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एडिटोरियल

अंतर्राष्ट्रीय संबंध

भारत में शिक्षा के अधिकार की वास्तविकता

  • 09 Aug 2017
  • 10 min read

भूमिका

 शिक्षा का अधिकार (Right to Education Act – RTE) अथवा बच्चों को मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम (Right of Children to Free and Compulsory Education Act) को लाने का उद्देश्य भारत के सामाजिक विकास की राह में रोड़ा बनी सबसे बड़ी समस्या का हल करना था| शिक्षा के अधिकार अधिनियम को आरंभ करते समय ऐसी कल्पना की गई थी कि यह अधिनियम न केवल लाखों गरीब एवं कमज़ोर बच्चों को स्कूल की राह तक लाएगा, बल्कि भविष्य में भारत की कार्यशील जनसंख्या के बहुत बड़े वर्ग का प्रतिनिधित्व भी करेगा| इससे न केवल देश के प्रत्येक बच्चे तक अनिवार्य शिक्षा पहुँचेगी बल्कि इससे सामाजिक विभेदन की सीमा को पार करने में भी सफलता हासिल होगी| हालाँकि, परिणाम ऐसे नहीं रहे| यदि इस संबंध में गहराई से विचार करें तो ज्ञात होता है कि इस अधिनियम के लागू होने के सात वर्ष बाद भी यह न तो हमारी उपेक्षाओं पर खरा उतरा है और न ही इसका लाभ समाज के उस वर्ग तक पहुँचा है, जिसे ध्यान में रखकर इसका निर्माण किया गया था| 

  • इसी क्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा लिये गए नो-डिटेंशन पॉलिसी (No-detention policy – NDP) के निर्णय ने न केवल इसे और अधिक विवादास्पद बना दिया, बल्कि इसके बहुत बुरे परिणाम भी प्रदान किये|

  • एन.डी.पी. क्या है?एन.डी.पी. को एक ऐसी प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया गया, जिसके तहत छात्रों को कक्षा आठ तक बिना किसी परीक्षा के एक कक्षा से दूसरी कक्षा में स्वचालित रूप से स्थानांतरित कर दिया जाता है| 

एसर रिपोर्ट 

  • हाल ही में बहुप्रचलित एसर रिपोर्ट (Annual Status of Education Report – ASER) का नवीनतम संस्करण प्रकाशित हुआ है, जिसके अंतर्गत समग्र शिक्षा स्तरों को मापा गया| इस प्रक्रिया में यह पाया गया कि एन.डी.पी. के चलन में आने के बाद बच्चों की सीखने की क्षमता में निरंतर कमी आई है|

  • रिपोर्ट में निहित जानकारी के अनुसार, कक्षा पाँच में पढ़ने वाले मात्र 48 फीसदी बच्चे कक्षा दो के स्तर की किताब पढ़ने में योग्य पाए गए, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में कक्षा तीन में पढ़ने वाले मात्र 43.2 फीसदी बच्चे ही सामान्य विभाजन करने में सक्षम पाए गए| इतना ही नहीं कक्षा पाँच में पढ़ने वाले प्रत्येक पाँच में से मात्र एक बच्चा ही अंग्रेज़ी पढ़ने में सक्षम पाया गया|

  • उल्लेखनीय है कि केंद्रीय सलाहकार शिक्षा बोर्ड (Central Advisory Board of Education) के साथ-साथ कैग (comptroller and auditor general) द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट में भी एन.डी.पी. को दोषपूर्ण पाया गया| 

  • इतना ही नहीं तकरीबन 20 से अधिक राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों के द्वारा इस नीति को हटाने अथवा संशोधित करने की मांग की गई है|  

एन.डी.पी. के पक्ष में मत 

  • एन.डी.पी. के समर्थकों के मतानुसार विश्व के कई देशों के द्वारा उनकी उच्च शिक्षा व्यवस्था में इस नीति को भली-भाँति लागू किया गया है| उदाहरण के तौर पर फिनलैंड एवं जापान| इनका कहना है कि भारत में इस नीति की असफलता का मुख्य कारण इसका सही रूप में अनुपालन न हो पाना है| यह सच है कि विश्व के बहुत से देशों में यह नीति पूर्णतया सफल साबित हुई है|

  • वस्तुतः एन.डी.पी. को एक वृहद् निरंतरता एवं समग्र मूल्याँकन रूपी प्रयासों के तहत वार्षिक परीक्षा प्रणाली के विकल्प के रूप में लाया गया था|

  • हालाँकि, सी.सी.ई. (continuous and comprehensive evaluation – CCE) पद्धति में अध्यस्त शिक्षकों के लिये इस नई पद्धति को अपनाना एवं इसके अनुसार अपनी अध्यापन प्रणाली में सुधार करना, उतना आसान नहीं रहा, जितने की उम्मीद की गई थी|

  • इसका एक कारण यह भी है कि भारत में अध्यापन को उतनी गंभीरता से नहीं लिया जाता है, जितना इसकी आवश्यकता है| परिणामस्वरूप इस नीति के वैसे परिणाम सामने नहीं आये जैसे कि इससे कल्पना की गई थी|

  • एन.डी.पी. के समर्थकों द्वारा इसके पक्ष में एक और तर्क प्रस्तुत किया जाता है कि इस नीति का एक अन्य मुख्य उद्देश्य बीच स्तर में पढ़ाई छोड़ने वाले बच्चों की संख्या में कमी लाना, जिसे सफलतापूर्वक प्राप्त कर लिया गया है|

  • हालाँकि, इस संदर्भ में प्रश्न यह बनता है कि स्कूलों में उपस्थित बच्चों की ऐसी संख्या का क्या करना, जो पढ़ना-लिखना ही नहीं जानती है|  

  • एन.डी.पी. के पक्ष में एक अन्य तर्क और भी प्रस्तुत किया जाता है कि इसके अनुपालन के बाद से स्कूलों में बच्चों के नामाँकन की दर में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है| हालाँकि, यह पूर्णतया सच नहीं है| 

  • यह सही है कि इससे नामाँकन संख्या बढ़ी है, परंतु एन.डी.पी. के आने से पूर्व भी नामाँकन संख्या अच्छी स्थिति में थी| इसका संभावित कारण यह था कि सर्व शिक्षा अभियान एवं मिड-डे मील जैसी व्यवस्थाओं ने इस दिशा में उल्लेखनीय योगदान दिया| 

शिक्षा का अधिकार अधिनियम 

  • ध्यातव्य है कि शिक्षा के अधिकार अधिनियम के अंतर्गत 25 फीसदी सीटें गरीब तबके के बच्चों के लिये आरक्षित करना एक अनिवार्य शर्त है| इसके अतिरिक्त शिक्षक एवं बच्चों का उच्च अनुपात, स्कूलों के भवन एवं अन्य बुनियादी सुविधाओं हेतु उच्च स्तरीय व्यवस्थाएँ करना, शिक्षकों एवं स्कूल के अन्य कर्मचारियों के लिये काम के घंटे तय करना इत्यादि के विषय में उपयुक्त व्यवस्था की गई है|

  • तथापि, इसके अंतर्गत बच्चों के सीखने की प्रवृत्ति एवं शिक्षकों के अध्यापन संबंधी प्रदर्शन के विषय में कोई आवश्यक प्रबंध नहीं किया गया है| 

  • इस अधिनियम के अनुपालन की अनिवार्यता संबंधी प्रावधान का प्रभाव यह हुआ कि निजी स्कूलों के संचालन के रूप में शिक्षा का व्यवसाय कर रहे कुछ निजी स्कूल या तो स्वयं बंद हो गए या फिर उन्हें नियमों का उल्लंघन करने के आरोप में स्कूल बंद करने का नोटिस दे दिया गया|

  • हालाँकि, सरकारी स्कूलों पर इसका कोई विशेष प्रभाव नहीं हुआ| यही स्थिति अल्पसंख्यकों द्वारा संचालित स्कूलों की भी रही क्योंकि आर.टी.ई. के दायरे से बाहर होने के कारण उन पर भी इसका कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा| 

निष्कर्षतः यह कहना गलत नहीं होगा कि यदि कोई माता-पिता सरकारी स्कूलों की ऐसी स्थिति देखता है तो वह गरीबी के बावजूद अपने बच्चों को शिक्षा ग्रहण करने के लिये निजी स्कूलों की ओर ही रुख करेगा| संभवतः इसका एक कारण सरकारी स्कूलों में अध्यापकों की नगण्य होती जवाबदेहिता भी है| निजी स्कूलों की भाँति सरकारी स्कूलों के अध्यापकों को प्रदर्शन अच्छा न होने पर न तो नौकरी खोने का भय होता है और न ही उनकी शिक्षण पद्धति की समय-समय पर जाँच ही होती है| यह और बात है कि निजी स्कूलों में पढ़ाने वाले शिक्षकों में न तो शिक्षा का उच्च स्तर ही पाया जाता है और न ही उन्हें अच्छा वेतन ही प्राप्त होता है| अंततः चाहे वह आर.टी.ई. हो या एन.डी.पी. शिक्षण का मूल ध्येय एक बेहतर शिक्षा पद्धति विकसित करने के साथ-साथ बच्चों का सर्वांगीण विकास करना होना चाहिये, क्योंकि आज के बच्चे कल का भविष्य है और यह भविष्य बहुत हद तक शिक्षकों के हाथ में है|

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