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डेली न्यूज़

सामाजिक न्याय

मनरेगा में फंड की कमी

  • 30 Oct 2021
  • 7 min read

प्रिलिम्स के लिये:

मनरेगा, राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय

मेन्स के लिये:

मनरेगा से संबंधित मुद्दे

चर्चा में क्यों?

केंद्र की प्रमुख ग्रामीण रोज़गार योजना (मनरेगा) वित्तीय वर्ष के आधी अवधि के दौरान ही समाप्त हो गई है। इसका अभिप्राय यह है कि जब तक राज्य अपने स्वयं के फंड/निधि का उपयोग नहीं करते तब तक मनरेगा श्रमिकों के भुगतान के साथ-साथ सामग्री की लागत प्रदान करने में देरी होगी।

  • इससे पूर्व सरकार ने विभिन्न जनसंख्या समूहों के लिये फंड के निचले स्तर को सही ढंग से प्रतिबिंबित करने हेतु इस चालू वित्तीय वर्ष (2021-22) से लागू किये गए अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य के लिये श्रेणी-वार वेतन भुगतान प्रणाली की शुरुआत की।

MGNREGA

प्रमुख बिंदु

  • मनरेगा योजना:
    • महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम, जिसे पहले राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम के रूप में जाना जाता था, को भारत में रोज़गार सृजन और सामाजिक सुरक्षा बढ़ाने के लिये वर्ष 2005 में पारित किया गया था।
    • यह योजना एक मांग-संचालित मज़दूरी रोजगार योजना है, जो ग्रामीण विकास मंत्रालय के अधीन कार्य करती है।
    • ग्रामीण क्षेत्र में एक परिवार के प्रत्येक वयस्क सदस्य जिसके पास जॉब कार्ड है, योजना के तहत नौकरी के लिये पात्र है।
    • इस योजना में वयस्क सदस्य स्वयंसेवकों को अकुशल शारीरिक कार्य के लिये एक वित्तीय वर्ष में 100 दिनों की गारंटीकृत रोज़गार प्रदान करने की परिकल्पना की गई है।
    • इसमें 100% शहरी आबादी वाले ज़िलों को छोड़कर भारत के सभी ज़िलों को शामिल किया गया है।
    • सूखे/प्राकृतिक आपदा अधिसूचित ग्रामीण क्षेत्रों में अतिरिक्त 50 दिनों के अकुशल मज़दूरी रोज़गार का भी प्रावधान है।
    • मनरेगा की धारा 3(4) के अनुसार, राज्य अपने स्वयं के फंड से अधिनियम के तहत गारंटीकृत अवधि से अधिक अतिरिक्त दिन रोज़गार प्रदान करने का प्रावधान कर सकते हैं।
  • मनरेगा से संबंधित मुद्दे:
    • कम मज़दूरी दर
      • वर्तमान में 21 प्रमुख राज्यों में से कम-से-कम 17 की मनरेगा मज़दूरी दर कृषि के लिये राज्य की न्यूनतम मज़दूरी से भी कम है। यह कमी न्यूनतम वेतन के 2-33% की सीमा में है।
      • राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (NSSO) के वर्ष 2017 केआँकड़ों से पता चलता है कि सामान्य खेतिहर मज़दूरों हेतु औसत दैनिक मज़दूरी पुरुषों के लिये 264.05 रुपए और महिलाओं के लिये 205.32 रुपए है।
        • नाममात्र की मज़दूरी या कम मज़दूरी दरों के परिणामस्वरूप मनरेगा योजनाओं में काम करने के लिये श्रमिकों में कम रुचि देखी गई है, जिससे ठेकेदारों और बिचौलियों को स्थानीय स्तर पर नियंत्रण करने का अवसर मिल जाता था।
    • अपर्याप्त वित्तपोषण:
      • धन की कमी के कारण राज्य सरकारों को मनरेगा के तहत रोज़गार की मांग को पूरा करने में मुश्किल होती है।
    • मज़दूरी के भुगतान में देरी:
      • अधिकांश राज्य मनरेगा द्वारा अनिवार्य रूप से 15 दिनों के भीतर मज़दूरी का भुगतान करने में विफल रहे हैं। साथ ही वेतन भुगतान में देरी के लिये श्रमिकों को मुआवज़ा नहीं दिया जाता है।
        • इसने योजना को आपूर्ति आधारित कार्यक्रम में बदल दिया है और बाद में श्रमिकों ने इसके तहत काम करने में कम रुचि लेना शुरू कर दिया था।
      • सर्वोच्च न्यायालय के वर्ष 2016 के एक फैसले ने मनरेगा के तहत लंबित मज़दूरी भुगतान को "राज्य द्वारा किया गया एक स्पष्ट संवैधानिक उल्लंघन" और "बेगार का एक आधुनिक रूप" बताया।
    • PRI की अप्रभावी भूमिका:
      • बहुत कम स्वायत्तता के कारण ग्राम पंचायतें इस अधिनियम को प्रभावी और कुशल तरीके से लागू करने में सक्षम नहीं हैं।
    • अधूरे कार्यों की अधिक संख्या :
      • मनरेगा के तहत कार्यों को पूरा करने में देरी हुई है और परियोजनाओं का निरीक्षण अनियमित रहा है। साथ ही मनरेगा के तहत काम की गुणवत्ता व संपत्ति निर्माण का मुद्दा भी एक प्रमुख समस्या रही है।
    • जॉब कार्ड का निर्माण:
      • फर्जी जॉब कार्ड, फर्जी नामों को शामिल करना, लापता प्रविष्टियाँ और जॉब कार्ड में प्रविष्टियाँ करने में देरी से संबंधित कई मुद्दे हैं।

आगे की राह

  • सुनिश्चित रोज़गार प्रदान करना:
    • सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिये कि मांग के बावजूद रोज़गार प्रदान किया जाए।
    • सरकार को योजना का विस्तार करने और मूल्य संवर्द्धन पर ध्यान देना चाहिये तथा सामुदायिक संसाधनों को बढ़ाना चाहिये।
  • योजना को सुदृढ़ बनाना:
    • विभिन्न सरकारी विभागों तथा कार्य के आवंटन और मापन के तंत्र के बीच बेहतर समन्वय की आवश्यकता है।
    • यह हाल के वर्षों में सबसे अच्छी कल्याणकारी योजनाओं में से एक है, इसने ग्रामीण क्षेत्र के गरीबों की मदद की है। हालाँकि सरकारी अधिकारियों को बिना काम को अवरुद्ध किये योजना को लागू करने के लिये पहल करनी चाहिये।
  • जेंडर वेज़ गैप:
    • भुगतान में कुछ विसंगतियों को भी दूर करने की आवश्यकता है। इस क्षेत्र की महिलाएँ अपने पुरुष समकक्षों की तुलना में औसतन 22.24% कम कमाती हैं।

स्रोत: द हिंदू

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