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डेली न्यूज़

भारतीय विरासत और संस्कृति

समर राग

  • 31 May 2019
  • 6 min read

चर्चा में क्यों ?

दुनिया भर में अभी भी वसंत के मौसम को विभिन्न प्रकार के रागों के लिये याद किया जाता है लेकिन गर्मी के मौसम के रागों को लोग भूल गए हैं। राग को संगीत के टीका संग्रह के रूप में परिभाषित किया जाता है जो एक विशेष क्रम और पैमाने में विशिष्ट मधुर लय के रूप में व्यवस्थित होते हैं।

  • उत्तर भारत में रागों को मिज़ाज, मौसम और समय के अनुसार वर्गीकृत किया जाता है; जबकि दक्षिण भारत में रागों को उनके पैमानों के तकनीकी लक्षणों द्वारा वर्गीकृत किया जाता है।
  • ऐसे प्रमुख राग जो भारत में गर्मियों के मौसम से जुड़े हैं निम्नलिखित हैं-
  • राग मारवा: इसे दोपहर के समय से सूर्यास्त तक गाया जाता है।
  • राग सारंग: यह अपने सभी रूपों में गर्मी से जुड़ा एक राग है, जिसे तब गाया जाता है जब दिन के समय गर्मी अपने चरम पर होती है। यह राग विशेष रूप से ग्रीष्म ऋतु के लिये ही है।
  • ध्रुपद शैली ‘हवेली संगीत’

ध्रुपद

  • जहाँ ध्रुपद की उत्पत्ति तेरहवीं- चौदहवीं शताब्दी की मानी जाती है, वहीं सोलहवीं-सत्रहवीं और अठारहवीं शताब्दी में इसका प्रचार अपने चरमोत्कर्ष पर था।
  • ध्रुपद शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है- ध्रुव और पद। ध्रुव अर्थात् अचल, अटल, स्थायी, निश्चित तथा पद का अर्थ है साहित्योक्तियाँ। इस प्रकार ध्रुपद एक प्रकार की गीतिका है, जिसमें स्वर, शब्द (पद) को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। अतः ध्रुपद एक शब्द-प्रधान गीत है। इसे अचल पदों वाली गायकी भी कहते हैं।
  • ध्रुपद को हिंदूस्तानी राग-दरबारी संगीत के उच्चतम श्रेणी के गीत का प्रकार माना जाता है। ध्रुपद गायन राग की शुद्धता, स्वर तथा शब्द के शुद्ध उच्चारण, गमक, ताल और लयबद्धता इत्यादि तत्त्वों पर आधारित है। कदाचित इस शैली के आधारभूत तत्त्वों की संरचना स्वर, शब्द, ताल और भाव के समुचित प्रयोग द्वारा ही संभव है।
  • ध्रुपद की गायन शैली गंभीर होती है ध्रुपद गाने में फेफड़ों पर बहुत ज़ोर पड़ता है, इसके लिये शक्ति की आवश्यकता होती है। इसीलिये इसे ‘मर्दाना गायन’ कहते हैं।

हवेली संगीत

  • हवेली संगीत राजस्थान में नाथद्वारा के वैष्णवों द्वारा मंदिरों में गाया जाने वाला संगीत है।
  • नाथद्वारा वैष्णव भक्ति पंथ का मुख्य स्थान है जहाँ मंदिर-आधारित संगीत की समृद्ध ऐतिहासिक परंपरा स्थापित है।
  • यहाँ एक महल को ‘हवेली’ के रूप में संदर्भित किया गया है जहाँ देवता निवास करते हैं।
  • ध्रुपद की तुलना में हवेली संगीत को राजस्थान और गुजरात में जाना जाता है, जो कि अपनी श्रेष्ठता का दावा करता है क्योंकि ऐसा माना जाता था कि इसके प्रदर्शन के दौरान स्वयं भगवान कृष्ण दर्शक के रूप में उपस्थित होते थे।
  • इस संगीत अभ्यास में गीत का सार कृष्ण भक्ति के इर्द-गिर्द घूमता है और इसे कीर्तन, भजन तथा भाव नृत्य के रूप में जाना जाता है।
  • यह शास्त्रीय और लोक संगीत के एकीकरण के लिये जाना जाता है, गायन की प्रमुख शैली अभी भी ध्रुपद और धमार (एक ताल) है।
  • वृंदावन में राधा वल्लभ मंदिर, नंदगाँव में कृष्ण, बरसाना में श्री राधा रानी और नाथद्वारा में श्री नाथजी सभी को हवेली संगीत के साथ प्रतिबिंबित किया जाता है।
  • गुजरात में एक विचारधारा का मानना है कि भारतीय शास्त्रीय संगीत की उत्पत्ति इस शैली के अग्रणी वल्लभाचार्य के हवेली संगीत से हुई।

वल्लभाचार्य

  • यह उत्तरी और पश्चिमी भारत के व्यापारी वर्ग के बीच हिंदू धर्म की एक शाखा है।
  • इसके सदस्य 16वीं सदी के शिक्षक वल्लभ और उनके बेटे विठ्ठल (जिसे गोसाईंजी के नाम से भी जाना जाता है) द्वारा स्थापित शाखा एवं पुष्टिमार्ग समूह के अनुयायी हैं।
  • वल्लभाचार्य संप्रदाय अपने गुरुओं (आध्यात्मिक नेताओं) द्वारा दी गई भक्ति की शिक्षा के लिये प्रसिद्ध है, जिन्हें भगवान का सांसारिक अवतार माना जाता है।
  • संप्रदाय का मुख्य मंदिर नाथद्वारा, राजस्थान में है, जहाँ श्रीनाथजी नाम से भगवान कृष्ण की एक विशिष्ट छवि है।

स्रोत- द हिंदू

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