लागत में भी वृद्धि होगी। 
  • साथ ही इससे बेहतर मिट्टी संरचनाओं को भी बढ़ावा मिलेगा।

डिजीटल प्रारूप का प्रयोग 

  • इसके समाधान के तौर पर एक डिजीटल मार्केटप्लेस का निर्माण करके इनपुट लागत में कमी की जा सकती है। इसका एक लाभ यह होगा कि इससे बिचौलियों की भूमिका समाप्त हो जाएगी।
  • हालाँकि, यदि किसानों को सीधे बाज़ारों से संबद्ध कर दिया जाए तो उन्हें उनकी फसल का उचित मूल्य प्रदान किया जा सकता है। इसके लिये डिजीटल प्रौद्योगिकी का उपयोग किया जाना चाहिये।
  • इसी क्रम में समय पर क्रेडिट भुगतान एक अन्य महत्त्वपूर्ण पक्ष है। बैंक कर्मचारियों के लिये शारीरिक रूप से घर-घर जाकर समय पर सभी किसानों को कवर कर पाना संभव नहीं है। 
  • ऐसे में यदि इस प्रक्रिया को पूरी तरह से डिजीटलीकृत कर दिया जाता है तो त्वरित अनुमोदन के साथ ऋण के वितरण के दायरे में वृद्धि की जा सकती है। 
  • उदाहरण के तौर पर आधार कार्ड से संबद्ध सभी बैंक खातों के लिये यह कार्य करना बिलकुल भी कठिन नहीं है। बहुत आसानी से इन खातों की मदद से सही व्यक्ति तक उचित सहायता उपलब्ध कराई जा सकती है।
  • हालाँकि, इसके लिये सबसे ज़रूरी यह है कि भूमि अभिलेखों को डिजीटलीकृत रूप में व्यवस्थित किया जाना चाहिये, ताकि इस प्रक्रिया को और अधिक सहज तरीके से संपन्न किया जा सके। इसके लिये आईसीटी का भी उपयोग किया जा सकता है।
  • इसके अतिरिक्त कीटों और बीमारियों के फार्म-स्तरीय निदान, पोषण संबंधी सलाह इत्यादि के विषय में किसानों को समय-समय पर सूचित करने के लिये मोबाइल फोन आदि का उपयोग किया जा सकता है।
  • इन सभी प्रयासों के लिये सबसे अधिक ज़रूरी यह है कि सरकार को इन सभी जानकारियों को एकीकृत रूप में व्यवस्थित डाटा बेस के रूप में प्रबंधित किया जाना चाहिये। 

सेवाओं को सक्षम बनाना 

  • हाल ही में आंध्र प्रदेश के विजाग में संपन्न हुए एग्टेक शिखर सम्मेलन में इनमें से अधिकांश एग टेक उपकरणों को प्रदर्शित किया गया।
  • इसका उद्देश्य निर्बाध तथा एकीकृत एंड -टू-एंड समाधान प्रदान करने के लिये सभी सेवाओं को एक प्लेटफॉर्म उपलब्ध करना है।
  • इस संदर्भ में अनुसंधान और नवाचार में निवेश करने के लिये केंद्र और राज्य सरकारों को प्रौद्योगिकी डेवलपर्स हेतु आवश्यक सक्षम नीतिगत वातावरण तैयार करने पर बल देना चाहिये। 
  • इसके साथ-साथ इन डेवलपर्स की बौद्धिक संपदा और हितों को संरक्षित करने के संबंध में प्रयास किये जाने चाहिये।

निष्कर्ष

हालाँकि, यहाँ बहुत सतर्कता बरतने की भी आवश्यकता है। कृषि क्षेत्र में प्रौद्योगिकी का उपयोग केवल किसानों के सहायतार्थ ही किया जाना चाहिये न कि उन्हें रोज़गार विहीन या प्रौद्योगिकी का गुलाम बनाने के लिये किया जाना चाहिये। वस्तुतः खेती एक उत्पादन गतिविधि है, इसमें तकनीक का उपयोग करने या न करने के लिये किसान के निर्णय एवं उसके द्वारा प्रस्तुत कारणों को सबसे अधिक महत्त्व दिया जाना चाहिये। इसके लिये ज़रूरी है कि सरकार को किसानों द्वारा आधुनिक विज्ञान और प्रौद्योगिकी उपकरणों को धीरे-धीरे अपनाने तथा उसे अवशोषित करने के लिये उनके बीच क्षमता निर्माण जैसे अहम् पक्षों के विषय में भी विचार करना चाहिये। हालाँकि, प्रौद्योगिकी बेहतर कृषिगत क्रियाकलापों (जीएपी) का विकल्प कभी नहीं हो सकती है, तथापि इस संदर्भ में और अधिक गंभीरता से विचार करते हुए बेहतर निर्णय लिये जाने की आवश्यकता है।

प्रश्न: “किसानों की जोखिम उठाने की क्षमता में कमी हो रही है’ इस वाक्य के आलोक में भारत में कृषि क्षेत्र की मौजूदा समस्याओं और उनके समाधान के पक्षों पर विचार करते हुए इस संदर्भ में भारत सरकार द्वारा किये गए प्रयासों पर प्रकाश डालिये।

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