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डीएनए प्रौद्योगिकी विनियमन विधेयक

  • 15 Feb 2021
  • 9 min read

इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में डीएनए प्रौद्योगिकी विनियमन विधेयक की चुनौतियों व इससे संबंधित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ:

हाल ही में विज्ञान और प्रौद्योगिकी, पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन संबंधी संसदीय स्थायी समिति ने डीएनए प्रौद्योगिकी (उपयोग और अनुप्रयोग) विनियमन विधेयक, 2019 पर अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की है। इस विधेयक का उद्देश्य लोगों की पहचान स्थापित करने के लिये डीएनए की जानकारी के उपयोग को विनियमित करना है। डीएनए प्रोफाइल का प्रयोग आपराधिक जाँच के मामलों में सुरक्षा एजेंसियों का मार्गदर्शन करने के लिये किया जाएगा।

समिति ने आपराधिक न्याय प्रणाली में अत्याधुनिक तकनीकों का उपयोग सुनिश्चित किये जाने की आवश्यकता को रेखांकित किया है परंतु इसके साथ ही समिति ने यह भी स्पष्ट किया है कि इस प्रक्रिया में संवैधानिक अधिकारों और विशेषकर निजता के अधिकार का उल्लंघन नहीं होना चाहिये।

हालाँकि डीएनए प्रौद्योगिकी अपराधों को सुलझाने में कानून प्रवर्तन एजेंसियों की सहायता कर सकती है, परंतु सरकार को डीएनए प्रौद्योगिकी (उपयोग और अनुप्रयोग) विनियमन विधेयक, 2019 से जुड़ी चिंताओं को संबोधित करना चाहिये।

डीएनए प्रौद्योगिकी विनियमन विधेयक से जुड़े मुद्दे:

  • निजता के अधिकार का उल्लंघन: इस विधेयक की आलोचना करते हुए तर्क दिया गया है कि यह मानवधिकारों का उल्लंघन करता है क्योंकि यह विधेयक लोगों की गोपनीयता से भी समझौता कर सकता है।
    • साथ ही इस विधेयक के तहत डेटाबैंक में संग्रहीत डीएनए प्रोफाइल की गोपनीयता को सुरक्षित रखने की योजना पर भी प्रश्न उठाए गए हैं।
    • डीएनए प्रौद्योगिकी विनियमन विधेयक उन विधेयकों की लंबी सूची में शामिल है, जो देश में एक मज़बूत डेटा सुरक्षा कानून की अनुपस्थिति में प्रस्तुत किये जा रहे हैं।
  • जटिल आपराधिक जाँच: आपराधिक जाँच के दौरान प्रभावी रूप से डीएनए प्रौद्योगिकी के प्रयोग के लिये अपराध से संबंधित घटनास्थल की उचित जाँच, प्रशिक्षित और विश्वसनीय पुलिसिंग, सटीक विश्लेषण तथा अदालत में साक्ष्यों का उचित उपयोग आदि की आवश्यकता होगी।
    • इन आवश्यकताओं को पूरा किये बगैर एक डीएनए डेटाबेस आपराधिक न्याय प्रणाली में समस्याओं को हल करने के बजाय और अधिक बढ़ा देगा।
    • उदाहरण के लिये गलत मेल अथवा व्याख्या या साक्ष्य से छेड़-छाड़ का कारण न्याय के लिये संकट उत्पन्न हो सकता है।
  • जैविक निगरानी: यह संभव है कि किसी अपराध स्थल से प्राप्त सभी डीएनए साक्ष्य अपराध से जुड़े लोगों के न हों।
    • वर्तमान में देश में सक्रिय प्रयोगशालाएँ डीएनए प्रोफाइलिंग की संपूर्ण आवश्यकता का मात्र 2-3% ही पूरा कर सकती हैं।
    • गौरतलब है कि राजीव सिंह बनाम बिहार राज्य (2011) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अनुचित तरीके से विश्लेषित डीएनए साक्ष्य को अस्वीकार कर दिया था।
  • वंचित वर्ग पर प्रभाव: भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली में लंबे समय से व्याप्त प्रमुख त्रुटियों में से एक यह है कि इसमें पीड़ित और अभियुक्त (विशेष रूप से समाज के हाशिये पर रह रहे वर्गों के लिये) दोनों को सहायता प्रदान करने हेतु कानूनी सहायता प्रणाली (Legal Aid System) का अभाव रहा है।
    • कई अध्ययनों से पता चलता है कि आपराधिक मामलों के आरोपी अधिकांश लोग अपने अधिकारों के बारे में नहीं जानते हैं।
    • यह चिंता तब और भी बढ़ सकती है जब अपराध को सिद्ध करने के लिये डीएनए प्रोफाइलिंग जैसी एक परिष्कृत तकनीक का उपयोग किया जाएगा।
  • जाति आधारित प्रोफाइल का दुरुपयोग: स्थायी समिति ने इस तथ्य को रेखांकित किया कि डीएनए प्रोफाइल किसी व्यक्ति के बारे में अत्यंत संवेदनशील जानकारी को उजागर कर सकती है और इसलिये इसका उपयोग जाति/समुदाय आधारित प्रोफाइलिंग के लिये किया जा सकता है।

आगे की राह:

  • गोपनीयता संरक्षण को प्राथमिकता देना: नागरिकों की गोपनीयता के संरक्षण का उत्तरदायित्त्व सरकार को दिया गया है। डीएनए के उपयोग के दौरान गोपनीयता संरक्षण का सबसे आसान विकल्प यह होगा कि व्यक्तिगत डेटा संरक्षण विधेयक, 2019 को पहले ही लागू कर दिया जाए।
    • यह लोगों को उनके अधिकारों के संरक्षण के अभाव में भी कुछ राहत प्रदान करेगा।
    • यह विशेष रूप से उच्चतम न्यायालय के निजता के अधिकार से जुड़े फैसले के बाद और भी महत्त्वपूर्ण हो गया है।
  • स्वतंत्र नियामक की स्थापना: विधेयक में प्रस्तावित डीएनए नियामक बोर्ड अत्यधिक शक्तिशाली होने के बाद भी इसमें पर्याप्त पारदर्शिता या जवाबदेही की कमी है।
    • इसलिये प्रयोगशाला गुणवत्ता आश्वासन और अपराध स्थल परीक्षण दोनों की निगरानी सुनिश्चित करने के लिये एक स्वतंत्र फाॅरेंसिक विज्ञान नियामक की नियुक्ति पर विचार किया जाना चाहिये।
  • पारदर्शिता सुनिश्चित करना: विचाराधीन कैदियों, अपराधियों, लापता तथा मृतक व्यक्तियों के डीएनए प्रोफाइलों के अनुक्रमण के लिये एक नई प्रणाली को अपनाने के साथ ही डीएनए प्रोफाइलिंग तकनीक में पारदर्शिता बढ़ाने पर विचार करना और अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है।
  • मानव और अवसंरचना आवश्यकताओं को संबोधित करना: इस तकनीक के प्रभावी और न्यायपूर्ण उपयोग के लिये आपराधिक न्यायिक प्रणाली से जुड़े अधिकारियों जैसे- पुलिस, वकील, मजिस्ट्रेट आदि को प्रशिक्षित तथा जागरूक करने की आवश्यकता होगी।
    • इसके अतिरिक्त प्रयोगशालाओं की संख्या के साथ जुड़े बुनियादी ढाँचे के मुद्दों को संबोधित करने की आवश्यकता है।

निष्कर्ष:

मालक सिंह बनाम पंजाब राज्य (वर्ष 1981) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि संदिग्धों की व्यापक निगरानी/सर्विलांस के बगैर संगठित अपराध से सफलतापूर्वक नहीं लड़ा जा सकता है। परंतु इस प्रकार का सर्विलांस व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन नहीं कर सकता।

इस संदर्भ में एक सक्षम पारिस्थितिकी तंत्र की स्थापना की आवश्यकता है जिससे इस तरह के प्रोफाइलिंग को मानवाधिकारों और संविधान के सिद्धांतों के अनुरूप प्रभावी रूप से लागू किया जा सके।

अभ्यास प्रश्न: ‘संदिग्धों की व्यापक निगरानी/सर्विलांस के बगैर संगठित अपराध से सफलतापूर्वक नहीं लड़ा जा सकता है। परंतु इस प्रकार का सर्विलांस व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन नहीं कर सकता।’ डीएनए प्रौद्योगिकी विनियमन विधेयक, 2019 के संदर्भ में इस कथन की समीक्षा कीजिये।

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