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सरोगेसी बिल, 2016 पर संसदीय समिति की रिपोर्ट का मूल्यांकन

  • 18 Aug 2017
  • 9 min read

हाल ही में वर्ष 2016 के सरोगेसी बिल (बच्चे को जन्म देने के लिये किराए की कोख लेने पर बना कानून) के दायरे को और बढ़ाते हुए संसद की 31 सदस्यीय स्थायी समिति ने शादीशुदा दंपति की तरह लिव इन जोड़ों और विधवाओं को भी सरोगेसी से जुड़ी सेवा उपलब्ध कराने की सिफारिश की है। एनआरआई और भारतीय मूल के अन्य लोगों को भी इस दायरे में लाने के लिये कहा गया है। हालाँकि कुछ चिंता के बिंदु अवश्य हैं, लेकिन फिर भी इस समिति ने कुछ अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण सिफारिशें की हैं। इन सिफारिशों का मूल्यांकन करने से पहले हमें सरोगेसी बिल 2016 के निहितार्थ को समझना होगा।

सरोगेसी बिल, 2016

दरअसल, वर्ष 2002 से लागू सरोगेसी बिल के बाद सरोगेसी पर रोक लगाने का प्रावधान था, लेकिन ये प्रतिबंध केवल विदेशी सरोगेसी पर लगाया गया था। पहले कुछ अस्पताल ऐसी महिलाओं के संपर्क में रहते थे, जो पैसे लेकर किसी और के बच्चे को जन्म देने के लिये तैयार होती हैं। इस व्यापारिक धंधे को नियंत्रण में लाने के लिये केंद्र सरकार ने सरोगेसी का नया बिल पेश किया था, जिसके अनुसार सरोगेट मदर को पहले से ही शादीशुदा होना और एक बच्चे की माँ होना भी ज़रूरी था।

सरोगेट मदर बच्चे को जन्म देने के बाद उसके संपर्क में रह सकती थी। साथ ही अविवाहित दंपती, एकल माता-पिता, लिव-इन पार्टनर और समलैंगिक लोगों को सरोगेसी सेवाएँ न देने का प्रस्ताव था। 2016 के बिल के अनुसार दंपति के लिये ख़ुद को प्रसव के लिये असक्षम साबित करना और भारतीय होना अनिवार्य था।

सरोगेट माँ को दंपति का करीबी रिश्तेदार होना भी ज़रूरी था। दंपति की शादी को कम से कम 5 साल पूरे हुए हों और पत्नी की उम्र 25 से 50 साल और पति की उम्र 26 से 65 तय की गई थी।

स्वास्थ्य को प्राथमिकता देते हुए सरोगेट मदर की उम्र 25 से 35 साल तय की गई थी।

संसदीय समिति की महत्त्वपूर्ण सिफारिशें

समिति द्वारा दी गई रिपोर्ट में इस बात पर प्रकाश डाला गया कि परोपकारी सरोगेसी के तहत सरोगेट माँ को कुछ नहीं प्राप्त होता, बल्कि एक महिला के शरीर पर उसके अधिकार के न होने का रूढ़िवादी विचार और मज़बूत होता है।

रिपोर्ट में कहा गया कि प्रेग्नेंसी कोई एक मिनट की बात नहीं है, बल्कि ये 9 महीने एक बच्चे को कोख में रखने का गंभीर और संवेदनशील मामला है। इसमें महिला का शरीर, उसका स्वास्थ्य, उसका परिवार और उसका समय सब कुछ शामिल होता है।

समिति ने किसी भी महिला के सरोगेट मदर होने के लिये करीबी रिश्तेदार होने वाली शर्त को शोषण का माध्यम बताया है। समिति ने परोपकारी सरोगेसी के अंतर्गत महिला के बिना कुछ लिये प्रेग्नेंसी और बच्चा देने की उम्मीद करने को नाजायज़ बताया है।

समिति ने सरोगेट माँ को चुनने के लिये एक निश्चित दायरा भी तय किया है। भारतीय समाज में परिवार के बीच शक्ति समीकरण को नज़र में रखते हुए इस बात पर ध्यान दिया गया है कि किसी को भी सरोगेट माँ बनने के लिये मज़बूर नहीं किया जाए।

समिति ने कहा कि बिल में विनियमन की आवश्यकता तो है पर उसमें ज़रूरी बदलाव करने होंगे, जैसे कि सरोगेट मदर के लिये एक निश्चित राशि तय की जाए और महिला को प्रक्रिया के शुरू होते ही उसकी फीस दिये जाने का प्रावधान भी हो।

समिति ने बिल के इस प्रावधान से सहमति जताई की किसी भी महिला को एक से अधिक बार प्रेग्नेंसी न करने दी जाए और ‘कोई भी महिला गरीबी के कारण सरोगेसी न चुने और न ही कोई महिला इसे व्यवसाय के तौर पर चुने।

क्यों महत्त्वपूर्ण हैं ये सिफारिशें ?

साल 2016 के सरोगेसी बिल के ड्राफ़्ट की निंदा करते हुए संसद की समिति ने इसके स्वरूप को पितृसत्तात्मक भारतीय समाज पर संकीर्ण समझदारी होने का नतीजा बताया है।

इस समिति को बिल के प्रावधानों पर ध्यान देते हुए इस क्षेत्र में विशेषज्ञों से बात करने के लिये गठित किया गया था। अपनी 88 पन्नों की रिपोर्ट में समिति ने बिल के दायरे को बढ़ाने और सरोगेसी के क़ानून को अधिक उदार बनाने की सिफारिश की है।

कैसे अधिक प्रभावी हो सकती थीं सिफारिशें ?

दरअसल एक साल तक लगातार संसर्ग करने के बाद भी यदि बच्चा नहीं होता तो चिकित्सकीय तौर पर माना जा सकता है कि दंपती की प्रजनन क्षमता में कमी है। उल्लेखनीय है कि विश्व बैंक भी चिकित्सकीय तौर पर प्रजनन अक्षमता की इसी परिभाषा को मानता है।

मसलन, समस्या यह है कि सरोगेसी को केवल प्रजनन क्षमता से जोड़कर देखा जा रहा है, जबकि भारत जैसे देश में और भी कई कारण हैं जिनकी वज़ह से महिलाओं को प्रजनन संबंधी परेशानियों का सामना करना पड़ता है।

टीबी व कैंसर जैसे रोगों के कारण महिलाओं की प्रजनन क्षमता प्रभावित होती है। कई बार तो गर्भपात के कारण भी महिला ताउम्र गर्भधारण नहीं कर पाती। ऐसे में समिति को चाहिये था कि इन बिन्दुओं को भी रेखांकित करती।

निष्कर्ष

सरोगेसी के माध्यम से संतान प्राप्ति ने न केवल युवा-पीढ़ी की बदलती मानसिकता को साकार रूप दिया है, बल्कि निःसंतान दंपतियों, एकल व्यक्ति, किन्नरों और समलैंगिकों आदि के लिये भी अपने परिवार कायम करने के रास्ते खोल दिये हैं।

सरोगेसी की इस प्रक्रिया में सरोगेट माँ उचित भुगतान की राशि प्राप्त करती है, किंतु जन्म देने वाले बच्चे पर उसका कोई अधिकार नहीं रहता है। इस संपूर्ण प्रक्रिया में ही एक प्रकार की संवेदनहीन व्यावसायिकता का उदय होता है और ऐसी स्थिति में ही राज्य द्वारा समुचित हस्तक्षेप किये जाने को आधार मिलता है। सरकार ने हस्तक्षेप किया और सरोगेसी नियमन बिल, 2016 लेकर आई। इसमें व्याप्त खामियों को संसदीय समिति ने अच्छे ढंग से उजागर किया है और कुछ शानदार सुझाव दिये हैं। 

दरअसल, सरोगेसी बिल जहाँ व्यावसायिक सरोगेसी को प्रतिबंधित करने की बात करता है, वहीं संसदीय समिति की रिपोर्ट इसकी वकालत करती दिखती है। नैतिक तौर पर देखें तो किसी माँ का उसकी कोख में पल रहे बच्चे का सौदा करना स्वयं के पुत्र या पुत्री के बेचे जाने के ही जैसा है और यह दिखाता है कि एक व्यक्ति और समाज के तौर पर हम कितने असंवेदनशील होते जा रहे हैं। लेकिन भारत में सरोगेसी इस स्तर तक बढ़ गई है कि इस पर रोक लगाना अनैतिक, गैर-कानूनी और चोरी-छिपे होने वाली सरोगेसी को और बढ़ावा देगा। ‘सरोगेसी को एक रोज़गार का साधन नहीं बनाया जाना चाहिये’ यह एक वाजिब बात है, लेकिन साथ में हमें व्यावसायिक सरोगेसी पर प्रतिबन्ध की व्यावहारिकता की भी पहचान करनी चाहिये। संसदीय समिति की यह रिपोर्ट इस व्यावहारिकता का संज्ञान लेती नज़र आती है।

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