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डेली न्यूज़

अंतर्राष्ट्रीय संबंध

‘काबुल’ पर तालिबान का नियंत्रण

  • 17 Aug 2021
  • 11 min read

प्रिलिम्स के लिये

उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन, तालिबान, अफगानिस्तान की भौगोलिक अवस्थिति

मेन्स के लिये 

अफगानिस्तान संघर्ष की पृष्ठभूमि और भारत के लिये इसके निहितार्थ

चर्चा में क्यों?

हाल ही में तालिबान ने अफगानिस्तान की राजधानी काबुल पर कब्ज़ा कर लिया, जिससे अमेरिका और ‘नाटो’ (उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन) द्वारा प्रशिक्षित अफगान बलों पर प्रश्न उठ रहे हैं।

  • तालिबान ने घोषणा की है कि किसी के साथ भी हिंसा नहीं की जाएगी और वह शांतिपूर्ण ट्रांज़िशन प्रक्रिया का सम्मान करेगा, साथ ही भविष्य में ऐसी इस्लामी व्यवस्था के लिये काम किया जाएगा, जो सभी को स्वीकार्य हो।

Kabul

तालिबान

  • तालिबान (पश्तो भाषा में ‘छात्र’) 1990 के दशक की शुरुआत में अफगानिस्तान से सोवियत सैनिकों की वापसी के बाद उत्तरी पाकिस्तान में उभरा एक आतंकवादी संगठन है।
  • वर्तमान में यह अफगानिस्तान में सक्रिय एक इस्लामी कट्टरपंथी राजनीतिक और सैन्य संगठन है। यह काफी समय से अफगान राजनीति में एक महत्त्वपूर्ण स्थिति में था।
  • तालिबान बीते लगभग 20 वर्षों से काबुल में अमेरिकी समर्थित सरकार के खिलाफ लड़ रहा है। वह अफगानिस्तान में इस्लाम के सख्त रूप को फिर से लागू करना चाहता है।

प्रमुख बिंदु

पृष्ठभूमि

  • आतंकवादी हमले
    • 11 सितंबर, 2001 को अमेरिका में हुए आतंकवादी हमलों में लगभग 3,000 लोग मारे गए थे।
    • इस हमले के लगभग एक महीने बाद अमेरिका ने अफगानिस्तान (ऑपरेशन एंड्योरिंग फ्रीडम) के खिलाफ हवाई हमले शुरू कर दिये।
  • अफगानिस्तान में ट्रांज़िशनल सरकार
    • हमलों के बाद नाटो गठबंधन सैनिकों ने अफगानिस्तान के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी। कुछ ही समय में अमेरिका ने तालिबान शासन को उखाड़ फेंका और अफगानिस्तान में एक ट्रांज़िशनल सरकार की स्थापना की।
    • अमेरिका बहुत पहले इस निष्कर्ष पर पहुँच गया था कि यह युद्ध अजेय है और शांति वार्ता ही इसे खत्म करने का एकमात्र उपाय है।
  • शांति वार्ता
    • ‘मुरी' वार्ता
      • वर्ष 2015 में अमेरिका ने तालिबान और अफगान सरकार के बीच पहली बैठक में एक प्रतिनिधि भेजा था, जिसकी मेज़बानी पाकिस्तान द्वारा वर्ष 2015 में ‘मुरी’ में की गई थी।
        • हालाँकि 'मुरी' वार्ता से कुछ प्रगति हासिल नहीं की जा सकी थी।
    • दोहा वार्ता
      • वर्ष 2020 में दोहा वार्ता की शुरुआत से पूर्व तालिबान ने स्पष्ट किया कि वे   केवल अमेरिका के साथ प्रत्यक्ष वार्ता करेंगे, न कि काबुल सरकार के साथ।
      • इसके पश्चात् हुए एक समझौते में अमेरिकी प्रशासन ने वादा किया कि वह 1 मई, 2021 तक अफगानिस्तान से सभी अमेरिकी सैनिकों को वापस बुला लेगा।
        • कुछ समय बाद इस समयसीमा को बढ़ाकर 11 सितंबर, 2021 कर दिया गया है।
        • इस समझौते के कारण तालिबान को एक जीत का संकेत मिला और साथ ही अफगान सैनिकों का मनोबल भी काफी प्रभावित हुआ।
      • समझौते के तहत तालिबान ने हिंसा को कम करने, अंतर-अफगान शांति वार्ता में शामिल होने और विदेशी आतंकवादी समूहों के साथ सभी संबंधों को समाप्त करने का वादा किया।
  • अमेरिका की वापसी
    • अमेरिका ने दावा किया कि उसने जुलाई 2021 तक अपने 90% सैनिकों को वापस बुला लिया था और तालिबान इस समय तक अफगानिस्तान के 85% से अधिक क्षेत्र को अपने नियंत्रण में ले चुका था।

वर्तमान परिदृश्य:

  • तालिबान ने काबुल पर कब्ज़ा कर लिया है और पूर्व राष्ट्रपति सहित कई मंत्री देश छोड़कर भाग गए हैं।
    • 20 वर्ष पहले 9/11 के हमलों के मद्देनज़र उनके निष्कासन के बाद यह पहली बार है कि तालिबान लड़ाके शहर में प्रवेश कर चुके हैं, तालिबान ने पहली बार वर्ष 1996 में राजधानी पर कब्ज़ा कर लिया था।
  • कब्ज़ा किये जाने वाले शहरों में पूर्व में स्थित जलालाबाद है और कई शहर निशाने पर हैं।

आत्मसमर्पण का कारण:

  • अमेरिका की 'अशर्त निकासी':
    • अमेरिका ने बिना किसी बातचीत के राजनीतिक समाधान की प्रतीक्षा किये बिना अपने सैनिकों को बिना शर्त वापस बुलाने का निर्णय लिया।
  • अफगान का मनोवैज्ञानिक इनकार:
    • अफगानिस्तान का मनोवैज्ञानिक तौर पर यह इनकार करना कि अमेरिका वास्तव में उन्हें छोड़ देगा, सैन्य रणनीति की कमी, खराब आपूर्ति और रसद, अनिश्चित और कम मानवयुक्त पद, अवैतनिक पद और विश्वासघात, परित्याग और मनोबल में कमी, सभी ने समर्पण में भूमिका निभाई। 
    • अफगान की अमेरिका पर हवाई सहायता, हथियार प्रणाली, खुफिया आदि के लिये  तकनीकी निर्भरता थी।
  • तैयारी का अभाव:
    • अफगान सेना तैयार नहीं थी और तालिबान के आक्रमण से चकित रह गई।
  • अफगान बलों के प्रशिक्षण की कमी:
    • अफगान राष्ट्रीय सेना वास्तव में कभी भी प्रशिक्षित नहीं थी और ऊबड़-खाबड़ इलाकों के लिये पर्याप्त गतिशीलता, तोपखाने, कवच, इंजीनियरिंग, रसद, खुफिया, हवाई समर्थन आदि के साथ क्षेत्र की रक्षा करने में सक्षम राष्ट्रीय सेना की सामान्य विशेषताओं से सुसज्जित नहीं थी।

वर्तमान स्थिति में अमेरिका की भूमिका:

  • आतंकवाद के खिलाफ युद्ध में निवेश:
    • अमेरिका का अधिकांश समय शहरी आतंकवादी हमलों के लक्ष्यों को पुनर्प्राप्त करने के लिये विशेष बल इकाइयों को तैयार करने में चला गया, जिस पर उन्होंने खुद के लिये  सराहनीय कार्य किया लेकिन आक्रामक अभियान नहीं।
    • संक्षेप में उन्होंने आतंकवाद के खिलाफ युद्ध हेतु पर्याप्त निवेश किया, लेकिन अफगानिस्तान की रक्षा के लिये नहीं, हालाँकि वह तालिबान के पोषण में पाकिस्तानी भूमिका में दोनों के बीच संबंध से पूरी तरह अवगत था।
  • कोई सामरिक महत्त्व नहीं:
    • सोवियत हस्तक्षेप की समाप्ति और सोवियत संघ के पतन के बाद अमेरिका ने वास्तव में कभी भी अफगानिस्तान के सामरिक महत्त्व को नहीं माना।
  • आर्थिक क्षेत्र को एकीकृत करने का कोई प्रयास नहीं:
    • अफगानिस्तान में अपने सभी 1 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर के निवेश और अफगानिस्तान की खनिज संपदा के बारे में अमेरिका ने कभी भी अफगान अर्थव्यवस्था में निवेश नहीं किया या इसे अपने प्रभाव के आर्थिक क्षेत्र (भारत सहित) में एकीकृत करने का प्रयास नहीं किया, जैसा कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद इसके हस्तक्षेप के बाद हुआ था। 

भारत के लिये निहितार्थ:

  • भारतीयों की सुरक्षा:
    • पहली चिंता अफगानिस्तान में स्थित भारतीय राजनयिकों, कर्मियों और नागरिकों की है।
  • सामरिक चिंता:
    • तालिबान के नियंत्रण का मतलब पाकिस्तानी सेना और खुफिया एजेंसियों के लिये देश के परिणामों को प्रभावित करने हेतु एक बड़ा कारक साबित होगा, जो पिछले 20 वर्षों में अपनी सद्भावना बनाए रखने में भारतीय विकास और बुनियादी ढाँचा कार्यों हेतु बहुत छोटी-सी भूमिका का निर्वहन करता है।
  • कट्टरपंथ का खतरा:
    • भारत के पड़ोस में बढ़ता कट्टरपंथ और अखिल इस्लामी आतंकवादी समूहों से क्षेत्र को खतरा है।

आगे की राह

  • भारत के लिये पहला विकल्प काबुल में केवल लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकार का समर्थन करने तथा राजनीतिक और मानवीय सहायता प्रदान करने के अपने सिद्धांत पर टिके रहना है।
  • साथ ही भारत अमेरिका-तालिबान वार्ता से सीख ले सकता है जहाँ दो विरोधी पक्ष अफगानिस्तान के भविष्य पर बातचीत हेतु संधि-वार्ता मंच पर एकजुट हुए थे।
    • भारत के लिये अफगानिस्तान की सफलता में उसकी स्थायी रुचि और अपने लोगों के लिये पारंपरिक गर्मजोशी को देखते हुए उस छलांग को थोड़ा आसान बनाना चाहिये। इस प्रकार भारत एक विशेष दूत की नियुक्ति पर विचार कर सकता है तथा तालिबान के साथ ट्रैक II कूटनीति शुरू कर सकता है।
  • भारत को आपातकालीन वीज़ा और खतरे में पड़े भारतीयों को वहाँ से निकालने के लिये सुविधा प्रदान करनी चाहिये।

स्रोत : इंडियन एक्सप्रेस

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