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ब्रिक्स सम्मलेन-2017: संभावनाएँ और चुनौतियाँ

  • 02 Sep 2017
  • 9 min read

भूमिका

ब्रिक्स दुनिया की पाँच प्रमुख उभरती अर्थव्यवस्थाओं का समूह है, जहाँ विश्वभर की 43% आबादी रहती है। ब्रिक्स की विश्व के सकल घरेलू उत्पाद में  30% है और कुल वैश्विक व्यापार में 17% की हिस्सेदारी है। ब्रिक्स अंग्रेज़ी के पाँच अक्षरों बी आर आई सी और एस से मिलकर बना है, प्रत्येक अक्षर एक देश के नाम को इंगित करता है; ब्राज़ील, रूस, इंडिया, चीन और साउथ अफ्रीका। वर्ष 2009 में जब इस समूह का पहला सम्मेलन हुआ था, तब इसका नाम ब्रिक था, क्योंकि साउथ अफ्रीका को वर्ष 2010 के बाद इस समूह में जोड़ा गया।

वर्ष 2017 का ब्रिक्स सम्मेलन चीन के शियामेन (Xiamen) में होने जा रहा है और इसे अब तक का सबसे महत्त्वपूर्ण ब्रिक्स सम्मेलन माना जा रहा है। दरअसल, 8 वर्षों की अवधि में ब्रिक्स ने कई बदलाओं को अंगीकार कर लिया है। भारत के लिये  ब्रिक्स में कई संभावनाएँ हैं, लेकिन चुनौतियाँ भी नहीं कम है। इन सभी पहलुओं पर गौर करने से पहले देखते हैं कि ब्रिक्स की प्राथमिकताओं में आये बदलाओं के निहितार्थ क्या हैं।

ब्रिक्स की प्राथमिकताओं में बदलाव क्यों और कैसे?

  • वर्ष 2009 में कोपेनहेगन जलवायु परिवर्तन सम्मलेन के दौरान तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह और उनके चीनी समकक्ष और अन्य देशों के कुछ प्रतिनिधियों ने जलवायु परिवर्तन के संबंध में एक महत्त्वपूर्ण निर्णय लिया।
  • दरअसल, पश्चिमी देशों और अमेरिका द्वारा भारत और चीन के ऊपर दबाव बनाया जा रहा था कि वे एक निश्चित समय-सीमा के अंदर अपना कार्बन उत्त्सर्जन कम करें। भारत और चीन तथा अन्य देशों के प्रतिनिधियों ने मिलकर निर्णय लिया कि वे अमेरिका के आगे नहीं झुकेंगे और अंततः अमेरिका एवं अन्य विकसित देशों को उनकी शर्तें माननी पड़ी।
  • यह इतनी आसानी हो गया इसका कारण यह नहीं है कि अमेरिका और अन्य विकसित देश उदार थे, बल्कि हुआ यूँ कि इस सम्मलेन में आने से पहले ही ब्राज़ील, रूस, भारत और चीन (तब तक साउथ अफ्रीका सदस्य नहीं बना था) प्रथम ब्रिक सम्मलेन पश्चिमी देशों के प्रभुत्व यानी वेस्टर्न हेजेमनी (western hegemony) के विरुद्ध कार्य करने का संकल्प ले चुके थे।
  • इस घटना ने उस समय न केवल ग्लोबल वार्मिंग पर अंतर्राष्ट्रीय वार्ता के स्वरूप को बदल दिया, बल्कि उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं को एक वैश्विक राजनीतिक शक्ति के रूप में स्थापित कर दिया।
  • भारत और चीन के संयुक्त राजनीतिक प्रभाव की हनक पूरी दुनिया में देखने को मिली। ब्रिक्स ने न केवल विश्व बैंक और इंटरनेशनल मोनेटरी फण्ड जैसे अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं पर दबाव बनाया है, बल्कि अपने ‘न्यू डेवलपमेंट बैंक’ के ज़रिये  23 से भी अधिक परियोजनाओं के लिये करीब 6 अरब डॉलर का कर्ज़ भी दिया है।
  • ब्रिक्स देशों के आकार और राजनीतिक व्यवस्था में व्यापक मतभेद के बावज़ूद ब्रिक्स ने इतना कुछ हासिल किया। हालाँकि ब्रिक्स की प्राथमिकताओं में अब बदलाव नज़र आ रहा है। हो सकता है वैश्विक मंच पर विकासशील देशों की आवाज़ मज़बूत करने के बजाय आज ब्रिक्स को अब अपनी आतंरिक चुनौतियों से निपटने में समय और ऊर्जा लगानी पड़े।

चुनौतियाँ क्या हैं ?

  • पिछले कुछ माह से डोकलम विवाद को लेकर भारत और चीन के संबंधों में कटुता अपने चरम पर रही है। सम्मेलन से कुछ दिनों पहले ही दोनों देशों ने अपनी-अपनी सेनाएँ डोकलम से पीछे हटा ली हैं। चीन की मीडिया ने पहले से ही वहाँ भारत विरोधी माहौल बना रखा है, ऐसे में बातचीत कहाँ तक सार्थक होगी? यह एक बड़ा सवाल है।
  • सीमा-विवाद के अलावा भारत की एनएसजी सदस्यता, पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद और भारत द्वारा ओबीओआर का हिस्सा बनने से इनकार, कुछ ऐसे मुद्दे हैं जहाँ भारत को अपने पक्ष में माहौल बनाना कठिन हो सकता है। दरअसल, रूस और साउथ अफ्रीका चीन के बेल्ट और रोड इनिशिएटिव के अहम् सदस्य हैं, जबकि ब्राज़ील में चीन ने भारी निवेश कर रखा है। ऐसे में सदस्य देशों को अपने पक्ष में मोड़ना भारत के लिये आसान नहीं होगा।
  • भारत के लिये एक अन्य प्रमुख चिंता है चीन की "ब्रिक्स-प्लस" योजना। उल्लेखनीय है कि ब्रिक्स-प्लस, ब्रिक्स के विस्तारीकरण का एक सुझाव है और चीन चाहता है कि इस विस्तारित संस्करण में पाकिस्तान, श्रीलंका और मैक्सिको को शामिल किया जाए। भारत ने पाकिस्तान को इस समूह में शामिल किये जाने का विरोध किया है।
  • भारत और अमेरिका के बीच बढ़ती नजदीकियों के मद्देनज़र रूस अब चीन के ज़्यादा करीब है और ब्रिक्स-प्लस की अवधारणा का सूत्रपात करने वाला भी वही है। हाल ही में अमेरिका ने अपनी नई अफगान नीति ज़ारी की है, जिसमें भारत की महत्त्वपूर्ण भूमिका होने की बात की जा रही है। इससे ब्रिक्स देशों की अफगानिस्तान जैसे मुद्दे पर अलग-अलग राय बन सकती है, जबकि अब तक इन मुद्दों पर ब्रिक्स सदस्य एक ही विचार रखते आ रहे हैं।

आगे की राह

  • ब्रिक्स सम्मेलन के कुछ दिन पहले ही डोकलम से अपने-अपने सुरक्षा बलों को पीछे भेजकर भारत और चीन दोनों ने ही सार्थक संवाद की दिशा तय कर ली है। सरकार ने यहाँ महत्त्वपूर्ण उपलब्धि हासिल की है कि डोकलम में बिना किसी की हार-जीत निर्णित किये मुद्दे का समाधान कर लिया गया।
  • डोकलम पर जिस तरह से चीन ने हालिया प्रतिक्रिया दी है उससे साबित होता है वह भी भारत के साथ द्विपक्षीय संबंधों को आगे बढ़ाने के पक्ष में है। यदि सार्क-प्लस के माध्यम से ब्रिक्स का दायरा दक्षिण एशिया में और मज़बूत होता है तो भारत को सकारात्मक रुख अपनाना चाहिये।

निष्कर्ष

  • ब्रिक्स ऐसे देशों का समूह है जो विकासशील हैं और जिनके उद्देश्य विकसित देशों से भिन्न हैं। यदि ब्रिक्स मज़बूत होता है तो विकासशील देशों की आवाज़ मज़बूत होगी।
  • भारत का न केवल चीन के साथ रणनीतिक मतभेद है, बल्कि रूस के साथ भी रिश्ते अब पहले जैसे नहीं रहे। हाल ही में रूस ने अपने एमआई-35 एम हेलीकॉप्टर पाकिस्तान को बेचे हैं, जिस पर भारत ने आपत्ति ज़ाहिर की थी।
  • साउथ अफ्रीका और ब्राज़ील के साथ भारत के बेहतर संबंध हैं परन्तु रूस का चीन-पाकिस्तान खेमे में जाना चिंतित करने वाला है। इधर डोनाल्ड ट्रंप का जैसा व्यक्तित्व है, भारत को सावधानीपूर्वक आगे बढ़ना होगा। विदित हो कि अपनी नई अफगान नीति के संबंध में वक्तव्य देते हुए ट्रंप ने कहा था कि भारत को अफगानिस्तान की मदद इसलिये करने चाहिये क्योंकि उसने अमेरिका से लाखों डॉलर कमाए हैं।
  • कुल मिलाकर कहें तो आज वैश्विक परिस्थितियाँ पहले से ज़्यादा परिवर्तनशील हैं और इन्हीं बातों का ध्यान रखते हुए भारत ने गुटनिरपेक्ष को अधिक महत्त्व देना बंद कर दिया है। लेकिन पुराना मित्र हमेशा काम आता है, यदि आज भारत और रूस के संबंधों में पहले वाली गर्माहट बनी रहती तो ब्रिक्स में भारत को उतनी चुनौतियों का सामना नहीं करना पड़ता। फिर भी आशा की जानी चाहिये कि इस बार का ब्रिक्स सम्मेलन भारत के लिये बेहतर रहेगा।
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