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डेली न्यूज़

जैव विविधता और पर्यावरण

जनवरी 2020 में रिकार्ड तापमान

  • 22 Feb 2020
  • 12 min read

प्रीलिम्स के लिये:

वैश्विक तापन, IMD

मेन्स के और लिये:

जलवायु परिवर्तन संबंधी मुद्दे

चर्चा में क्यों?

भारत मौसम विज्ञान विभाग (India Meteorological Department- IMD) के अनुसार जनवरी 2020, वर्ष 1919 के बाद से भारत का दूसरा सबसे गर्म महीना रहा, जिसका मापन औसत न्यूनतम तापमान के मानकों के अनुसार किया गया।

मुख्य बिंदु:

  • यूएस नेशनल ओशनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन (National Oceanic and Atmospheric Administration- NOAA) के अनुसार, वैश्विक स्तर पर वर्ष 1880 के बाद (भूमि और समुद्र की सतह के औसत तापमान के अनुसार) जनवरी 2020 सबसे गर्म रहा।

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भारत में तापमान का स्वरूप:

  • जनवरी माह का औसत न्यूनतम तापमान 20.59°C की तुलना में जनवरी 2020 में 21.92°C रहा जो कि औसत से 1.33°C अधिक रहा। इससे पहले जनवरी 1919 सर्वाधिक गर्म रहा जो कि लगभग 22.13°C रहा था।
  • इसके अलावा वर्ष 1901, 1906 और 1938 के जनवरी माह का तापमान भी सामान्य से अधिक रहा था।
  • वर्ष 1901 के बाद से जनवरी माह के औसत तापमान में पहली बार 1°C से अधिक की विसंगति देखी गई।
  • जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड के कुछ क्षेत्रों सहित संपूर्ण उत्तर भारत में इस बार सर्दियाँ कठोर रहीं।
  • दिल्ली में दिसंबर माह में शीतकालीन ठंड ने उस समय कई रिकॉर्ड तोड़ दिये जब 17 दिनों तक लगातार तापमान 4°C तक गिर गया था। इसी तरह पंजाब और राजस्थान में भी दिसंबर और जनवरी में ठंड की स्थिति कठोर रही।

वैश्विक तापमान का स्वरूप:

  • NOAA के अनुसार, जनवरी 2020 में वैश्विक स्तर (भूमि और महासागर की सतह से तापमान का औसत तापमान )141 वर्षों की समयावधि में सबसे अधिक रहा है।
  • जनवरी 2016 और 2020 केवल ऐसे वर्ष रहे है जिनका तापमान विचलन 1°C से अधिक रहा है।
  • जनवरी 2020 में उष्णकटिबंधीय प्रशांत महासागर में एल नीनो का प्रभाव नहीं होने के बावजूद तापमान में यह विचलन रहा।

ग्लोबल वार्मिंग:

ग्लोबल वार्मिंग का तात्पर्य है “वैश्विक दीर्घकालिक औसत तापमान में धनात्मक वृद्धि”।

ग्लोबल वार्मिंग के कारण:

  • ग्रीनहाउस गैसें: आधुनिक युग में जैसे-जैसे मानवीय गतिविधियाँ बढ़ रही हैं, ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में वृद्धि हो रही है जिसके कारण वैश्विक तापमान/ग्लोबल वार्मिंग में भी वृद्धि हो रही है।
  • भूमि के उपयोग में परिवर्तन: वृक्ष न सिर्फ हमें फल और छाया देते हैं, बल्कि ये वातावरण से कार्बन डाइऑक्साइड जैसी महत्त्वपूर्ण ग्रीनहाउस गैस को अवशोषित भी करते हैं। वर्तमान समय में जिस तरह से वृक्षों की कटाई की जा रही हैं, वह काफी चिंतनीय है, क्योंकि वृक्ष वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित करने वाले प्राकृतिक यंत्र के रूप में कार्य करते हैं।
  • शहरीकरण: शहरीकरण और औद्योगीकरण के कारण लोगों के जीवन जीने के तौर-तरीकों में काफी परिवर्तन आया है। जीवन-शैली में परिवर्तन ने खतरनाक गैसों के उत्सर्जन में काफी अधिक योगदान दिया है।

ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव:

  • वर्षा के पैटर्न में बदलाव: पिछले कुछ दशकों में बाढ़, सूखा और वर्षा आदि की अनियमितता काफी बढ़ गई है। यह सभी जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप ही हो रहा है।
  • समुद्र जल के स्तर में वृद्धि: वैश्विक स्तर पर ग्लोबल वार्मिंग के दौरान ग्लेशियर पिघल जाते हैं और समुद्र का जल स्तर में भी वृद्धि होती है जिसके प्रभाव से समुद्र के आस-पास के द्वीपों के डूबने का खतरा भी बढ़ जाता है।
  • वन्यजीव प्रजाति का नुकसान: तापमान में वृद्धि और वनस्पति पैटर्न में बदलाव ने कुछ पक्षी प्रजातियों को विलुप्त होने के लिये मज़बूर कर दिया है। विशेषज्ञों के अनुसार, पृथ्वी की एक-चौथाई प्रजातियाँ वर्ष 2050 तक विलुप्त हो सकती हैं।
  • रोगों का प्रसार और आर्थिक नुकसान: जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप मलेरिया और डेंगू जैसी बीमारियाँ और अधिक बढ़ेंगी तथा इन्हें नियंत्रित करना कठिन होगा।
  • वनाग्नि: जलवायु परिवर्तन के कारण लंबे समय तक चलने वाली ऊष्म-लहरों ने वनाग्नि के लिये उपयुक्त गर्म और शुष्क परिस्थितियाँ पैदा की हैं।

समाधान के प्रयास

  • वैश्विक स्तर पर:
    • संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क सम्मेलन (UNFCCC): यह एक अंतर्राष्ट्रीय समझौता है जिसका उद्देश्य वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को नियंत्रित करना है। यह समझौता जून 1992 के पृथ्वी सम्मेलन के दौरान किया गया था। विभिन्न देशों द्वारा इस समझौते पर हस्ताक्षर के बाद 21 मार्च, 1994 को इसे लागू किया गया।
    • पेरिस समझौता: इस समझौते में राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (NDC) की संकल्पना को अपनाया गया है। वर्ष 2015 में 30 नवंबर से लेकर 11 दिसंबर तक 195 देशों की सरकारों के प्रतिनिधियों ने पेरिस में जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये संभावित नए वैश्विक समझौते पर चर्चा की।
  • भारत के प्रयास:
    • जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्ययोजना (The National Action Plan on Climate Change-NAPCC): जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्ययोजना का शुभारंभ वर्ष 2008 में किया गया था। इसका उद्देश्य जनता के प्रतिनिधियों, सरकार की विभिन्न एजेंसियों, वैज्ञानिकों, उद्योग और समुदायों को जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न खतरे तथा इससे मुकाबला करने के उपायों के बारे में जागरूक करना है।
    • अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन (International Solar Alliance-ISA): यह सौर ऊर्जा से संपन्न देशों का एक संधि आधारित अंतर-सरकारी संगठन है। अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन की शुरुआत भारत और फ्राँस ने 30 नवंबर, 2015 को पेरिस जलवायु सम्‍मेलन के दौरान की।
    • भारत का राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (India’s Nationally Determined Contribution-INDC): पेरिस समझौते के अंतर्गत राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान की संकल्पना को प्रस्तावित किया गया है, इसमें प्रत्येक राष्ट्र से यह अपेक्षा की गई है कि वह ऐच्छिक तौर पर अपने लिये उत्सर्जन के लक्ष्यों का निर्धारण करें।

समाधान से संबंधित चुनौतियाँ:

  • पेरिस समझौते जैसे पर्यावरणीय समझौतों में उन देशों के विरुद्ध कार्यवाही का कोई प्रावधान नहीं है, जो इसकी प्रतिबद्धताओं का सम्मान नहीं करते। यहाँ तक कि पेरिस समझौते में जवाबदेही तय करने व जाँच के लिये भी कोई नियामक संस्था नहीं है।
  • अमेरिका के वर्तमान रुख के प्रभाव के कारण जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने के लिये प्राप्त होने वाले वित्तीय संसाधनों यथा; हरित जलवायु कोष पर असर पड़ेगा, अतः इसकी अनुपस्थिति में समझौते के लक्ष्यों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है।

हरित जलवायु कोष

(Green Climate Fund-GEF)

UNFCCC के ढाँचे के भीतर स्थापित एक कोष है जो जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करने के लिये यह अनुकूलन और शमन प्रथाओं को अपनाने में विकासशील देशों की सहायता करता है।

  • अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण कानून के सिद्धांत यथा; समान परंतु विभेदित उत्तरदायित्त्वों का सिद्धांत (Common But Differentiated Responsibilities and Respective Capabilities- CBDR-RC) ग्लोबल वार्मिंग को रोकने में कारगर नज़र नहीं आ रहा है।

समान परंतु विभेदित उत्तरदायित्त्वों का सिद्धांत:

  • इसका अर्थ यह है कि विकसित देशों को जलवायु परिवर्तन के विरुद्ध कार्रवाई में विकासशील और अल्पविकसित देशों की तुलना में अधिक ज़िम्मेदारी लेनी चाहिये क्योंकि विकसित होने की प्रक्रिया में इन देशों ने सर्वाधिक कार्बन उत्सर्जन किया है और ये देश जलवायु परिवर्तन के लिये सबसे अधिक ज़िम्मेदार हैं।
  • पेरिस जलवायु समझौते के अंतर्गत विभिन्न राष्ट्रों की भिन्न-भिन्न राष्ट्रीय परिस्थितियों को देखते हुए विभेदित उत्तरदायित्त्वों और संबंधित क्षमताओं के सिद्धांत का पालन किया गया है।

आगे की राह:

  • इस संबंध में कार्बन टैक्स की अवधारणा का प्रयोग कर वैश्विक स्तर पर कार्बन के उत्सर्जन पर टैक्स लगाया जा सकता है, इससे सभी देशों के कार्बन उत्सर्जन में कटौती करने की प्रतिबद्धता में बढ़ोतरी होगी।
  • सभी देशों की जवाबदेही तय करने और इस संबंध में उनके प्रयासों की जाँच करने के लिये एक नियामक संस्था का भी निर्माण किया जा सकता है, साथ ही जो देश अपनी प्रतिबद्धताओं को पूरा करने में असफल रहेंगे उन पर प्रतिबंध और जुर्माना भी लगाया जा सकता है। जुर्माने से प्राप्त हुई राशि का प्रयोग हरित परियोजनाओं के लिये किया जा सकता है।
  • वर्तमान में दुनिया भर की सरकारें जीवाश्म ईंधन पर सब्सिडी के लिये बहुत सारा पैसा खर्च कर रही हैं, जिसके कारण जीवाश्म ईंधन के प्रयोग को बढ़ावा मिल रहा है। आवश्यक है कि सभी जीवाश्म ईंधनों की सब्सिडी पर वैश्विक प्रतिबंध लगाया जाए।

स्रोत: द हिंदू

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