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भोजन की बर्बादी: एक गंभीर समस्या

  • 18 Jul 2017
  • 7 min read

सन्दर्भ
कुछ दिनों पहले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने “मन की बात” में भोजन की बर्बादी का मुद्दा उठाया था। यह एक संवेदनशील मुद्दा है, हालाँकि कड़वा सच यह भी है कि हमारे यहाँ कोई ऐसा कानून नहीं है जो भोजन की बर्बादी रोकने के काम आ सके। एक तरफ विवाह-शादियों, पर्व-त्यौहारों एवं पारिवारिक आयोजनों में भोजन की बर्बादी बढ़ती जा रही है, तो दूसरी ओर भूखें लोगों के द्वारा भोजन की लूटपाट देखने को मिल रही है। दरअसल, भोजन की बर्बादी संवेदनहीनता की पराकाष्ठा है। ।

चिंताजनक आँकड़े

  • भोजन की बर्बादी से न केवल सरकार  बल्कि सामाजिक संगठन भी चिंतित हैं। दुनियाभर में हर वर्ष जितना भोजन तैयार होता है उसका एक-तिहाई यानी लगभग 1 अरब 30 करोड़ टन बर्बाद चला जाता है। बर्बाद जाने वाला भोजन इतना होता है कि उससे दो अरब लोगों के खाने की ज़रूरत पूरी हो सकती है।
  • एक अन्य रिपोर्ट में बताया गया है भारत में बढ़ती सम्पन्नता के साथ ही लोग खाने के प्रति असंवेदनशील हो रहे हैं। खर्च करने की क्षमता के साथ ही खाना फेंकने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। आज भी देश में विवाह स्थलों के पास रखे कूड़ाघरों में 40 प्रतिशत से अधिक खाना फेंका हुआ मिलता है।
  • ‘वर्ल्ड फूड आर्गेनाईज़ेशन’ की एक रिपोर्ट के अनुसार विश्व का हर सातवां व्यक्ति भूखा सोता है। अगर इस बर्बादी को रोका जा सके तो कई लोगों का पेट भरा जा सकता है।
  • विदित हो कि विश्व भूख सूचकांक 2016 में भारत का 97वाँ स्थान है। देश में हर साल 25.1 करोड़ टन खाद्यान्न का उत्पादन होता है लेकिन हर चौथा भारतीय भूखा सोता है।
  • इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में हर साल 23 करोड़ टन दाल, 12 करोड़ टन फल और 21 करोड़ टन सब्जियाँ वितरण प्रणाली में खामियों के कारण खराब हो जाती हैं।

अन्य देशों में बेहतर स्थिति

  • भोजन और किराना उत्पादों के दान को प्रोत्साहित करने के लिये दुनिया के कई देशों ने कानून बनाया है। फ्रांस विश्व का पहला ऐसा देश बना जिसने अपने यहाँ सुपर मार्केट द्वारा न बिकने वाले फलों, सब्ज़ियों एवं अन्य खाद्य पदार्थों को नष्ट करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया है। और तो और हमारा पड़ोसी देश पाकिस्तान भी इस मोर्चे पर हमसे ज़्यादा प्रगतिशील है।
  • विदित हो कि जनवरी, 2015 में एक जनहित याचिका पर फैसला सुनाते हुए पाकिस्तान की शीर्ष अदालत ने शादी-विवाह में होने वाली फिज़ूलखर्ची रोकने के आदेश दिये थे। इसे फैसले को आधार बनाते हुए पहले पंजाब और फिर सिंध सूबे की असेंबलियों ने बाकायदा विधेयक पारित किये।
  • पाकिस्तान में कानून है कि शादी या अन्य समारोहों में एक से ज़्यादा मुख्य व्यंजन नहीं परोसा जा सकता। इस कानून के उल्लघंन पर एक महीने की सज़ा और 50 हज़ार से दो लाख रुपए तक के जुर्माने का प्रावधान है।
  • शुरुआत में वहाँ के ज़मींदार वर्ग ने इसका विरोध किया, कुछ लोग अदालत भी गए, मगर सुप्रीम कोर्ट ने कोई ढील देने से इनकार कर दिया। दूसरी तरफ, आम लोगों ने इस कानून का खुलकर स्वागत किया है।

क्या हो आगे का रास्ता ?

  • शादियों में फिज़ूलखर्ची व धन की बर्बादी के खिलाफ कानून बनाने का विचार यूपीए शासन में राष्ट्रीय सलाहकार समिति ने दिया था। तत्कालीन खाद्य मंत्री के वी थॉमस ने 2011 में भोजन की बर्बादी को रोकने के इरादे से कानून बनाने की पहल की घोषणा की थी।
  • शादियों में मेहमानों की संख्या नियंत्रित करने से लेकर कई अन्य बातें भी उस विधेयक में शामिल थीं। मगर मेहमानों की संख्या को कानूनी रूप से नियंत्रित करने के विरोध की आशंका को देखते हुए सरकार, आगे बढ़ने से डर गई।
  • पिछले वर्ष कांग्रेस सांसद रंजीत रंजन ने शादियों में खाने की बर्बादी को रोकने के साथ-साथ विवाह के पंजीकरण को कानूनन अनिवार्य बनाने वाला एक निजी विधेयक लोक सभा में पेश किया था। वह अभी संसदीय प्रक्रिया के हवाले है। हालाँकि निजी विधेयकों के हश्र को देखते हुए इसके पारित होने की उम्मीद कम ही है। इसलिये सरकार को ही इस दिशा में ठोस पहल करनी होगी।
  • शादियों में अधिक-से-अधिक व्यंजन परोसने के नाम पर होने वाली फिज़ूलखर्ची एक परम्परा सी बन गई है जो कि एक अवांछनीय कृत्य है। लोग, शादियों पर पानी की तरह पैसा बहा रहे हैं, नतीजन गरीब परिवारों पर अधिक खर्च करने का सामाजिक दबाव बढ़ता है। इस परम्परा पर रोक लगाई जानी चाहिये।

निष्कर्ष

  • भारतीय संस्कृति में अन्न को भगवान का दर्जा दिया गया है लेकिन आधुनिकता की दौड़ में हम इतने अंधे हो गए हैं कि थाली में भोजन छोड़ने को फैशन समझ बैठे हैं।
  • सरकार को भी शादियों में मेहमानों की संख्या के साथ ही परोसे जाने वाले व्यंजनों की संख्या सीमित करने पर विचार करना चाहिये।
  • दिखावा, प्रदर्शन और फिज़ूलखर्च पर प्रतिबंध की दृष्टि से विवाह समारोह अधिनियम, 2006 तो मौजूद है, लेकिन इसका सख्ती से पालन नहीं किया जाता। यदि इस संबंध में कोई नया और प्रभावकारी कानून बनाया जाता है तो निश्चित ही यह एक बहुत बड़ा सुधार होगा।
  • धर्मगुरुओं व स्वयंसेवी संगठनों को भी इस दिशा में पहल करनी चाहिये। बच्चों में शुरू से यह आदत डाली जानी चाहिये कि वे थाली में उतना ही खाना लें, जितनी भूख हो। इस बदलाव की प्रक्रिया में धर्म, दर्शन, विचार एवं परम्परा का भी योगदान एक नये परिवेश को निर्मित कर सकता है।
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