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एडिटोरियल

अंतर्राष्ट्रीय संबंध

‘अमेरिका फर्स्ट’ बनाम ‘इंडिया फर्स्ट’

  • 07 Feb 2017
  • 10 min read

सन्दर्भ

  • “हम आज एक नया फरमान जारी कर रहें हैं जो विश्व के अन्य देशों की राजधानियों में पहुँचे, वह फरमान है- अमेरिका फर्स्ट, अमेरिका फर्स्ट और अमेरिका फर्स्ट”। जी हाँ! ये अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के उद्गार हैं। डोनाल्ड ट्रम्प के इस फरमान को विभिन्न देशों ने भिन्न-भिन्न प्रकार से सुना जिससे आने वाले कल को लेकर अनिश्चितता और बढ़ गई है। लेकिन अहम सवाल यह है कि अमेरिका फर्स्ट के इस फरमान को नई दिल्ली ने किस प्रकार से सुना है?
  • वाशिंगटन डीसी में मौज़ूद बहुत से राजनयिकों का मानना है कि वर्तमान भारत-अमेरिका संबंध, अमेरिका द्वारा दिखाई गई दयालुता की देन हैं। अमेरिका में नीति-निर्माता अपनी दयालुता का बखान किस हद तक करते हैं, इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि हाल ही में अमेरिका की कूटनीतिक विशेषज्ञ ऐश्ले टेलिस ने कहा था कि “भारत के साथ अमेरिका के संबंध सुधारने की दिशा में कदम बढ़ाने का उद्देश्य एशिया में अमेरिका की भू-राजनैतिक नीति को मज़बूती देना था, कई बार तो भारत के किसी प्रयास से अपेक्षित लाभ न मिलने की स्थिति में भी अमेरिका ने संबंधों में प्रगाढ़ता बनाए रखी और इसे अमेरिका की दयालुता ही माना जाएगा”।

अमेरिका फर्स्ट का आधार क्या है?

  • दरअसल, ट्रम्प की अमेरिका फर्स्ट की नीति के दो आधार हैं- व्यावहारिक और वैचारिक। ट्रंप का मानना है कि प्रत्येक अंतराष्ट्रीय सहभागिता में अगर अमेरिका ने कुछ पाया है तो कुछ खोया भी है, लेकिन अब वह समय आ गया है कि अमेरिका को किसी भी प्रकार की नैतिक ज़िम्मेदारी का बोझ उठाने की ज़रुरत नहीं है। मसलन, लोकतंत्र, मानवाधिकार, और मुक्त व्यापार को बढ़ावा देने में अब तक अमेरिका आगे बढ़कर ज़िम्मेदारियाँ उठाता रहा है, लेकिन डोनाल्ड ट्रम्प की अमेरिका फर्स्ट नीति में इन सभी बातों के लिये अब कोई जगह नहीं है। 
  • वस्तुतः यह हुआ अमेरिका फर्स्ट का व्यावहारिक पक्ष, अब हम बात करते हैं इसके वैचारिक पक्ष की।
  • वैचारिक स्तर पर ट्रम्प का मानना है कि जूदेव ईसाई सभ्यता (जेविश और ईसाई सभ्यता) के अस्तित्व पर ही संकट है और इस संकट का कारण इस्लाम है। अतः इस संबंध में साझेदारियाँ बनाने की ज़रूरत और इस्लाम के विरुद्ध युद्ध छेड़ने की आवश्यकता है। ट्रम्प की अमेरिका फर्स्ट नीति में इस बात की झलक पहले ही मिल चुकी है| विदित हो कि हाल ही में ट्रम्प ने कुछ मुस्लिम देशों के नागरिकों के अमेरिका में प्रवेश करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया है।
  • उल्लेखनीय है कि डोनाल्ड ट्रम्प व्यावहारिक और वैचारिक दोनों ही मोर्चों पर भारत से सहयोग की उम्मीद कर रहे हैं, हालाँकि इस बात को लेकर अनिश्चितता बनी हुई है कि भारत को लेकर अमेरिका की आकांक्षाएँ क्या हैं, लेकिन फिर भी बहुमुखी ट्रम्प को देखकर यह अंदाज़ा तो लगाया ही जा सकता है कि वे भारत से क्या चाहते हैं! इससे पहले कि हम इस सन्दर्भ में समस्याओं पर गौर करें यह समझना दिलचस्प होगा कि जिसे हम ‘इंडिया फर्स्ट’ कह रहे हैं, वह है क्या?


इंडिया फर्स्ट के मायने

  • किसी भी देश की विदेश नीति का उस देश के इतिहास से गहरा सम्बन्ध होता है। भारत की विदेश नीति भी इतिहास और स्वतन्त्रता आन्दोलन से सम्बन्ध रखती है। ऐतिहासिक विरासत के रूप में भारत की विदेश नीति आज उन अनेक तथ्यों को समेटे हुए है जो कभी भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन से उपजे थे।
  • शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व व विश्व शान्ति का विचार हज़ारों वर्ष पुराने उस चिन्तन का परिणाम है, जिसे महात्मा बुद्ध व महात्मा गांधी जैसे विचारकों ने प्रस्तुत किया था। इसी तरह भारत की विदेश नीति में उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद व रंगभेद की नीति का विरोध महान राष्ट्रीय आन्दोलन की उपज है। बदलती वैश्विक परिस्थितियों में अपनी सांस्कृतिक विरासत को बचाए रखना ही इंडिया फर्स्ट है।
  • यदि हम अपने आर्थिक हितों को थोड़े समय के लिये परे रख दें तो भी ट्रम्प की अमेरिका फर्स्ट की नीति और भारत की इंडिया फर्स्ट में टकराव अवश्यम्भावी है। हालाँकि, यह टकराव इस बात पर निर्भर करता है कि हम इंडिया फर्स्ट को लेकर कितने गंभीर हैं।

अमेरिका फर्स्ट से उपजी समस्याएँ

  • आतंकवाद के मोर्चे पर अमेरिका का पाकिस्तान पर नकेल कसना भारत के लिये फायदेमंद हो सकता है, लेकिन ट्रम्प द्वारा ईसाईयत को बढ़ावा देने के कदम का भारत कैसे सामना करेगा? गौरतलब है कि भारत में एनजीओ को मिलने वाले अवैध दान के सन्दर्भ में भारत की चिंताएँ अभी बढ़ी हुई हैं।
  • डोनाल्ड ट्रंप ने ‘अमेरिका फर्स्ट’ का नारा उछालते हुए राष्ट्रपति चुनाव लड़ा। राष्ट्रपति बनते ही इस पर अमल करने में भी उन्होंने देर नहीं लगाई। गौरतलब है कि ट्रम्प ने कहा था कि ‘हमारे देश की आव्रजन नीति इस रूप में तैयार और लागू की जानी चाहिये, जिसमें अमेरिकी हित प्रथम एवं सर्वोपरि रहें’। इसका व्यावहारिक असर यह हुआ है कि विदेशियों के लिये अमेरिका का एच-1बी वीज़ा हासिल करना मुश्किल होने जा रहा है।
  • विदित हो कि ओबामा प्रशासन के दौरान भारत-अमेरिका संबंध नई ऊँचाईयों पर पहुँचे थे| अमेरिका का मकसद एक ओर जहाँ भारत के बढ़ते बाज़ार में अपनी अधिकतम उपस्थिति दर्ज़ कराना था, तो वहीं दूसरी तरफ एशिया में चीन के बढ़ते प्रभुत्व को रोकना भी था।
  • ओबामा प्रशासन चीन को रोकने के संबंध में भारत की चिंताओं के प्रति संवेदनशील था लेकिन ट्रम्प से भी वैसी ही उम्मीद नहीं की जा सकती। क्या होगा यदि आमेरिका भारत से चीन के खिलाफ़ किसी अभियान के लिये उसकी ज़मीन के इस्तेमाल की अनुमति मांगेगा? अब तक अपनी सम्प्रभुता को अपनी नाक बनाए रखने में कामयाब भारत के पास क्या विकल्प होगा, यह एक बड़ा सवाल है।

निष्कर्ष

  • हाल ही में अमेरिका में भारत के राजदूत से ट्रम्प ने कहा था कि ‘आपके प्रधानमंत्री एक अच्छे इंसान हैं’। हालाँकि अन्य चिंताओं में उलझे ट्रम्प के एजेंडे में अभी भारत नहीं है। ज्ञात हो कि हाल ही में भारत की यात्रा पर आए अमेरिका के एक प्रमुख सैन्य अधिकारी एडमिरल हैरी हैरिस ने मांग की थी कि भारत संचार संगतता और सुरक्षा समझौते (Communications Compatibility and Security Agreement-COMCASA) पर हस्ताक्षर करे। इस समझौते पर हस्ताक्षर के बाद भारत-अमेरिका द्वारा चीनी जहाज़ो की संयुक्त निगरानी की जा सकती है। हालाँकि, भारत ने अब तक इस पर हस्ताक्षर नहीं किये हैं।
  • विशेषज्ञों का यही मानना है कि अभी भारत को लो प्रोफाइल रहने की ज़रूरत है। हो सकता है कि अमेरिका, चीन को साधने की अपनी नीति में दक्षिण कोरिया, जापान और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों पर निर्भर रहे। अतः यह भारत के हित में होगा कि भारत-अमेरिका सबंधों को स्वचालित मोड में डालकर कुछ समय के लिये शांत रहा जाए। यदि भारत ने स्वयं को बढ़-चढ़कर अमेरिका का सहयोगी दर्शाने की चेष्टा की तो शायद भारत की वैश्विक नीतियाँ भी उन्हीं अनिश्चितताओं का शिकार बन जाएँ जिसकी अभी अमेरिका की नीतियाँ हैं।
  • भारत को एनएसजी का सदस्य बनाने में भी अब अमेरिका की भूमिका सीमित हो गई है। हालाँकि, भारतीय प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प में वैचारिक समानता तलाश रहे लोगों को भारत-अमेरिका सबंधों का भविष्य उज्ज्वल दिखाई दे रहा है। खैर, जो भी हो डोनाल्ड ट्रम्प के अमेरिका फर्स्ट के फरमान से वैश्विक राजनीतिक माहौल में आमूलचूल बदलाव देखने को मिल रहे हैं, बस ये बदलाव किसी तूफान के आने के संकेत न हों।
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