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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

‘बेसिक आय’ की अवधारणा का औचित्य

  • 27 Jan 2017
  • 9 min read

पृष्ठभूमि

  • क्या भारत में आय असमानता की चौड़ी होती जा रही खाई को पाट दिया गया है? क्या सबके लिये पीने का स्वच्छ पानी, रहने को घर और खाने को भोजन मिल रहा है? क्या अमीर व गरीब सबके बच्चे एक मानक शिक्षा व्यवस्था के हिस्से हैं? यदि इन सभी सवालों का जवाब ‘नहीं’ है तो क्यों न तमाम सामाजिक, आर्थिक मानकों का अध्ययन करते हुए सबके लिये एक ‘बेसिक इनकम’ की व्यवस्था कर दी जाये| 
  • ध्यातव्य है कि पिछले कुछ दिनों से यह सम्भावना व्यक्त की जा रही है कि सरकार एक ऐसी सामाजिक सुरक्षा योजना के बारे में सोच रही है जिसमें सबको एक बेसिक इनकम या आधारभूत आय दी जाएगी या फिर जरूरतमंदों के लिये हर महीने एक निश्चित रकम की व्यवस्था की जाएगी|
  • प्रत्येक व्यक्ति को जीवन यापन के लिये न्यूनतम आय की गारंटी मिलनी चाहिये- यह विचार कोई नया नहीं है। | ‘थॉमस मूर’ नाम के एक अमेरिकी क्रांतिकारी दार्शनिक ने हर किसी के लिये एक समान आय की मांग की थी| वह चाहता था कि 'एक राष्ट्रीय कोष' हो, जिसके माध्यम से हर वयस्क को एक निश्चित राशि का भुगतान किया जाए| ‘बर्ट्रेंड रसेल’ ने 'सोशल क्रेडिट' आंदोलन चलाया जिसमें सबके लिये एक निश्चित आय की बात की गई थी|
  • वर्तमान वैश्विक परिस्थितियाँ बदली हुई हैं, जहाँ भूमंडलीकरण से असंतोष बढ़ता ही जा रहा है| गौरतलब है कि इस असंतोष का मुख्य कारण रोज़गार में हुई कमी को माना जा रहा है| ऐसे में विश्व की कई अर्थव्यवस्थाएँ बेरोज़गारों को एक निश्चित राशि देने पर विचार कर रही हैं| फ़िनलैंड में इस संबंध में एक प्रयोग किया जा रहा है| इस प्रयोग के अंतर्गत 2 हज़ार बेरोज़गारों को 2 वर्षों के लिये एक निश्चित राशि प्रदान की जाएगी| यदि यह प्रयोग सफल रहता है तो इसे व्यापक तौर पर लागू किया जाएगा|

बेसिक आय की अवधारणा भारत के लिए आवश्यक क्यों?

  • कोई योजना कितनी सफल रही है इस बात का आकलन संबंधित योजना के अब तक के प्रदर्शन के आधार पर किया जा सकता है, विदित हो कि मध्य प्रदेश में ऐसी एक योजना को शुरू किया गया था जिसमें एक पायलट प्रोजेक्ट के तहत मध्य प्रदेश के आठ गाँवों में छह हजार से ज़्यादा लोगों को मासिक भुगतान किया गया| इसका नतीजा बहुत दिलचस्प रहा।
  • अधिकांश ग्रामीणों ने उस पैसे का उपयोग घरेलू सुविधा बढ़ाने (शौचालय, दीवाल, छत) में किया, ताकि मलेरिया के खिलाफ सावधानी बरती जा सके| अनुसूचित जाति और जनजाति के परिवारों में यह देखा गया कि बेहतर वित्तीय स्थिति में वे राशन की दुकानों के बजाय बाज़ार जाने लगे, उन्होंने अपने पोषण में सुधार किया और स्कूलों में बच्चों की उपस्थिति और प्रदर्शन दोनों बेहतर हुआ| अतः हम कह सकते हैं कि बेसिक इनकम का यह विचार एक उत्तम पहल है|
  • बेसिक इनकम को पायलट प्रोजेक्ट के जरिये बढ़ाना और धीरे-धीरे सावधानीपूर्वक इसे अमल में लाना भारत में आदर्श प्रतीत हो रहा है क्योंकि इसके माध्यम से गाँवों में लोगों के रहन-सहन के स्तर को सुधारा जा सकता है, उन्हें पेयजल उपलब्ध कराया जा सकता है और बच्चों के पोषण में सुधार भी लाया जा सकता है|एक नियमित बेसिक इनकम के भुगतान द्वारा भूख और बीमारी से विवेकपूर्ण ढंग से निपटने में मदद मिल सकती है|
  • बेसिक इनकम, बाल श्रम को कम करने में भी मददगार साबित हो सकता है| इसके ज़रिये उत्पादक कार्यों में वृद्धि करके गाँवों की तस्वीर बदली जा सकती है और यह सतत विकास की दिशा में एक उल्लेखनीय प्रयास होगा| विदित हो कि बेसिक इनकम की मदद से सामाजिक विषमता को भी कम किया जा सकता है| यदि एक वाक्य में कहें तो बेसिक इनकम का यह विचार आय असमानता और इसके दुष्प्रभावों के श्राप से भारत को मुक्त कर सकता|‘

बेसिक इनकम’ की राह में चुनौतियाँ

  • बहुत से विशेषज्ञों का मानना है कि सबके लिये बेसिक इनकम का बोझ कोई बहुत विकसित अर्थव्यवस्था ही उठा सकती है जहाँ सरकार का खर्च सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 40 फीसदी से भी ज़्यादा हो और टैक्स से होने वाली कमाई का आँकड़ा भी इसके आसपास ही हो| यदि हम भारत की बात करें तो टैक्स और जीडीपी का यह अनुपात 17 फीसदी से भी कम बैठता है यानी हम तो बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं और आधारभूत ढाँचे के अलावा सुरक्षा, आंतरिक सुरक्षा, मुद्रा और बाहरी संबंधों से जुड़ी संप्रभु प्रक्रियाओं का बोझ ही बहुत मुश्किल से उठा पा रहे हैं|
  • बेसिक इनकम की राह में सबसे बड़ी चुनौती यह है कि ‘बेसिक आय’ का स्तर क्या हो, यानि वह कौन सी राशि होगी जो व्यक्ति की अपनी बुनियादी ज़रूरतों को पूरा कर सके? मान लें कि हम गरीबी रेखा का पैमाना लेते हैं, जो कि औसतन चालीस रुपए रोजाना है (ग्रामीण क्षेत्रों में बत्तीस रुपए और शहरी क्षेत्रों में सैंतालीस रुपए), तो प्रत्येक व्यक्ति को लगभग चौदह हजार रुपए सालाना या बारह सौ रुपए प्रतिमाह की गारंटी देनी होगी| 
  • प्रथम दृष्टया यह राशी व्यवहारिक प्रतीत होती है लेकिन यदि हम इस प्रकार देखें कि अपनी कुल जनसंख्या की पच्चीस फीसद को सालाना चौदह हजार रुपए और अन्य पच्चीस फीसद आबादी को सालाना सात हजार रुपए देने की ज़रूरत पड़ेगी और बाकी आबादी को कुछ भी देने की ज़रूरत नहीं होगी तो ऐसे में योजना की लागत आएगी प्रतिवर्ष 693,000 करोड़ रुपए| 
  • विदित हो कि यह राशि वित्तीय वर्ष 2016-17 में सरकार के भुगतान बज़ट के पैंतीस फीसद के बराबर है| ज़ाहिर है, वर्तमान परिस्थितियों में यह आवंटन सरकार के लिये सम्भव नहीं है|

निष्कर्ष

  • भारतीय संदर्भ में बेसिक इनकम की अवधारणा की स्वीकार्यता साबित करने के लिये हमें और आँकड़ों की ज़रूरत है| बेसिक इनकम के माध्यम से लोगों के जीवन में प्रत्यक्ष सुधार तो देखा जा सकता है लेकिन इसमें सामाजिक स्थिति में सुधार का भी अपना एक अलग महत्त्व है जो कि प्रत्यक्ष तौर पर नहीं नज़र आता| यह आवश्यक नहीं कि जो नीतियाँ कनाडा और फ़िनलैंड में प्रभावी व प्रमाणित हो रही हों वे भारत में भी उतनी ही प्रभावी हों| 
  • इसमें कोई दो राय नहीं है कि बेसिक इनकम का विचार भारत को अपनी जनता के स्वास्थ्य, शिक्षा और अन्य नागरिक सुविधाओं में सुधार के साथ उनके जीवन-स्तर को ऊपर उठाने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण प्रयास होगा लेकिन सबके लिये एक बेसिक इनकम तब तक सम्भव नहीं है जब तक कि वर्तमान में सभी योजनाओं के माध्यम से दी जा रही सब्सिडी को खत्म न कर दिया जाए| अतः सभी भारतवासियों के लिये एक बेसिक इनकम की व्यवस्था करने के बजाए सामाजिक-आर्थिक जनगणना की मदद से समाज के सर्वाधिक वंचित तबके के लिये एक निश्चित आय की व्यवस्था करना कहीं ज़्यादा प्रभावी और व्यवहारिक होगा|
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