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एडिटोरियल

भारतीय राजव्यवस्था

राज्य सरकार के वित्त पर ध्यान देने की ज़रूरत

  • 16 Aug 2018
  • 9 min read

संदर्भ

राजकोषीय घाटे में बढ़ोतरी भारतीय अर्थव्यवस्था के लिये चिंता का कारण बन गई है। एक भय यह भी है कि केंद्र सरकार राजकोषीय घाटे की समाप्ति के लिये निर्धारित वित्तीय वर्ष 2019 के लक्ष्य को दरकिनार कर सकती है क्योंकि वस्तु एवं सेवा कर से राजस्व का निष्पादन लक्ष्य से कम रहा है और चुनाव पूर्व वर्ष होने के कारण व्यय प्रतिबद्धता में भी बढ़ोतरी हो सकती है। इसके अतिरिक्त राज्य सरकारों की वित्तीय स्थिति भी चिंता का एक महत्त्वपूर्ण कारण है।

प्रमुख बिंदु

  • हाल ही में भारत सरकार के वित्त पर भारतीय रिज़र्व बैंक (आरबीआई) की रिपोर्ट के अनुसार, वित्त वर्ष 2018 में राज्य सरकारों का समेकित राजकोषीय घाटा 2.7% के बजट अनुमान के मुकाबले 3.1% था। दीर्घकालिक प्रवृत्ति पर नज़र दौड़ाने से पता चलता है कि केंद्र सरकार के राजकोषीय घाटे में कमी आई है। यह पेट्रोल और डीज़ल पर उत्पाद शुल्क में बढ़ोतरी से वित्तीय वर्ष 2012 के 5.9% से घटकर वित्तीय वर्ष 2018 में 3.5% हो गया।
  • वहीं, राज्य सरकारों का राजकोषीय घाटा बढ़ रहा है। संयुक्त राजकोषीय घाटे (केंद्र और राज्य) में राज्यों की हिस्सेदारी वित्तीय वर्ष 2012 के 18% से बढ़कर वित्तीय वर्ष 2018 में 44% हो गया है। समेकित राज्य सरकारों का व्यय केंद्र सरकार के व्यय के आकार का करीब 1.4 गुना है। जबकि पाँच वर्ष पूर्व राज्य सरकार का व्यय, केंद्र सरकार के व्यय के समान था।
  • राजकोषीय संघवाद की भावना के अनुरूप समय-समय पर राज्य सरकारों की व्यय प्रतिबद्धता में वृद्धि हुई है लेकिन अभी भी उन्हें राजस्व संग्रह में सीमित स्वायत्तता है। कुल राजस्व प्राप्ति के प्रतिशत के रूप में राज्यों का अपना राजस्व लगभग 50 प्रतिशत के आसपास ही है, जबकि शेष राजस्व को केंद्र सरकार द्वारा हस्तांतरित किया जाता है। जैसा कि आर्थिक सर्वेक्षण 2017-18 में रेखांकित किया गया है कि ब्राज़ील और ज़र्मनी जैसी अर्थव्यवस्थाओं में यह 75-80% है, जहाँ भारत के समान संघीय प्रणाली की सरकारें हैं।

जीएसटी लागू होने के बाद

  • जीएसटी के शुरू होने से राज्यों की स्वायत्तता और भी कम हो जाती है क्योंकि राज्यों के पास जीएसटी दरों के संदर्भ में स्वतंत्र रूप से निर्णय लेने की शक्ति नहीं है। इसमें  दरें केंद्र और राज्यों द्वारा संयुक्त रूप से तय की जाती हैं।
  • हालाँकि, पूर्व में राज्य सरकार के वित्त पर ज़्यादा ध्यान आकर्षित नहीं हुआ था, किंतु पिछले कुछ वर्षों में उनका महत्त्व बढ़ गया है। बढ़ती व्यय प्रतिबद्धता के साथ, राज्यों के बीच राजकोषीय समझदारी की आवश्यकता पर बल देना महत्वपूर्ण है।
  • राज्य सरकारों के बाज़ार उधार पर निर्भरता के कारण राज्य वित्त भी महत्त्वपूर्ण हो गया है। राज्यों के वित्तीय पोषण में बाज़ार से उधार की हिस्सेदारी वित्तीय वर्ष 2015 के 63% से बढ़कर वित्तीय वर्ष 2019 में 91% हो गई है। इसलिये राज्यों के राजकोषीय घाटे में बढ़ोतरी अब अर्थव्यवस्था में ब्याज दरों के लिये अधिक प्रत्यक्ष प्रभाव डालती है।
  • राज्य सरकारें एफआरबीएमए (वित्तीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन अधिनियम) द्वारा राजकोषीय घाटे को सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 3% तक और राजस्व घाटे के 0% तक सीमित करने को बाध्य हैं। एक समेकित आधार पर राज्य सरकारें वित्तीय वर्ष 2006 के बाद से राजकोषीय घाटे को 3% से नीचे रखने में कामयाब रही थीं।
  • हालाँकि, वित्तीय वर्ष 2016 और 2017 में राज्य सरकारों ने UDAY (उज्ज्वल डिस्काउंट आश्वासन योजना) योजना के तहत बिजली वितरण कंपनियों के कर्ज़ को संभाला, जिससे राजकोषीय घाटे ने 3% के स्तर का उल्लंघन किया। लेकिन चिंताजनक बात यह है कि उदय योजना समाप्त होने के बाद वित्तीय वर्ष 2018 में राजकोषीय घाटा 3% से अधिक हो गया। साथ ही राजस्व घाटा भी बढ़ रहा है।
  • राज्य सरकारों ने वित्त वर्ष 2019 के लिये 2.6% का राजकोषीय घाटा और राजस्व अधिशेष का बजट तैयार किया है। राजस्व खाते में अधिशेष एक अच्छा संकेतक है क्योंकि इसका तात्पर्य है कि उधार केवल उत्पादक पूंजी व्यय के लिये किया जाएगा, न कि इसका उद्देश्य नियमित राजस्व व्यय को पूरा करना है। जबकि राजस्व अधिशेष कागज पर तो अच्छा दिखता है लेकिन इस लक्ष्य की उपलब्धि मुश्किल लगती है।
  • पिछले वित्त वर्ष में कृषि ऋण छूट और राज्य सरकार के कर्मचारियों की वेतन वृद्धि(राजस्व व्यय माना जाता है)  सरकारी वित्त पर दबाव डालने के लिये महत्वपूर्ण कारक थे।
  • कृषि ऋण छूट जैसे- गैर-उत्पादक खर्च राज्यों के पूंजी व्यय में खपत किये जा रहे हैं। राज्य सरकार के कुल व्यय के प्रतिशत के रूप में पूंजीगत व्यय वित्तीय वर्ष 2017 के 20% से वित्तीय वर्ष 2018 - 2019 में 17% तक पहुँच गया। 
  • राजस्व के मोर्चे पर वित्तीय वर्ष 2016 से केंद्र द्वारा एकत्रित कर में राज्यों के लिये समर्पित कर का हिस्सा 42% हो गया है (पूर्व में 32% तक राज्यों को हस्तांतरित किया जाता था)। हालाँकि वर्ष 2018 से उपकर/अधिभार सहित केंद्र के सकल कर राजस्व में राज्यों का हिस्सा 34.6% हो गया है और वर्ष 2019 के लिये भी इसी के अनुसार बजट निर्धारित किया गया है।
  • जीएसटी के शुरू होने से कर आधार के बढ़ने और लंबी अवधि में कर राजस्व में वृद्धि की उम्मीद है। लेकिन अब तक जीएसटी से मासिक संग्रह लक्ष्य से कम ही रहा है।
  • यद्यपि राज्यों को जीएसटी राजस्व संग्रह में कमी के लिये केंद्र द्वारा मुआवज़ा दिया जाएगा, इसके बावज़ूद राजस्व में कमी एक प्रमुख मुद्दा बना हुआ है। साथ ही कई वस्तुओं के लिये जीएसटी दरों में हालिया कमी भी राजस्व संग्रह के बारे में चिंताओं को बढ़ाती है।
  • उल्लेखनीय है कि उदय योजना, कृषि ऋण छूट और वेतन संशोधन के कारण पिछले कुछ सालों में राज्य सरकारों का कर्ज़ तेज़ी से बढ़ गया है। राज्य सरकारों का ऋण-से-जीडीपी अनुपात वित्तीय वर्ष 2015 के 21.5% से बढ़कर 24% हो गई है। जबकि समेकित राज्य सरकारों का ऋण-से-जीडीपी अनुपात केंद्र (46%) से कम है, पिछले तीन वर्षों में यह तेज़ वृद्धि चिंता का महत्त्वपूर्ण कारण है।

निष्कर्ष

यहाँ राज्यों को सावधान रहना होगा क्योंकि उन पर उच्च व्यय की ज़िम्मेदारी है और राजस्व संग्रह में उनकी सीमित स्वायत्तता है। हालाँकि इसे राज्यों के लिये आसान नहीं माना जा सकता है। व्यय के मोर्चे पर राज्यों को यह सुनिश्चित करना है कि व्यय की गुणवत्ता का प्रतिकूल प्रभाव नहीं होगा जैसा कि राजकोषीय घाटे के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिये पूंजीगत व्यय से राजस्व के बढ़ते अनुपात के द्वारा दर्शाया गया है।

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