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जलवायु परिवर्तन एवं भारतीय अर्थव्यवस्था

  • 29 Sep 2017
  • 13 min read

भूमिका


भारत में निजी क्षेत्र द्वारा अभी तक कृषि और इससे संबद्ध क्षेत्रों की व्यावसायिक क्षमता का उपयोग नहीं किया गया है। कृषि क्षेत्र में व्यापक संभावनाएँ होने के बावजूद इस क्षेत्र में निजी भागीदारी सुनिश्चित करने हेतु पर्याप्त नीतियों का अभाव है। यही कारण है कि इस संबंध में अभी तक दुविधा की स्थिति बनी हुई है। उल्लेखनीय है कि भारत में कृषि क्षेत्र की गिरती साख का प्रमुख कारण भूमि विखंडन की स्थिति है। भूमि विखंडन के कारण न तो आशाजनक नतीजे ही प्राप्त हो पाए हैं और न ही कृषिगत उत्पादकता में वृद्धि हो पाई है। स्पष्ट रूप से इस स्थिति के संदर्भ में गंभीरता से विचार करने तथा इस समस्या का समाधान किये जाने की आवश्यकता है। कृषि एवं इससे संबद्ध क्षेत्रों में निजी भागीदारी का अनुपात बढ़ाने तथा सुधार के लिये कृषि उत्पादन के प्रमुख कारकों (भूमि, श्रम, पूंजी तथा प्रौद्योगिकी) के पुनर्संगठन पर विचार किया जाना चाहिये।

  • कृषि क्षेत्र में व्यापक स्तर पर पुनर्वास किये जाने के संबंध में विचार करने का प्रमुख कारण इस क्षेत्र पर बहुत अधिक लोगों की निर्भरता होना है। ध्यातव्य है कि राष्ट्रीय कार्यबल का 49 प्रतिशत और ग्रामीण श्रमिकों का 64 प्रतिशत आजीविका के लिये आज भी कृषि क्षेत्र पर निर्भर है, भले ही फिर समग्र सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी दर में तीव्र कमी ही क्यों न आ रही हो।

क्या किये जाने की आवश्यकता है?
कृषि की इस स्थिति में सुधार करने के लिये ‘कृषि पुनर्रुद्धार का चार-सूत्री एजेंडा’ अपनाए जाने की आवश्यकता है। इसके विषय में हम इस लेख में आगे विस्तार से पढ़ेंगे।

पहला सूत्र - लंबी अवधि के लिये ज़मीन पट्टे पर देने वाले कानून

  • कृषि उत्पादकता के संबंध में पहली चुनौती विखंडित भूमि की है। वर्तमान में, कृषि से संबद्ध समस्त भूमि का लगभग 85 प्रतिशत हिस्सा 2 हेक्टेयर से कम छोटी और सीमांत खेती की श्रेणियों से संबंधित है। 
  • इस प्रकार की विखंडित भूमि के परिणामस्वरूप न तो प्रौद्योगिकी (संकर किस्म की प्रजातियों और कृषिगत प्रौद्योगिकी का उपयोग) का पूर्ण रूप से इस्तेमाल हो पाता है और न ही पूंजी निवेश (सिंचाई और मशीनीकरण में) को बढ़ावा ही मिल पाता है।
  • इस चुनौती पर काबू पाने का एकमात्र तरीका भूमि अधिग्रहण किये बिना लंबी अवधि के लिये भूमि को पट्टे पर देना है, जैसा कि राजस्थान, हरियाणा, मध्य प्रदेश और पंजाब द्वारा किया गया है।
  • इस संबंध में नीति आयोग द्वारा प्रस्तुत एक अधिनियम (Model Land Leasing Act)  में भी इसी बात को समर्थन दिया गया है।
  • दीर्घकालिक समय के लिये भूमि को पट्टे पर दिये जाने से कृषि के अंतर्गत निजी क्षेत्र का प्रवेश कराए जाने में बहुत सुविधा होगी। इससे न केवल फसल विविधीकरण एवं उच्च मूल्य वाली फसलों की शुरूआत होगी, बल्कि मशीनीकरण में वृद्धि करने और नई कृषि तकनीकों एवं प्रौद्योगिकियों की शुरूआत करने के संबंध में भी सहायता प्राप्त होगी।
  • इस साझेदारी से न केवल उत्पादकता पर असर होगा, बल्कि इससे किसानों की आय पर भी काफी प्रभाव पड़ेगा। इसके अतिरिक्त इससे उद्योगों को भी प्रसंस्करण और विपणन कार्यों हेतु वस्तुओं की आपूर्ति सुनिश्चित होने से लाभ प्राप्त होगा।
  • इसके अलावा, कृषि क्षेत्र के अंतर्गत निजी क्षेत्र की भागीदारी होने से फसल प्रबंधन एवं प्रसंस्करण में निरंतर निवेश संभव हो सकेगा, जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में 'छिपी बेरोज़गारी' (Hidden Unemployment) के संदर्भ में आवश्यक कार्यवाही करने के साथ-साथ अधिक-से-अधिक लोगों के लिये रोज़गार के अवसर भी सुनिश्चित किये जा सकेंगे।
  • भूमि समूहन (land aggregation) के संबंध में एक अन्य मुद्दा सीआईआई द्वारा किये गए एक अध्ययन से सामने आया है। ध्यातव्य है कि इस अध्ययन के अंतर्गत भूमि के समूहन के लिये किसानों का एक पूल अथवा समूह बनाए जाने की आवश्यकता पर बल दिया गया है। इस तरह की भूमि (उदाहरण के तौर पर, 100-250 एकड़) को निजी क्षेत्र को पट्टे पर दिया जा सकता है, जिसमें वर्तमान दर पर किसानों को भूमि का किराया दिया जाएगा। वर्तमान में किराये की दर 40,000 रूपए प्रति एकड़ है। इसके अनुसार, दो एकड़ जमीन का अनुमानित वार्षिक किराया 80,000 रूपए होगा।
  • सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि जिन किसानों की भूमि को पट्टे पर दिया गया है, उन्हीं किसानों को उनकी भूमि पर प्रति व्यक्ति प्रतिमाह 8,500 रूपए की न्यूनतम मज़दूरीदर से रोज़गार भी दिया जाएगा। एक अनुमान के अनुसार, प्रति परिवार दो सदस्यों को नियोजित किया जाएगा। इस प्रकार एक वर्ष में किसान की कुल आय 2 लाख रूपए हो जाएगी।

दूसरा सूत्र  - किसानों को बाज़ारों से जोड़ना

  • किसानों की आय में एक बड़ा अंतर लाने का सबसे बेहतर उपाय उन्हें बाज़ारों से जोड़ना है। खेत और अंतिम उपभोक्ता के बीच बिचौलियों की एक लंबी श्रृंखला विद्यमान है, जिसके कारण किसान की आय नकारात्मक रूप से प्रभावित होती है। 
  • यदि इस लंबी श्रृंखला को खत्म करते हुए किसान को सीधे बाज़ार से संबद्ध कर दिया जाए तो इस स्थिति में उल्लेखनीय सुधार किया जा सकता है। 
  • इसके साथ-साथ ए.पी.एम.सी. के दायरे से मत्स्य पालन, फलों, सब्ज़ियों और अन्य नाशवान वस्तुओं को सूची से बाहर किये जाने की आवश्यकता है। इससे किसान खुदरा विक्रेताओं, खाद्य प्रसंस्करण कंपनियों और एग्रीगेटर्स को सीधे अपना सामान बेचने के लिये स्वतंत्र हो जाएगा, जो कि किसान की आय में वृद्धि करने का एक महत्त्वपूर्ण कारक साबित होगा।
  • अक्सर यह देखा जाता है कि छोटे किसानों के लिये स्वयं बाज़ार तक पहुँचना मुश्किल होता है। इस समया को ध्यान में रखते हुए ही एफपीओ की व्यवस्था की गई है। 
  • किसान उत्पादक संगठन (Farmer Producer Organizations - FPOs) यानि एफपीओ के अंतर्गत किसानों का समूहन करके न केवल छोटे किसानों की बाज़ार तक पहुँच सुनिश्चित की जा सकेगी, बल्कि उनकी सौदेबाजी क्षमता को भी सक्षम करने का प्रयास किया जाएगा।
  • इसके लिये भारत सरकार द्वारा ई-नेम नामक एक योजना भी आरंभ की गई है। इस योजना के अंतर्गत किसानों को उनके आस-पास के बाज़ारों एवं मंडियों से जोड़ा जा रहा है, ताकि उन्हें उनकी उपज की उचित लागत दिलाई जा सके। हालाँकि इसके लिये एक बेहतर तंत्र विकसित करने के साथ-साथ प्रमुख कृषि उत्पादन क्षेत्रों में कृषि क्लस्टर्स बनाए जाने की आवश्यकता है।

तीसरा सूत्र -  आपूर्ति श्रृंखला और प्रसंस्करण क्षमता में सुधार करना 

  • पर्याप्त संख्या में कोल्ड स्टोर एवं गोदामों जैसी बुनियादी सुविधाओं तथा प्रसंस्करण व्यवस्था न होने के कारण भारी मात्रा में कृषिगत वस्तुओं का नुकसान होता है जिससे व्यापक स्तर पर किसानों की आय प्रभावित होती है।
  • इस समस्या के संदर्भ में निजी क्षेत्र को अनाज की खरीद करने, भंडारण तथा वितरण करने की अनुमति दी जानी चाहिये। इसके लिये सार्वजनिक वितरण प्रणाली से शुरूआत की जा सकती है। 
  • इससे कृषिगत वस्तुओं के भंडारण एवं रख-रखाव के संदर्भ में सरकार द्वारा खर्च की जाने वाली लागत में 25 फीसदी की कमी आएगी तथा इसके परिणामस्वरूप इन वस्तुओं के उपभोग वाले राज्यों में भंडारण क्षमता में वृद्धि की जा सकेगी। 
  • जल्द खराब होने वाली वस्तुओं के मामले में, प्रसंस्करण क्षमता में वृद्धि करके उन वस्तुओं की मूल्य स्थिरता सुनिश्चित की जा सकती है। इसके अतिरिक्त नई प्रौद्योगिकियों के प्रयोग द्वारा फलों और सब्ज़ियों को ज़्यादा दिनों तक ताज़ा बनाए रखने में भी मदद मिलेगी। पिछले साल ई-कॉमर्स सहित खाद्य खुदरा बिक्री में 100 प्रतिशत एफडीआई की अनुमति प्रदान किये जाने के बाद रिटेल क्षेत्र में निवेश को बढ़ावा मिलेगा, जिससे अंततः किसानों को फायदा पहुँचने की संभावना है।

चौथा सूत्र – कृषि स्टार्ट-अप

  • भारतीय कृषि में आधुनिक उद्यमिता को अधिक से अधिक बढ़ावा प्रदान किये जाने की आवश्यकता है। स्टार्ट-अप इंडिया योजना के तहत कृषिगत सेवाओं को बढ़ावा दिये जाने से जहाँ एक ओर किसानों को आधुनिक तकनीक अपनाने के संदर्भ में प्रोत्साहन प्राप्त होगा, वहीं इससे उनकी आय में वृद्धि भी होगी। 

निष्कर्ष
स्पष्ट है कि किसानों की आय में वृद्धि करने तथा कृषि उत्पादकता में सुधार करने हेतु उक्त चार-सूत्रों का सटीक एवं ईमानदारी पूर्वक अनुपालन किया जाना चाहिये। हालाँकि इस संदर्भ में सरकार का इरादा कृषि क्षेत्र में सुधार हेतु आरंभ की गई इसकी प्रगतिशील पहलों जैसे - ‘'प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना', 'किसानों को प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण' एवं प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना; इत्यादि से स्पष्ट होता है। इसके अतिरिक्त किसानों की आमदनी को दोगुना करने के लिये हमें कृषि को एक व्यवहार्य व्यापार के अवसर के रूप में विकसित किया जाना चाहिये। वस्तुतः ये चार सूत्र कृषि के संबंध में नीतिगत नीतियों के रूप में काम करने के लिये न केवल विकल्प प्रदान करेंगे, बल्कि सरकार को अपने लक्ष्य को वास्तविकता में परिवर्तित करने के लिये मदद भी प्रदान करेंगे। 

प्रश्न : भारत की कृषिगत स्थिति में सुधार करने के लिये सरकार द्वारा उठाए गए कदमों की समीक्षा करते हुए कृषि उत्पादकता में सुधार हेतु प्रस्तुत चार-सूत्री विकल्प पर टिप्पणी कीजिये। 

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