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सामाजिक न्याय

बलात्कार तथा यौन अपराधों पर कानून

  • 09 Dec 2019
  • 9 min read

मेन्स के लिये

महिलाओं की सुरक्षा से संबंधित कानून

चर्चा में क्यों?

हाल में देश में बढ़ते हुए बलात्कार एवं हत्या के मामलों को देखते हुए इस बात पर बहस तेज़ हो गई है कि महिलाओं तथा बच्चों के साथ यौन अपराध करने वालों के खिलाफ आपराधिक न्याय प्रणाली को अधिक कठोर किया जाए।

बलात्कार से संबंधित कानून की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:

  • भारत में बलात्कार (Rape) को स्पष्ट तौर पर भारतीय दंड संहिता (Indian Penal Code-IPC) में परिभाषित अपराध की श्रेणी में वर्ष 1960 में शामिल किया गया। उससे पहले इससे संबंधित क़ानून पूरे देश में अलग-अलग तथा विवादास्पद थे।
  • वर्ष 1833 के चार्टर एक्ट (Charter Act, 1833) के लागू होने के बाद भारतीय कानूनों के संहिताबद्ध करने का कार्य प्रारंभ किया गया। इसके लिये ब्रिटिश संसद ने लॉर्ड मैकॉले की अध्यक्षता में पहले विधि आयोग का गठन किया।
  • आयोग द्वारा आपराधिक कानूनों को दो भागों में संहिताबद्ध करने का निर्णय लिया गया। इसका पहला भाग भारतीय दंड संहिता (Indian Penal Code-IPC) तथा दूसरा भाग दंड प्रक्रिया संहिता (Code of Criminal Procedure-CrPC) बना।
  • IPC के तहत अपराध से संबंधित नियमों को परिभाषित तथा संकलित किया गया। इसे अक्तूबर 1860 में अधिनियमित किया गया लेकिन 1 जनवरी, 1862 में लागू किया गया।
  • CrPC, आपराधिक न्यायालयों की स्थापना तथा किसी अपराध के परीक्षण एवं मुकदमे की प्रक्रिया के बारे में है।
  • IPC की धारा 375 में बलात्कार को परिभाषित किया गया तथा इसे एक दंडनीय अपराध की संज्ञा दी गई।
  • IPC की धारा 376 के तहत बलात्कार जैसे अपराध के लिये न्यूनतम सात वर्ष तथा अधिकतम आजीवन कारावास की सज़ा का प्रावधान किया गया। 

IPC के तहत बलात्कार की परिभाषा में निम्नलिखित बातें शामिल की गई हैं :

  • किसी पुरुष द्वारा किसी महिला की इच्छा (Will) या सहमति (Consent) के विरुद्ध किया गया शारीरिक संबंध।
  • जब हत्या या चोट पहुँचाने का भय दिखाकर दबाव में संभोग के लिये किसी महिला की सहमति हासिल की गई हो।
  • 18 वर्ष से कम उम्र की किसी महिला के साथ उसकी सहमति या बिना सहमति के किया गया संभोग।
  • इसमें अपवाद के तौर पर किसी पुरुष द्वारा उसकी पत्नी के साथ किये गये संभोग, जिसकी उम्र 15 वर्ष से कम न हो, को बलात्कार की श्रेणी में नहीं शामिल किया जाता है।

वर्ष 1972 का मामला:

  • वर्ष 1860 के लगभग 100 वर्षों बाद तक बलात्कार तथा यौन हिंसा के कानूनों में कोई बदलाव नहीं हुए लेकिन 26 मार्च, 1972 को महाराष्ट्र के देसाईगंज पुलिस स्टेशन में मथुरा नामक एक आदिवासी महिला के साथ पुलिस कस्टडी में हुए बलात्कार ने इन नियमों पर खासा असर डाला।
  • सेशन कोर्ट ने अपने फैसले में यह स्वीकार करते हुए आरोपी पुलिसकर्मियों को बरी कर दिया कि उस महिला के साथ पुलिस स्टेशन में संभोग हुआ था किंतु बलात्कार होने के कोई प्रमाण नहीं मिले थे और वह महिला यौन संबंधों की आदी थी।
  • हालाँकि सेशन कोर्ट के इस फैसले के विपरीत उच्च न्यायालय ने आरोपियों के बरी होने के निर्णय को वापस ले लिया। इसके बाद सर्वोच्च न्यायालय ने फिर उच्च न्यायालय के फैसले को बदलते हुए यह कहा कि इस मामले में बलात्कार के कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं उपलब्ध है।
  • सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि महिला के शरीर पर कोई घाव या चोट के निशान मौजूद नहीं है जिसका अर्थ है कि तथाकथित संबंध उसकी मर्ज़ी से स्थापित किये गए थे।

आपराधिक क़ानून में संशोधन:

  • मथुरा मामले के बाद देश में बलात्कार से संबंधित कानूनों में तत्काल बदलाव को लेकर मांग तेज़ हो गई। इसके प्रत्युत्तर में आपराधिक कानून (दूसरा संशोधन) अधिनियम, 1983 [Criminal Law (Second Amendment) Act of 1983] पारित किया गया।
  • इसके अलावा IPC में धारा 228A जोड़ी गई जिसमें कहा गया कि बलात्कार जैसे कुछ अपराधों में पीड़ित की पहचान गुप्त रखी जाए तथा ऐसा न करने पर दंड का प्रावधान किया जाए।

वर्तमान में बलात्कार से संबंधित कानूनों की प्रकृति:

  • दिसंबर 2012 में दिल्ली में हुए बलात्कार तथा हत्या के मामले के बाद देश में आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 2013 पारित किया गया जिसने बलात्कार की परिभाषा को और अधिक व्यापक बनाया तथा इसके अधीन दंड के प्रावधानों को कठोर किया।
  • इस अधिनियम में जस्टिस जे. एस. वर्मा समिति के सुझावों को शामिल किया गया जिसे देश में आपराधिक कानूनों में सुधार तथा समीक्षा के लिये बनाया गया था।
  • इस अधिनियम ने यौन हिंसा के मामलों में कारावास की अवधि को बढ़ाया तथा उन मामलों में मृत्युदंड का भी प्रावधान किया जिसमें पीड़ित की मौत हो या उसकी अवस्था मृतप्राय हो जाए।
  • इसके तहत कुछ नए प्रावधान भी शामिल किये गए जिसमें आपराधिक इरादे से बलपूर्वक किसी महिला के कपड़े उतारना, यौन संकेत देना तथा पीछा करना आदि शामिल हैं।
  • सामूहिक बलात्कार के मामले में सज़ा को 10 वर्ष से बढ़ाकर 20 वर्ष या आजीवन कारावास कर दिया गया।
  • इस अधिनियम द्वारा अवांछनीय शारीरिक स्पर्श, शब्द या संकेत तथा यौन अनुग्रह (Sexual Favour) करने की मांग करना आदि को भी यौन अपराध में शामिल किया गया।
  • इसके तहत किसी लड़की का पीछा (Stalking) करने पर तीन वर्ष की सज़ा तथा एसिड अटैक (Acid Attack) के मामले में सज़ा को दस वर्ष से बढ़ाकर आजीवन कारावास में बदल दिया गया।

नाबालिगों के मामले में कानून:

  • जनवरी 2018 में जम्मू-कश्मीर के कठुआ में एक आठ वर्षीय बच्ची के साथ हुए अपहरण, सामूहिक बलात्कार तथा हत्या के मामले के बाद पूरे देश में इसका विरोध हुआ तथा आरोपियों के खिलाफ सख्त कार्यवाही की मांग की गई।
  • इसके बाद आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 2018 [Criminal Law (Amendment) Act, 2018] पारित किया गया जिसमें पहली बार यह प्रावधान किया गया कि 12 वर्ष से कम आयु की किसी बच्ची के साथ बलात्कार के मामले में न्यूनतम 20 वर्ष के कारावास या मृत्युदंड की सज़ा का प्रावधान होगा।
  • इसके तहत IPC में एक नया प्रावधान भी जोड़ा गया जिसके द्वारा 16 वर्ष से कम आयु की किसी लड़की के साथ हुए बलात्कार के लिये न्यूनतम 20 वर्ष का कारावास तथा अधिकतम उम्र कैद की सज़ा हो सकती है।
  • IPC, 1860 के तहत बलात्कार के मामले में न्यूनतम सज़ा के प्रावधान को सात वर्ष से बढ़ाकर अब 10 वर्ष कर दिया गया है।

स्रोत: द हिंदू

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