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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

भारत में उच्च शिक्षा का गिरता स्तर

  • 20 Jan 2017
  • 9 min read

सन्दर्भ

यह कहना किंचित ही अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं होगा कि भारत में उच्च शिक्षा रुग्ण अवस्था में है और पुरातन तथा जीर्ण-शीर्ण हो चुके आधारों पर टिकी हुई है| वस्तुतः शिक्षा के बिना मानव जीवन व्यर्थ समझा जाता है और शिक्षा को बढ़ावा देने के लिये उल्लेखनीय प्रयास भी किये गए हैं| शिक्षा के अधिकार अधिनियम के तहत प्रारंभिक शिक्षा को अनिवार्य घोषित किया गया है, किन्तु उच्च शिक्षा की राह में अब भी अनेक बाधाएँ हैं और गुणवत्तापरक शिक्षा अभी भी दिवास्वप्न बनी हुई है|

भारत में उच्च शिक्षा की चिंताएँ

  • किसी भी देश की शिक्षा व्यवस्था कितनी उन्नत है, इस तथ्य का मूल्यांकन तीन मापदंडों के आधार पर किया जाता है| पहला मापदंड है, उच्च शिक्षा तक कितने युवाओं की पहुँच है; दूसरा मापदंड है, क्या उच्च शिक्षा न्याय-संगत है? और तीसरा है, उच्च शिक्षा की गुणवत्ता कैसी है? यह बहुत दुःख की बात है कि इन तीनों ही मापदंडों पर हम विफ़ल रहे हैं|
  • वित्तीय समस्याएँ, दोयम दर्ज़े की स्कूली शिक्षा और विभिन्न सामाजिक मजबूरियों कारण गरीब परिवारों के बच्चे माध्यमिक शिक्षा पूरी करने से पहले ही स्कूल जाना बंद कर देते हैं, इसलिये वे उच्च शिक्षा तक भी नहीं पहुँच पाते हैं|
  • भारत में उच्च शिक्षा संस्थानों की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है, लेकिन सिर्फ संस्थानों की संख्या ही बढ़ी है न कि उनकी गुणवत्ता|
  • उच्च शिक्षा के अनेक संस्थानों में अध्यापकों की संख्या आवश्यक संख्या की आधी भी नहीं है, इसी प्रकार पुस्तकों एवं पुस्तकालयों का भी आभाव है|
  • उल्लेखनीय है कि महँगी होती उच्च शिक्षा और बढ़ते शिक्षा ऋण ने भी भारत में उच्च शिक्षा को पंगु बनाने में अहम भूमिका निभाई है| राजनेताओं और व्यापारियों द्वारा आए दिन नए शिक्षण संस्थान खोले जा रहे हैं|
  • कुछ दिनों पहले ‘योजना आयोग’ (अब इसकी जगह नीति आयोग ने ले ली है) ने कहा था कि भारत में केवल 17.5 प्रतिशत स्नातक युवा ही रोज़गार के लायक हैं| हमारे उच्च शिक्षा संस्थानों में चलने वाले अनुसन्धान कार्यक्रमों की गुणवत्ता वैश्विक स्तर के आस-पास की भी नहीं है|
  • विश्व के सर्वश्रेष्ठ 200 संस्थानों की सूची में भारत का एक भी संस्थान शामिल नहीं है| हालाँकि, सर्वश्रेष्ट संस्थानों की सूची तैयार करने की प्रक्रिया भी पूरी तरह से त्रुटिमुक्त नहीं है, फिर भी अच्छे-बुरे हर एक भारतीय संस्थान द्वारा यह कहकर अपनी पीठ ठोंकना कि रैंकिंग प्रक्रिया गलत है, ‘मिले नहीं तो अंगूर खट्टे हैं’ वाली कहावत को चरितार्थ करना है| 

उच्च शिक्षा के  जीर्णोद्धार हेतु एक क्रांतिकारी कदम

  • समय-समय पर कई विशेषज्ञों ने भारत में उच्च शिक्षा को पटरी पर लाने के लिये बहुत से सुझाव दिये हैं| हालाँकि, अचानक से सम्पूर्ण शिक्षा व्यवस्था में बदलाव की तरफ अग्रसर होना शायद बहुत अधिक व्यावहारिक कदम नहीं होगा| अतः हमें एक-एक करके उन कारणों पर गौर करना होगा जिनकी वजह से  भारत की शिक्षा व्यवस्था के स्तर में गिरावट देखी जा रही है| वस्तुतः शिक्षा के स्तर में इस गिरावट एक बड़ा कारण है, बीच में पढ़ाई छोड़ने वाले युवाओं का फिर से शिक्षा व्यवस्था का हिस्सा न बन पाना| इस समस्या के समाधान के लिये हम यहाँ कुछ व्यावहारिक एवं प्रभावकारी उपायों पर विचार करेंगे:
  • सर्वप्रथम, पढ़ाई बीच में छोड़ने वाले बच्चों के लिये दो प्रकार के पाठ्यक्रम बनाने होंगे और इन बच्चों को दोनों में से किसी भी पाठ्यक्रम को चुनने की स्वतंत्रता होनी चाहिये| पहले पाठ्यक्रम के अंतर्गत स्थानीय व्यावसायिक संस्थानों द्वारा दो वर्षीय कौशल प्रशिक्षण कार्यक्रम शामिल करना होगा| इस पाठ्यक्रम की लागत का वहन राज्य सरकार और स्थानीय व्यावसायिक संस्थान मिलकर करेंगे| दूसरे पाठ्यक्रम के तहत विद्यार्थियों को विज्ञान और मानविकी विषयों में शिक्षा देने के लिये एक तीन वर्षीय पाठ्यक्रम में शामिल कराना होगा, इस पाठ्यक्रम की लागत का वहन संबंधित राज्य सरकार करेगी|
  • इन दोनों पाठ्यक्रमों में से शीर्ष 10 प्रतिशत विद्यार्थियों को अनिवार्य परीक्षा उतीर्ण करने के बाद देश के उच्च शिक्षण संस्थानों में प्रवेश की इजाज़त मिलनी चाहिये, और इन पाठ्यक्रमों को सफलतापूर्वक पूरा करने वाले शीर्ष 1 प्रतिशत विद्यार्थियों को अनिवार्य परीक्षा उतीर्ण करने के बाद देश के श्रेष्ठ अनुसंधान संस्थानों में प्रवेश मिलना चाहिये|इस कदम से पढ़ाई पूरी न करने वाले लोगों को न केवल शिक्षा दी जा सकती है, बल्कि उनके लिये रोज़गार भी सुनिश्चित कराया जा सकता है|


निष्कर्ष

  • इक्कीसवीं सदी के शुरुआती दौर में भारत की शिक्षित युवा पीढ़ी ने सूचना और संचार तकनीक के क्षेत्र में उसे अत्यंत सम्मानजनक स्थान दिलाया है| नई कार्य संस्कृति के अंतर्गत भारत की वैज्ञानिक तथा तकनीकी क्षेत्र की क्षमताओं को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भरपूर सराहना मिल रही है| लेकिन उच्च शिक्षा के संबंध में चिंताजनक आँकड़ें (जिनकी हमने ऊपर चर्चा की है) हमारी प्रगति पर पानी फेर दे रहे हैं|
  • सरकार को न सिर्फ उच्च शिक्षा संस्थानों की संख्या बढ़ानी है, बल्कि उसकी गुणवत्ता को भी श्रेष्ठ स्तर पर लाना होगा| गौरतलब है कि देश में सर्वोच्च गुणवत्ता वाले शैक्षणिक संस्थानों तथा केन्द्रीय विश्र्वविद्यालयों में भी अध्यापकों की भारी कमी है, जबकि इस मामले में राज्यों के विश्र्वविद्यालयों की हालत तो और भी खराब है| अतः इस बात की सख्त आवश्यकता है कि हमारे शिक्षण संस्थानों को स्वायत्तता दी जाए, साथ ही, इन्हें यू.जी.सी. जैसे नियामकों के अनावश्यक हस्तक्षेप से भी बचाना चाहिये|
  • बहुत अधिक स्वायत्तता देने के पीछे एक शंका यह ज़ाहिर की जाती है कि कहीं विश्वविद्यालय अपने आप में ही निरंकुस न बन जाएँ! इसके लिये हमें अमेरिकी मॉडल से सीख लेनी होगी जहाँ विश्वविद्यालयों में प्रतिस्पर्द्धा का स्तर इतना ऊँचा है कि कोई भी विश्वविद्यालय श्रेष्ठतम फैकल्टी के लिये अध्यापकों और छात्रों को सर्वोत्तम सुविधाएँ प्रदान करने से पीछे नहीं हटता| अमेरिका में यदि कोई फैकल्टी, विश्वविद्यालय प्रशासन से संतुष्ट नहीं है तो वह अपने पूरे संसाधनों व अनुसन्धान, और यहाँ तक कि अपने छात्रों के साथ एक विश्वविद्यालय से दूसरे विश्वविद्यालय में चला जाता है| अतः विश्वविद्यालय कभी भी निरंकुश नहीं हो पाते|
  • 21वीं सदी की उच्च शिक्षा को तब तक स्तरीय नहीं बनाया जा सकता, जब तक भारत की स्कूली शिक्षा 19वीं सदी में विचरण करती रहेगी| स्कूली शिक्षा की मूलभूत सुविधाओं में पिछले एक दशक में ज़बरदस्त वृद्धि हुई है, लेकिन असली समस्या गुणवत्ता की है| ये एक कड़वा सच है कि भारत के आधे से अधिक प्राथमिक विद्यालयों में कोई भी शैक्षणिक गतिविधि नहीं होती| अतः अब समय आ गया है कि चाक और ब्लैक बोर्ड के ज़माने को भुलाकर शिक्षा के लिये तकनीक का इस्तेमाल किया जाए|
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