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डेली न्यूज़

भारतीय अर्थव्यवस्था

बजट का निर्माण

  • 31 Jan 2022
  • 13 min read

प्रिलिम्स के लिये:

बजट और संबंधित संवैधानिक प्रावधान।

मेन्स के लिये:

बजट के घटक, बजट के उद्देश्य और अर्थव्यवस्था पर इसका प्रभाव, वित्तीय नीति, FRBM।

चर्चा में क्यों?

01 फरवरी, 2022 को वित्त मंत्री द्वारा संसद में पेश किया जाने वाला केंद्रीय बजट ‘विकास, मुद्रास्फीति और व्यय’ से संबंधित चिंताओं को संबोधित करेगा।

  • बजट, सरकार के ‘व्यय’, कर लगाने की योजना है और अन्य लेनदेनों, जो अर्थव्यवस्था और नागरिकों के जीवन को प्रभावित करते हैं, का ब्लूप्रिंट होता है।
  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 112 के अनुसार, एक किसी विशिष्ट वित्तीय वर्ष के केंद्रीय बजट को वार्षिक वित्तीय विवरण (AFS) कहा जाता है।
  • वित्त मंत्रालय में आर्थिक मामलों के विभाग का ‘बजट प्रभाग’ बजट तैयार करने हेतु उत्तरदायी नोडल निकाय है।

प्रमुख बिंदु

  • बजट के घटक: केंद्रीय बजट के मुख्यतः तीन प्रमुख घटक होते हैं- व्यय, प्राप्तियाँ और घाटा। परिभाषा के आधार पर व्यय, प्राप्तियों और घाटे के कई वर्गीकरण और संकेतक हो सकते हैं।
  • व्यय:
  • संपत्ति और देनदारियों पर उनके प्रभाव के आधार पर:
  • पूंजीगत व्यय एक टिकाऊ प्रकृति की संपत्ति का निर्माण करने या आवर्ती देनदारियों को कम करने के उद्देश्य से किया जाता है।
    • इसके तहत नए स्कूलों या नए अस्पतालों के निर्माण हेतु किया गया व्यय शामिल होता है। इन सभी को पूंजीगत व्यय के रूप में वर्गीकृत किया जाता है क्योंकि वे नई संपत्ति के निर्माण की ओर ले जाते हैं।
  • राजस्व व्यय में कोई भी ऐसा व्यय शामिल होता है, जो संपत्ति के निर्माण या देनदारियों को कम नहीं करता है।
    • मज़दूरी और वेतन, सब्सिडी या ब्याज़ भुगतान पर व्यय को आमतौर पर राजस्व व्यय के रूप में वर्गीकृत किया जाता है।

विभिन्न क्षेत्रों को प्रभावित करने के आधार पर:

  • व्यय को (i) सामान्य सेवाओं (ii) आर्थिक सेवाओं, (iii) सामाजिक सेवाओं और (iv) सहायता अनुदान एवं योगदान में वर्गीकृत किया गया है।
  • आर्थिक और सामाजिक सेवाओं पर व्यय के योग से विकास व्यय का निर्माण होता है।
    • आर्थिक सेवाओं में परिवहन, संचार, ग्रामीण विकास, कृषि एवं संबद्ध क्षेत्रों पर व्यय शामिल होता है।
    • शिक्षा या स्वास्थ्य सहित सामाजिक क्षेत्र पर व्यय को सामाजिक सेवाओं के रूप में वर्गीकृत किया गया है।
  • इसी प्रकार परिसंपत्ति निर्माण या देयता में कमी पर इसके प्रभाव के आधार पर विकास व्यय को आगे राजस्व और पूंजीगत व्यय के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है।
  • प्राप्तियाँ:
    • सरकार की प्राप्तियों के तीन घटक होते हैं- राजस्व प्राप्तियाँ, गैर-ऋण पूंजीगत प्राप्तियाँ और ऋण-सृजन पूंजी प्राप्तियाँ।
    • राजस्व प्राप्तियों में ऐसी रसीदें शामिल होती हैं जो देनदारियों में वृद्धि से जुड़ी नहीं होती हैं और इसमें करों व गैर-कर स्रोतों से राजस्व भी शामिल होता है।
    • गैर-ऋण प्राप्तियांँ (Non-debt receipts) पूंजीगत प्राप्तियों का हिस्सा हैं जो अतिरिक्त देनदारियांँ उत्पन्न नहीं करती हैं। ऋण की वसूली और विनिवेश से प्राप्त आय को भी गैर-ऋण पूंजीगत प्राप्तियाँ माना जाएगा क्योंकि इन स्रोतों से राजस्व उत्पन्न करने से देनदारियों या भविष्य की भुगतान प्रतिबद्धताओं में सीधे वृद्धि नहीं होती है।
    • ऋण-सृजन पूंजी प्राप्तियाँ (Debt-creating capital receipts) वे हैं जिनमें सरकार की उच्च देनदारियांँ और भविष्य की भुगतान प्रतिबद्धताएंँ शामिल होती हैं।
  • राजकोषीय घाटा:
    • परिभाषित रूप में राजकोषीय घाटा कुल व्यय, राजस्व प्राप्तियों और गैर-ऋण प्राप्तियों के योग के बीच का अंतर है। यह दर्शाता है कि सरकार शुद्ध रूप में कितना खर्च कर रही है।
    • चूंँकि सकारात्मक राजकोषीय घाटा राजस्व और गैर-ऋण प्राप्तियों से अधिक व्यय की मात्रा को दर्शाता है, इसलिये इसे ऋण-सृजन पूंजी प्राप्ति द्वारा वित्तपोषित करने की आवश्यकता होती है।
    • प्राथमिक घाटा राजकोषीय घाटे और ब्याज भुगतान के बीच का अंतर है।
    • राजस्व घाटा राजकोषीय घाटे से पूंजीगत व्यय घटाकर निकाला जाता है।
  • अर्थव्यवस्था पर बजट के प्रभाव/निहितार्थ:
    • सभी सरकारी व्यय अर्थव्यवस्था में कुल मांग को उत्पन्न करते हैं क्योंकि इसमें सरकारी क्षेत्र द्वारा निजी वस्तुओं और सेवाओं की खरीद शामिल होती है।
    • सभी कर और गैर-कर राजस्व निजी क्षेत्र की शुद्ध आय को कम करते हैं एवं  इससे निजी और कुल मांग में कमी आती है। 
    • लेकिन असाधारण परिस्थितियों को छोड़कर सकल घरेलू उत्पाद, राजस्व प्राप्ति और व्यय में सामान्यत: समय के साथ वृद्धि की प्रवृत्ति देखी जाती है।
    • इस प्रकार व्यय और प्राप्तियों के निरपेक्ष मूल्य की प्रवृत्ति का बजट के सार्थक विश्लेषण हेतु बहुत कम उपयोग होता है।
      • व्यय और राजस्व की प्रवृत्ति का विश्लेषण या तो सकल घरेलू उत्पाद द्वारा किया जाता है या फिर मुद्रास्फीति दर के लिये लेखांकन के बाद विकास दर के रूप में किया जाता है।
      • व्यय जीडीपी अनुपात (Expenditure GDP Ratio) में कमी या राजस्व प्राप्ति-जीडीपी अनुपात (Revenue Receipt-GDP Ratio) में वृद्धि सकल मांग को कम करने के लिये सरकार की नीति को इंगित करती है
      • इसी प्रकार राजकोषीय घाटा-जीडीपी अनुपात (Fiscal Deficit-GDP Ratio) और प्राथमिक घाटा-जीडीपी अनुपात (Primary Deficit-GDP Ratios) में कमी और वृद्धि सरकार की मांग को कम करने की नीति को इंगित करती है।
    • चूंँकि व्यय और राजस्व के विभिन्न घटकों का विभिन्न वर्गों व सामाजिक समूहों की आय पर अलग-अलग प्रभाव हो सकता है। बजट का आय वितरण पर भी प्रभाव पड़ता है।
      • उदाहरण के लिये रोज़गार गारंटी योजनाओं या खाद्य सब्सिडी जैसे राजस्व व्यय सीधे गरीबों की आय को बढ़ा सकते हैं। कॉर्पोरेट टैक्स में छूट कॉर्पोरेट आय को सीधे एवं सकारात्मक रूप से प्रभावित कर सकती है।

राजकोषीय नियम और नीति पर इसका प्रभाव

  • अर्थ: राजकोषीय नियम विशिष्ट नीति लक्ष्य प्रदान करते हैं जिनके आधार पर राजकोषीय नीति बनाई जाती है।
    • विभिन्न नीतिगत साधनों का उपयोग करके नीतिगत लक्ष्यों को पूरा किया जा सकता है। ऐसा कोई विशिष्ट वित्तीय नियम मौजूद नहीं है जो सभी देशों पर लागू हो। बल्कि नीति के लक्ष्य आर्थिक सिद्धांत की प्रकृति के प्रति संवेदनशील होते हैं और एक अर्थव्यवस्था की विशिष्टता पर निर्भर करते हैं।
    • राजकोषीय नीति का तात्पर्य आर्थिक स्थितियों विशेष रूप से व्यापक आर्थिक स्थितियों को प्रभावित करने के लिये सरकारी खर्च और कर नीतियों के उपयोग से है जिसमें वस्तुओं और सेवाओं की कुल मांग, रोज़गार, मुद्रास्फीति तथा आर्थिक विकास शामिल होते हैं।
  • भारत का मामला: इसका वर्तमान वित्तीय नियम एन.के. सिंह समिति की रिपोर्ट (2016 में स्थापित) द्वारा निर्देशित है
    • असाधारण अवधि के तहत कुछ विचलन की अनुमति के साथ इसके तीन नीति लक्ष्य हैं - ऋण-जीडीपी अनुपात (स्टॉक लक्ष्य), राजकोषीय घाटा-जीडीपी अनुपात (प्रवाह लक्ष्य) और राजस्व घाटा-जीडीपी अनुपात (संरचना लक्ष्य) का एक विशिष्ट स्तर बनाए रखना।
    • यद्यपि व्यय और राजस्व प्राप्तियाँ दोनों संभावित रूप से राजकोषीय नियमों के विशिष्ट समूह को पूरा करने के लिये नीतिगत साधनों के रूप में कार्य कर सकते हैं, मौजूदा नीति ढाँचे के भीतर कर-दरें अर्थव्यवस्था की व्यय आवश्यकता से स्वतंत्र निर्धारित की जाती है।
    • संस्थागत ढाँचे में यह मुख्य रूप से वह व्यय है जिसे दिये गए कर-अनुपातों पर राजकोषीय नियमों को पूरा करने हेतु समायोजित किया जाता है।
  • निहितार्थ: इस तरह के समायोजन तंत्र में राजकोषीय नीति के लिये कम-से-कम दो संबंधित, लेकिन विश्लेषणात्मक रूप से अलग निहितार्थ हैं।
    • सबसे पहले अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहित करने या श्रम आय को बढ़ावा देने के लिये आवश्यक व्यय की सीमा से स्वतंत्र, मौजूदा वित्तीय नियम तीन नीतिगत लक्ष्यों को लागू करके व्यय पर एक सीमा प्रदान करते हैं।
    • दूसरा, किसी भी स्थिति में जब ऋण-अनुपात या घाटा अनुपात लक्षित स्तर से अधिक होता है, तो नीतिगत लक्ष्यों को पूरा करने के लिये व्यय को समायोजित किया जाता है।
      • निहितार्थ से अर्थव्यवस्था की स्थिति और विस्तारवादी राजकोषीय नीति की आवश्यकता से स्वतंत्र, मौजूदा नीतिगत लक्ष्य सरकार को व्यय कम करने के लिये प्रेरित कर सकते हैं।
    • बेरोज़गारी और कम उत्पादन वृद्धि दर की समकालीन चुनौतियों का समाधान करने के लिये राजकोषीय नीति की अपर्याप्तता के बीच भारत में राजकोषीय नियमों की प्रकृति और उद्देश्य की फिर से जाँच करनी होगी।

एन.के. सिंह समिति की सिफारिशें:

  • ऋण-जीडीपी अनुपात:
    • वित्त वर्ष 2022-23 तक केंद्र सरकार के लिये ऋण-सकल घरेलू उत्पाद अनुपात 38.7% तथा राज्य सरकारों के लिये 20% होना चाहिये।
  • राजकोषीय घाटा-जीडीपी अनुपात:
    • सरकार को 31 मार्च 2020 तक सकल घरेलू उत्पाद के 3% के राजकोषीय घाटे को लक्षित करना चाहिये, इसे वर्ष 2020-21 में 2.8% और 2023 तक 2.5% तक कम करना चाहिये।
  • राजस्व घाटा-जीडीपी अनुपात:
    • राजस्व घाटा- GDP अनुपात (Revenue deficit to GDP ratio) में प्रतिवर्ष 0.25% अंकों तक कमी की जाए एवं वर्ष 2023 में इसे 0.8% तक लाया जाए।
  • मौजूदा वित्तीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन (FRBM) अधिनियम को निरस्त करने तथा एक वित्तीय परिषद बनाने के बाद एक नया ऋण व वित्तीय उत्तरदायित्व अधिनियम बनाने की सिफारिश करना।

स्रोत: द हिंदू

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