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डेली न्यूज़

जैव विविधता और पर्यावरण

डेयरी क्षेत्र और जलवायु परिवर्तन

  • 03 Aug 2021
  • 11 min read

प्रिलिम्स के लिये 

 श्वेत क्रांति, पीपुल फॉर द एथिकल ट्रीटमेंट ऑफ एनिमल्स, हरित धारा, भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण 

मेन्स के लिये 

डेयरी उद्योग का महत्त्व,  जलवायु परिवर्तन पर डेयरी क्षेत्र का प्रभाव

चर्चा में क्यों?

डेयरी उद्योग हाल के वर्षों में व्यापक रूप से वाद-प्रतिवाद का विषय रहा है, जो दुनिया भर में जलवायु परिवर्तन संकट की चिंताओं के साथ-साथ अधिक स्थायी प्रतिस्थापन का दावा करने वाले विभिन्न संयंत्र-आधारित विकल्पों की उन्नति से प्रेरित है।

प्रमुख बिंदु

परिचय:

  • श्वेत क्रांति की मदद से भारत दूध की कमी वाले देश से विश्व स्तर पर दूध का सबसे बड़ा उत्पादक देश बन गया है।
    • आनंद मॉडल (अमूल), जिसे पूरे देश में अपनाया गया है, ने दूध उत्पादन को बढ़ावा दिया है।
  • डेयरी और पशु-आधारित उत्पादों के लिये पशुओं की हार्वेस्टिंग- खाद्य सुरक्षा, गरीबी उन्मूलन और अन्य सामाजिक ज़रूरतों के लिये महत्त्वपूर्ण है।
  • हालाँकि जलवायु पर पशुओं की हार्वेस्टिंग के हानिकारक परिणाम देखे जाते हैं।
  • इसके अतिरिक्त जानवरों के खिलाफ क्रूरता करने के लिये पीपुल फॉर द एथिकल ट्रीटमेंट ऑफ एनिमल्स (पेटा) जैसे गैर-लाभकारी संगठनों द्वारा पशुपालन की काफी आलोचना की गई है।

डेयरी क्षेत्र का महत्त्व:

  • आर्थिक निर्भरता: भारत में डेयरी और पशु-आधारित उत्पादों के लिये पशुओं की हार्वेस्टिंग 150 मिलियन डेयरी किसानों के लिये आजीविका का एक प्रमुख स्रोत है।
    • राष्ट्रीय सकल घरेलू उत्पाद में डेयरी क्षेत्र का योगदान 4.2 प्रतिशत है।
    • डेयरी क्षेत्र भारत में कृषि के बाद दूसरा सबसे बड़ा रोज़गार का क्षेत्र है।
  • सामाजिक महत्त्व: डेयरी उत्पाद आवश्यक पोषक तत्त्वों का एक समृद्ध स्रोत है जो एक स्वस्थ और पौष्टिक आहार में योगदान करते हैं। 
    • विश्व स्तर पर उच्च गुणवत्ता वाले पशु स्रोत प्रोटीन की मांग बढ़ने के साथ, डेयरी क्षेत्र में डेयरी उत्पादों की आपूर्ति के माध्यम से वैश्विक खाद्य सुरक्षा तथा गरीबी को कम करने में योगदान दे रहा है।

जलवायु परिवर्तन पर डेयरी क्षेत्र का प्रभाव:

  •  GHG उत्सर्जन: भारत के ग्रीनहाउस गैस (GHG) उत्सर्जन में कृषि का योगदान लगभग 16% है जो कि डेयरी फार्मिंग के दौरान मवेशियों द्वारा उत्सर्जित किया जाता है।
    • पशु अपशिष्ट से मीथेन का उत्सर्जन, डेयरी क्षेत्र के कुल GHG उत्सर्जन का लगभग 75% योगदान देता है।
      •  हाल ही में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) ने एक एंटी-मिथेनोजेनिक फीड सप्लीमेंट 'हरित धारा' (HD) विकसित की है, जो मवेशी मीथेन उत्सर्जन को 17-20% तक कम कर सकता है तथा  इसके परिणामस्वरूप दूध का उत्पादन भी बढ़ सकता है।
    • कृषि-खाद्य प्रणालियों से उत्सर्जित तीन प्रमुख GHG, अर्थात् मीथेन (CH₄), नाइट्रस ऑक्साइड (N₂O) और कार्बन डाइऑक्साइड (CO₂) हैं
  • प्राकृतिक संसाधनों पर बढ़ता दबाव: डेयरी की इस बढ़ती मांग के साथ, मीठे पानी और मिट्टी सहित अन्य प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव बढ़ रहा है। 
    • नेस्ले और डैनोन जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर पंजाब व पड़ोसी राज्यों में जल-गहन डेयरी उद्योग को बढ़ावा देने का आरोप लगाया गया है, जिससे भूजल स्तर तेज़ी से घट रहा है। 
    • अस्थायी डेयरी फार्मिंग और चारे के उत्पादन से पारिस्थितिक रूप से महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों जैसे- आर्द्रभूमि एवं जंगलों का नुकसान हो सकता है।
    • जैव विविधता की अत्यधिक क्षति हेतु मवेशियों को खिलाने के लिये उगाई जानी वाली अत्यधिक जल गहन तथा ऊर्जा गहन फसलों को ज़िम्मेदार ठहराया गया है ।
  • बढ़ती मांग: चीन और भारत जैसे देशों में जनसंख्या वृद्धि, बढ़ती आय, शहरीकरण तथा आहार के पश्चिमीकरण के कारण बड़े पैमाने पर डेयरी उत्पादों की वैश्विक मांग में वृद्धि जारी है।

डेयरी क्षेत्र के विरुद्ध अन्य तर्क:

  • पशुओं के प्रति क्रूरता: मवेशियों के उचित संचालन के लिये दिशा-निर्देशों के बावजूद उत्पादन क्षमता को बढ़ावा देने हेतु क्रूर प्रथाएँ बेरोकटोक जारी हैं क्योंकि डेयरी और मांस की मांग लगातार बढ़ रही है। इसमें शामिल हैं:
    • कृत्रिम गर्भाधान,
    • दूध उत्पादन को बढ़ावा देने के लिये वृद्धि हार्मोन (ऑक्सीटोसिन) का व्यापक उपयोग,
    • नर बछड़ों का वध,
    • उन मवेशियों को छोड़ना जो बाँझ हैं,
    • पशुओं को उस स्थिति में बूचड़खानों और टेनरियों को बेचना जब वे दूध का उत्पादन नहीं कर सकते आदि।
  • ज़ूनोटिक रोग: पशुपालन के माध्यम से पशुओं का शोषण, प्राकृतिक आवासों का विनाश, पशुधन से जुड़े वनों की कटाई, शिकार और वन्यजीवों का व्यापार, जानवरों व मनुष्यों के बीच फैलने वाले कीटाणुओं की वजह से होने वाले ज़ूनोटिक रोगों का प्रमुख कारण है।
    • नोवल कोरोनावायरस रोग (कोविड-19) महामारी जैसी बीमारियों की लंबी सूची में नवीनतम है।
  • खाद्य अपमिश्रण: भारत में दूध और दुग्ध उत्पाद मिलावट से मुक्त नहीं हैं।
    • भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण (FSSAI) की एक हालिया रिपोर्ट में अनियमित फीड और चारे के माध्यम से अनुमेय सीमा से परे एफ्लाटॉक्सिन एम 1 और हार्मोन अवशेषों की उपस्थिति का पता चला है।
    • इससे इंसानों में जीवनशैली से जुड़ी कई तरह की बीमारियाँ होने लगी हैं।

प्रस्तावित वैकल्पिक मार्ग:

  • शाकाहार: शाकाहार जीवन जीने का एक तरीका है जो सभी प्रकार के जानवरों को शोषण से  मुक्त करने और इसे पौधे आधारित उत्पादों के साथ बदलने का प्रयास करता है।
    • विकसित देशों में दूध सहित पौधे आधारित भोजन के पारिस्थितिक और स्वास्थ्य लाभों के कारण शाकाहारी आंदोलन गति प्राप्त कर रहा है।
    • पेटा पशु-आधारित खाद्य पदार्थों को बदलने के लिये शाकाहारी विकल्पों को बढ़ावा दे रहा है।
  • शाकाहार की आलोचना: अमूल और उसके समर्थकों का तर्क है कि पेटा के इस कदम से बहुराष्ट्रीय कंपनियों के एक गलत सूचना अभियान के माध्यम से सिंथेटिक दूध एवं आनुवंशिक रूप से संशोधित बीजों को बढ़ावा मिल सकता है।
    • उन्होंने मानव उपभोग के लिये रसायनयुक्त, प्रयोगशाला-निर्मित पौधे-आधारित दूध की उपयुक्तता पर सवाल उठाया है।
    • इसके अलावा FSSAI ने अधिसूचित किया कि 'दूध' शब्द का इस्तेमाल वृक्ष आधारित डेयरी विकल्पों के लिये नहीं किया जा सकता है।

आगे की राह:

  • वैकल्पिक रोज़गार और सामाजिक वानिकी: 15 करोड़ लोगों की आजीविका दाँव पर लगी है, नीति निर्माताओं को विस्थापित लोगों हेतु वैकल्पिक रोज़गार के अवसरों की पहचान करने की आवश्यकता होगी।
    •  सामाजिक वानिकी बड़े पैमाने पर पृथ्वी पर सकारात्मक परिणामों के साथ इस गिरावट को दूर करने का एक कारगर समाधान हो सकती है।
  • सतत् डेयरी प्रथाएंँ: स्थायी डेयरी प्रथाओं को सक्रिय रूप से बढ़ाने की आवश्यकता है, जिसमें निम्नलिखित शामिल हो सकते हैं:
    • दूध की बर्बादी को तीव्रता को कम करने हेतु इस क्षेत्र में तकनीकी और कृषि की सर्वोत्तम प्रथाओं तथा ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी के लिये मौजूदा संभावनाओं की तलाश हेतु तत्काल कार्य करने की आवश्यकता है।
    • प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र के क्षरण, कृषि विस्तार और वनों की कटाई से जुड़े कारकों को लक्षित करके कार्बन सिंक (घास के मैदान और जंगल) की रक्षा करने वाली उत्पादन प्रथाओं में बदलाव को बढ़ावा देना।
    • सर्कुलर बायो-इकाॅनमी (Circular Bio-Economy) में पशुधन को बेहतर ढंग से एकीकृत कर संसाधनों की मांग को कम करना।
      • इस लक्ष्य को पोषक तत्त्वों के पुनर्चक्रण एवं पुनर्प्राप्ति तथा पशु अपशिष्ट से ऊर्जा उत्पादन के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है।  
      • कम मूल्य और कम उत्सर्जन वाले बायोमास का उपयोग करने के लिये विभिन्न मानकों पर फसलों एवं कृषि-उद्योगों के साथ पशुधन का एकीकरण करना।

स्रोत: डाउन टू अर्थ  

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