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डिज़ाइनर बेबी की परिकल्पना एवं नियामकीय तंत्र की सख्ती

  • 14 Aug 2017
  • 11 min read

भूमिका
जहाँ एक ओर भारत अपने डिज़ाइन एवं डिज़ाइनरों के संदर्भ में सम्पूर्ण विश्व में प्रसिद्ध है, वहीं दूसरी ओर इसकी तेज़ी से बढ़ती जनसंख्या  चीन को भी पीछे छोड़ने को आमादा है। क्या हो यदि इन  दोनों को एक साथ मिला दिया जाए तो? कहने का अर्थ है कि क्या हो यदि बदलते समय के साथ-साथ बच्चे भी डिज़ाइन किये जाने लगें तो ? यदि ऐसा होता है तो इस संबंध में क्या और किस प्रकार के दिशा-निर्देशों एवं नियमों को सूचीबद्ध किया जाएगा? डिज़ाइनर बेबी की परिकल्पना को वास्तविक रूप प्रदान करने के लिये किस प्रकार के नियामिकीय तंत्र को अपनाया जाना चाहिये? इत्यादि कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिनके विषय में गंभीरता से विचार किये जाने की आवश्यकता है। 

  • जब हम उपरोक्त प्रश्नों के संदर्भ में विचार करते हैं तो हम पाते हैं कि भारत में डिज़ाइनर बेबी की परिकल्पना कोई नई नहीं है। 
  • हाल ही में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्वास्थ्य विंग द्वारा ऐसा ही एक अनोखा तथ्य प्रस्तुत किया गया है।  इनके अनुसार, वेदों में ऐसे बहुत से मंत्र निहित हैं जिनके उच्चारण से एक "लंबी, सुंदर एवं बुद्धिमान" संतति(एक आदर्श बालक  उत्पन्न होने का उल्लेख किया गया है। 
  • ऐसा माना जाता है कि यदि स्त्री की गर्भावस्था के दौरान इन मन्त्रों का विधिवत् उच्चारण किया जाए तो बालक में ये सभी गुण स्वतः ही उपस्थित हो जाते हैं। 

डिज़ाइनर बच्चों से उत्पन्न खतरा

  • यह और बात है कि आधुनिक दुनिया द्वारा प्रस्तुत विकल्प को एक वैकल्पिक महाकाव्य से प्राप्त ज्ञान के आधार पर परिपूर्ण किया जा सकता है। तथापि केवल अनुमान के आधार पर ज्ञान की वास्तविकता का अनुमान लगाना बहुत कठिन कार्य है। 
  • यदि आधुनिक विज्ञान की तर्ज़ पर बात करें तो डिज़ाइनर बच्चे की परिकल्पना उतनी भी आसान नहीं है जितनी प्रतीत होती है। 
  • डिज़ाइनर बच्चे की क्रांतिकारी तकनीक के अंतर्गत जीन एडिटिंग के माध्यम से डी.एन.ए. में परिवर्तन किया जाता है। इस तकनीक को 'क्रिस्पर'(clustered regularly interspaced short palindromic repeats - CRISPR अथवा 'केस 9' कहा जाता है। ध्यातव्य है कि इस तकनीक के संबंध में कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय एवं एम.आई.टी./ब्रॉड इंस्टीट्यूट के मध्य विवाद बना हुआ है।
  • उल्लेखनीय है कि अभी तक क्रिस्पर तकनीक का कईं महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में परीक्षण किया जा चुका है। इसका मानव स्वास्थ्य(जीन आधारित चिकित्सा के साथ-साथ एग्रो-बायोटेक(कीट प्रतिरोधी तकनीकों के संबंध में परीक्षण किया गया है।
  • वास्तविकता यह है कि जीन आधारित चिकित्सा में इसका प्रयोग काफी पहले से किया जा रहा है। इस संबंध में वैज्ञानिकों द्वारा कुछ महत्त्वपूर्ण आनुवंशिक बीमारियों जैसे - हाइपरट्रॉफिक कार्डियोमायोपैथी(हृदय की क्रियात्मक हानि)एवं रेटिनैटाइटिस पीगमेंटोसा (आँख का एक अपक्षयी विकार)के संबंध में सफलतापूर्वक आनुवंशिक उत्परिवर्तन को सम्पादित किया गया है । 
  • अब सवाल यह है कि अगर हम अपनी चिकित्सकीय समस्याओं का जीन अनुक्रमों के माध्यम से निवारण कर सकते हैं तो जीन एडिटिंग का प्रयोग करके हम एक वर्तमान की अपेक्षा और अधिक आकर्षक रूप भी प्राप्त कर सकते है।  जो न केवल अधिक बुद्धिमान होगा बल्कि अधिक मज़बूत एवं सुंदर भी होगा। 
  • दूसरे शब्दों में कहें तो क्या हम अपनी आने वाली पीढ़ी को अपने मन-मुताबिक सुशोभित कर सकते है ? यदि इन सभी प्रश्नों का उत्तर हाँ में है तो इस विषय में गंभीरता से विचार किया जाना चाहिये।

तकनीक की प्रभावकारिता का सुरक्षा संबंधी पक्ष

  • डिज़ाइनर बेबी की परिकल्पना के संबंध में सर्वप्रथम 'इलाज' एवं 'कॉस्मेटिक' के मध्य विद्यमान बारीक लाइन की स्पष्ट समझ होनी चाहिये क्योंकि जीन एडिटिंग के माध्यम से किसी बीमारी का इलाज करने हेतु व्यक्ति के डी.एन.ए. में परिवर्तन करना एक अलग बात है जबकि किसी व्यक्ति के डी.एन.ए. में परिवर्तन कर उसके प्रारूप में पूरी तरह से परिवर्तन कर, उसके डी.एन.ए. के वास्तविक रूप को ही पृथक कर देना एक बिलकुल ही अलग बात है।
  • यह न केवल प्राकृतिक नियमों के विरुद्ध है बल्कि जीवन-रक्षक चिकित्सा के रूप में प्रयोग की जाने वाली जीन एडिटिंग तकनीक का दुरुपयोग भी है।
  • तथापि यदि विज्ञान इस संबंध में कार्य करने की दिशा में अग्रसर है तो इसे इसके कारण उत्पन्न होने वाली चुनौतियों के विषय में भी चिंता करने की ज़रूरत है।
  • वस्तुतः यही वह स्थिति है जब डिज़ाइनर बेबी की सुंदर परिकल्पना में नियामकीय तंत्र की आवश्यकता स्वप्न में विघ्न के समान प्रतीत होती है।
  • डिज़ाइनर बेबी के संबंध में कार्यवाही करने से पूर्व हमें इसके सुरक्षा मानकों एवं प्रभाव के संबंध में भी विचार कर लेना चाहिये क्योंकि जैसा कि औषधि नियामकों का नियम है कि किसी भी दवा/औषधि को बाज़ार में उतारने से पूर्व उसकी सुरक्षा एवं प्रभाव के विषय में प्राथमिक परीक्षण डेटा सबमिट करना होता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि इसका मानव जाति पर प्रयोग करने से कोई नुकसान नहीं होगा। वैसे ही नियम डिज़ाइनर बेबी के संबंध में भी अपनाए जाने चाहियें।

अभिनवता एवं नैतिकता

  • उल्लेखनीय है कि इस संबंध में विज्ञान के अभिनव पक्ष एवं नैतिकता के मध्य सामंजस्य बैठाने की आवश्यकता है।
  • हालाँकि, हम सभी जानते हैं कि ये दोनों जीवन के दो ऐसे पक्ष है जो शायद ही कभी साथ चल सकते हैं। परंतु यहाँ परेशानी इस बात है कि इस संबंध में बहुत से विचारकों द्वारा चिंता व्यक्त की गई है जो नाहक ही इस बात की ओर संकेत करती है कि कहीं हम उन्नति की राह में मानव जाति के अस्तित्व के लिये कोई खतरा तो नहीं उत्पन्न कर रहे हैं।
  • वस्तुतः जहाँ एक ओर दुनिया आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के माध्यम से विकास  की राह को सशक्त करना चाहती है, वहीं दूसरी ओर जीन एडिटिंग के माध्यम से मानव के डी.एन.ए. में विद्यमान कमियों का स्थायी निवारण भी करना चाहती है।
  • ऐसी स्थिति में इस संबंध में एक ऐसी नियमाकीय तंत्र को विकसित करने की आवश्यकता है जो यह तय कर सके कि विज्ञान को मानव जीवन में कितना हस्तक्षेप करना चाहिये अथवा कितना नहीं? 
  • इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए यह कहना बिल्कुल गलत नहीं होगा कि अनुमोदित एवं निषिद्ध(permissive and the prohibited)के मध्य हमेशा एक सीमा - रेखा विद्यमान होनी चाहिये।
  • वस्तुतः ऐसा करने के लिये कुछ आधारभूत सिद्धांतों की स्थापना करने की ज़रूरत है। सर्वप्रथम, इस संबंध में कुछ कठोर नियामक मानक(उदाहरण के तौर पर, सुरक्षा, प्रभाव, इत्यादि संबंधी)तय किये जाने चाहियें ताकि जीन एडिटिंग के माध्यम से चिकित्सा प्राप्त करने के एवज़ में 'कॉस्मेटिक' के विकल्प का अनुपालन न होने पाए।
  • दूसरा एवं सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष यह कि इस प्रकार की नई तकनीकों से संबद्ध सभी प्रकार के डेटा को सुरक्षा एवं प्रभावशीलता के कारकों के कारण पब्लिक डोमिन में रखा जाना चाहिये।
  • यही वह पक्ष है जहाँ अधिकतर लोग नियामक तंत्रों को गलत अर्थों में समझते हैं।  इसका कारण यह है कि यह कोई आई.पी.(intellectual property)से संबद्ध कार्य नहीं है जैसा कि अक्सर समझा जाता है। 
  • ऐसा ही एक तर्क हाल ही में जी.एम. सरसों के संबंध में भारतीय नियामक (Indian regulator)  द्वारा मुख्य सूचना आयुक्त (Chief Information Commissioner - CIC) के समक्ष पेश किया गया।

निष्कर्ष
बदलते दौर में मनुष्य का विज्ञान के अनुरूप ढलना कोई गलत बात नहीं है बशर्ते इसका कोई गलत प्रभाव हमारी आने वाली पीढ़ी पर न हो। अत: यह आवश्यक है कि इस संबंध में और अधिक पारदर्शिता एवं प्रोत्साहन को बढ़ावा प्रदान किया जाए। साथ ही, वैज्ञानिकों एवं डॉक्टरों के उपयोग हेतु इस समस्त जानकारी को पब्लिक डोमिन में पेश किया जाना चाहिये। ऐसा इसलिये ताकि यदि उक्त संबंध में विशेष नियामक न भी लागू किये जाएँ तो भी यह पता किया जा सके कि कहाँ किस स्तर पर गलती हुई है एवं उसमें समय रहते सुधार किया जा सके। वस्तुतः ऐसा करने का एकमात्र उद्देश्य भविष्य को एक दु:स्वप्न से दूर रखना भर है।

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