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आंतरिक सुरक्षा की चुनौतियाँ

  • 10 Jul 2017
  • 9 min read

वर्ष 2014 में केन्द्रीय नेतृत्व में जो परिवर्तन आया, वह कई मायनों में बहुत ही महत्त्वपूर्ण था। यह माना जा रहा था कि एक मज़बूत केन्द्रीय नेतृत्व भारत की आन्तरिक सुरक्षा संबंधी चुनौतियों के समाधान के लिये अत्यंत ही आवश्यक है, लेकिन आज तीन सालों के बाद भी आंतरिक सुरक्षा की चुनौतियाँ ज़्यों-की-त्यों बनी हुई हैं। ऐसा इसलिये है, क्योंकि सुरक्षा प्रबन्धन की मूलभूत बातों पर ध्यान नहीं दिया गया है| दरअसल, देश की आंतरिक सुरक्षा सिद्धांत को एक निश्चित आकार देने का प्रयास ही नहीं किया गया है।

आंतरिक सुरक्षा प्रबन्धन की खामियाँ

  • विदित हो कि अमेरिका और ब्रिटेन प्रत्येक वर्ष के लिये परिस्थितियों के अनुसार, अपने आन्तरिक सुरक्षा सिद्धांत को संशोधित करते हैं और उन नीतियों पर एक सार्वजनिक चर्चा आयोजित की जाती है, लेकिन इस मोर्चे पर भारत ने अपने दोनों महत्त्वपूर्ण साझेदारों से कुछ नहीं सीखा है, जबकि हम जानते हैं कि भारत में यह समस्या और भी जटिल है।
  • किसी भी समस्या के समाधान के लिये दीर्घकालिक नीतियाँ बनानी होती हैं और दीर्घकालिक नीतियों के अंदर ही वर्तमान परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए हम अल्पकाल के लिये कुछ नीतियाँ बनाते हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि न तो जम्मू और कश्मीर को लेकर हमारी कोई दीर्घकालिक नीति है और न ही माओवादी विद्रोह से निपटने के लिये कोई रणनीतिक दृष्टि।
  • हम यह दावा करते हैं कि माओवादी गतिविधियों में कमी आई है, लेकिन आये दिन कहीं-न-कहीं से नक्सली वारदातों के कारण जान-माल के नुकसान की खबर आ जाती है। सच कहें तो यह सांप-सीढ़ी का खेल बन गया है।
  • अधिकांस राज्यों में पुलिस अभी भी पुरातन व्यवस्था के अनुपलान को मज़बूर है। विदित हो कि सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2006 में पुलिस सुधारों को लागू किये जाने का निर्देश दिया था, लेकिन इन निर्देशों का तमाम राज्यों ने(कुछ हद तक केरल को छोड़कर) अब तक छद्म अनुपालन ही किया है।
  • न्यायिक निर्देशों के अनुपालन के लिये भारत सरकार ने कभी गंभीरता नहीं दिखाई है, यहाँ तक कि दिल्ली पुलिस विधेयक को भी यह अंतिम रूप देने में विफल रहा है, जबकि सोली सोराबजी ने एक दशक पहले ही इसका मसौदा तैयार कर लिया था।
  • कभी-कभी तो लगता है कि ब्रिटिश साम्राज्यवादियों का दृष्टिकोण हमसे बेहतर था, क्योंकि पूरे देश में उन्होंने एक ही पुलिस अधिनियम लागू रखा, जबकि हम विभिन्न राज्यों में अलग-अलग प्रावधानों और कार्यकारी आदेशों के भँवरजाल में उलझे हुए हैं।

क्या हो आगे का रास्ता ?

  • हमारे संविधान निर्माताओं ने पुलिस को राज्य सूची का विषय मानते हुए सातवीं अनुसूची में रखा था। शायद उन्हें इस बात का भान नहीं था कि आने वाले दशकों में कानून व्यवस्था को बनाए रखना इतना मुश्किल हो जाएगा और आन्तरिक सुरक्षा की चुनौतियाँ इतनी जटिल हो जाएंगीं।
  • संगठित अपराध और आतंकवाद के खतरों के उद्भव के साथ ही, यह स्पष्ट था कि पुरानी व्यवस्था को नया रूप दिया जाना चाहिये, लेकिन हम ऐसा नहीं कर सके। पुलिस व्यवस्था को समवर्ती सूची में शामिल किये जाने को लेकर गंभीर प्रयास होने चाहियें।
  • राष्ट्रीय आतंकवाद निरोधक केंद्र यानी एनसीटीसी भारत सरकार के गृह मंत्रालय की एक महत्त्वाकांक्षी परियोजना है। इसको लागू किये जाने को लेकर विवाद इसलिये था, क्योंकि कुछ राज्यों का मानना था कि यह संघीय ढाँचे के खिलाफ़ है। होना यह चाहिये कि एनसीटीसी के विवादित प्रावधानों में सुधार कर इसका कार्यान्वयन सुनिश्चित किया जाए, हालाँकि ऐसा होता प्रतीत नहीं हो रहा है।

क्या प्रभावी होंगे सरकार के वर्तमान प्रयास ?

  • हाल ही में नक्सल समस्या से निपटने के लिये आठ सूत्रीय ‘‘समाधान’’ नामक एक कार्ययोजना को अमल में लाया जा रहा है। दरअसल, “समाधान”  अंग्रेज़ी के कुछ शब्दों के प्रथम अक्षरों से बना एक परिवर्णी शब्द (Acronym) है।

→ S -smart leadership
→  A -aggressive strategy
→  M -motivation and training
→  A -actionable intelligence
→  D -dashboard based key performance indicators and key result areas
→  H -harnessing technology
→  A -action plan for each threat
→  N -no access to financing

  • इस कार्ययोजना के इन आठ बिन्दुओं का अर्थ है:  कुशल नेतृत्व, आक्रामक रणनीति, प्रोत्साहन एवं प्रशिक्षण, कारगर खुफियातंत्र, कार्ययोजना के मानक, कारगर प्रौद्यौगिकी, प्रत्येक रणनीति की कार्ययोजना और नक्सलियों के वित्तपोषण को विफल करने की रणनीति।
  • दरअसल,  इस कार्ययोजना में जिन बातों का उल्लेख किया गया है, सच में उनपर अमल किये जाने की ज़रूरत है लेकिन समस्या यह है कि प्रत्येक राज्य के अपने-अपने प्रावधान हैं और ऐसे में कैसे इन बिन्दुओं का अनुपालन करने हेतु राज्यों के मध्य सामंजस्य बैठाया जाए? वास्तव में नक्सल समस्या इतनी जटिल है कि ‘समाधान’ नामक एक ‘एक्रोनिम’ भर बना देने से इसका समाधान नहीं होने वाला।

निष्कर्ष

  • दरअसल, आज हालात ऐसे हैं कि बाहरी और आंतरिक सुरक्षा में भेद करना कठिन हो गया है। हमारी सुरक्षा को वास्तविक खतरा गुप्त कार्रवाइयों, विद्रोही और आतंकवादी गतिविधियों से है। जम्मू और कश्मीर में लम्बे समय से जारी गतिरोध इसका ताजा उदाहरण है।
  • आतंकवाद और माओवादी विद्रोह से प्रभावी ढंग से निपटने के लिये राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक क्षेत्र में सुधार किये जाने चाहियें। देश के कुछ सर्वाधिक संवेदनशील भागों में आतंकवाद और माओवादी विद्रोह से निपटने के लिये स्थायी तंत्र स्थापित किया जाना चाहिये।
  • प्रभावित क्षेत्रों में आम लोगों के संरक्षण के लिये महत्त्वपूर्ण कदम उठाने के साथ ही शांति योजनाएँ चलाई जाएं। सुरक्षा बलों को संचार के आधुनिकतम साधन उपलब्ध कराए जाएं। ज़रूरत इस बात की भी है कि आम आदमी को इस बारे में शिक्षित किया जाना चाहिये और राष्ट्रीय सुरक्षा को प्रभावित करने वाले मामलों में उन्हें शामिल करना चाहिये।
  • उपरोक्त कुछ बातें हैं, जिनके बारे में बस बातें ही होती हैं। इन नीतियों के कार्यान्वयन को अमलीजामा पहनाए बिना आंतरिक सुरक्षा की चुनौतियों से निपटना मुश्किल होगा।
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