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डेली न्यूज़

कृषि

किसानों को नहीं मिल पा रहा उचित मूल्य

  • 05 Jun 2018
  • 7 min read

चर्चा में क्यों?

हाल के समय में देश भर के सब्जी उत्पादक किसानों को उनके उत्पादन की लागत भी नहीं मिल पा रही है। देश के कई राज्यों में किसानों के हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं और उन्हें मजबूरन अपने उत्पादों को कूड़े के ढेर में फेंकना पड़ रहा है।

क्यों कम हो रही हैं कीमतें? 

  • आलू और टमाटर के बाद लहसुन की कीमतों में बड़ी गिरावट आई है। बंपर उत्पादन के पश्चात् किसानों को सही रिटर्न न मिल पाने के कारण अपने उत्पादों को त्यागना पड़ रहा है।
  • आर्थिक रूप से तंग किसानों की समस्याओं का निराकरण दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहा है। देश भर में किसान कई मंचों के माध्यम से अपने उत्पादों की लाभकारी कीमतों और कृषि ऋणों की माफी की मांग कर रहे हैं।
  • बहुत सारी समस्याओं ने किसानों को बुरी तरह प्रभावित किया है। देश के 45 प्रतिशत लहसुन का उत्पादन करने वाले मध्य प्रदेश और राजस्थान के किसानों को पिछले दिनों थोक मूल्य पर अपने माल को ₹1 प्रति  किलोग्राम  की दर से बेचना पड़ा।
  • उत्तर प्रदेश, हरियाणा, तमिलनाडु जैसे राज्यों में किसानों को टमाटरों को खेतों में ही डंप करना पड़ गया।
  • अग्रिम अनुमान के अनुसार, 2017-18 के दौरान टमाटर का उत्पादन पिछले वर्ष की तुलना में 7.8% अधिक होने का अनुमान व्यक्त किया गया है। जबकि यह पिछले पाँच वर्षों के औसत उत्पादन से 20% अधिक है।  
  • इसी तरह, आलू का उत्पादन पिछले वर्ष की तुलना में 1.5% अधिक होने का अनुमान है। जबकि पिछले पाँच वर्षों के औसत उत्पादन की तुलना में यह 8.7% अधिक है।
  • इन आँकड़ों से पता चलता है कि किसान अच्छे रिटर्न के बिना अधिक उत्पादन कर रहे हैं। लगभग हर सीजन में किसानों को बंपर या खराब उत्पादन के चलते मांग-आपूर्ति में उतार-चढ़ाव, व्यापारियों द्वारा जमाखोरी आदि के कारण अनिश्चितताओं का सामना करना पड़ता है।

क्या व्यापारी कीमतों में हेरफेर कर रहे हैं?

  • मध्य प्रदेश में, लहसुन की कीमतों में तेज गिरावट के बाद सरकार ने इसे भावांतर भुगतान योजना (Price Deficit Payment Scheme) के अंतर्गत शामिल करने का निर्णय लिया है। यह योजना 2017 के खरीफ के सीजन में शुरू की गई थी।
  • हालाँकि, किसानों का कहना है कि इस योजना के साथ जुड़ी शर्तों के कारण उनमें से अधिकांश इसका लाभ नहीं उठा पाते।
  • इस योजना का उद्देश्य उस स्थिति में किसानों को मूल्य घाटे का भुगतान प्रदान करना है, जब उत्पादों की बाजार कीमत न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम होती है।
  • किसान नेताओं का मानना है कि पहले सीजन में इस योजना के कार्यान्वयन के कारण किसानों को थोड़ा लाभ हुआ, क्योंकि इसने व्यापारियों द्वारा कीमतों में छेड़छाड़ को रोकने हेतु कोई प्रभावी योगदान नहीं दिया।
  • किसानों के अनुसार, सरकार ने दावा किया है कि उसने क्षतिपूर्ति हेतु ₹1,900 करोड़ का वितरण किया। लेकिन किसानों के एक बड़े भाग को इस योजना में शामिल नहीं किया गया, और जो किसान इससे बाहर रह गए, उन्हें बाजार कीमतों में हेरफेर के कारण बड़े नुकसान का सामना करना पड़ा।

आगे की राह

  • सब्जियों की कीमतों में उतार-चढ़ाव एक चिरस्थाई समस्या बन चुकी है और यह आमतौर पर मांग-आपूर्ति के अर्थशास्त्र से जुड़ी हुई है।
  • मुख्य रूप से छोटे भूमिधारक और सीमांत किसान अपने उत्पादों के विक्रय के लिये मध्यस्थों पर निर्भर होते हैं।
  • शीघ्र खराब होने के कारण, सब्जियों की कीमतों में उतार-चढ़ाव की अधिक संभावना बनी रहती है। अतः इनके भंडारण और विपणन के लिये बेहतर आधारभूत संरचना की आवश्यकता होती है।
  • वित्तीय जोखिमों से बचने हेतु कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग एक अच्छा विकल्प हो सकता है, जिसमें किसानों को अपने उत्पादों के लिये पूर्व-सहमत मूल्य की प्राप्ति सुनिश्चित होती है।
  • केंद्र सरकार ने पिछले दिनों कृषि उत्पाद और पशुधन अनुबंध खेती एवं सेवाएँ (प्रोत्साहन एवं सहूलियत) अधिनियम, 2018 को मंजूरी दे दी।
  • इस अधिनियम में अनुबंध के अंतर्गत दोनों पक्षों में से किसानों को कमजोर पक्ष मानते हुए उनके हितों के संरक्षण पर जोर दिया गया है।
  • अधिनियम का उद्देश्य एक या अधिक उत्पाद, पशुधन और संबंधित उत्पादों की पूर्व-सहमत मात्रा की खरीद सुनिश्चित करना है।
  • हालाँकि, कुछ क्षेत्रों में कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के विभिन्न रूप मौजूद हैं, लेकिन इसके औपचारिक तंत्र की व्यापकता की कमी है।
  • सामान्यतः कपास, गन्ना. तंबाकू, चाय, कॉफी, रबर जैसी वाणिज्यिक फसलों की खेती में अनौपचारिक कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के तत्त्व दिखाई पड़ते हैं।
  • विशेषज्ञों का मानना है कि कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के माध्यम से कृषि प्रसंस्करण इकाइयों के साथ सब्जी और फल उत्पादकों का एकीकरण उत्पादकों के लिये फायदेमंद साबित हो सकता है, क्योंकि इसमें कीमतों में उतार-चढ़ाव का ख्याल रखा जाता है जिससे उत्पादन जोखिम को कम करने में मदद मिलती है
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