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सामाजिक न्याय

सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध पितृसत्तात्मक सोच

  • 25 Jul 2018
  • 2 min read

चर्चा में क्यों?

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि सबरीमाला मंदिर में एक निश्चित आयु समूह की महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध इस "पितृसत्तात्मक" विश्वास पर आधारित है कि समाज में एक पुरुष की प्रमुख स्थिति उसे तपस्या करने में सक्षम बनाती है, जबकि एक महिला, जो कि केवल एक पुरुष की संपत्ति है, तीर्थयात्रा से पहले 41 दिनों की तपस्या के लिये शुद्ध रहने में असमर्थ है।

प्रमुख बिंदु

  • मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अगुवाई में संवैधानिक पीठ ने कहा कि न्यायालय पितृसत्ता और दुराग्रह में फँसे रिवाजों को स्वीकार नहीं कर सकता।
  • त्रावणकोर देवास्वाम बोर्ड, जो 10 से 51 वर्ष आयु की महिलाओं के सबरीमाला मंदिर में प्रवेश के खिलाफ है, ने जवाब दिया कि हर धर्म की अवधारणा पुरुष वर्चस्व पर आधारित है।
  • त्रावणकोर देवास्वाम बोर्ड ने कहा कि धर्म के मामले में तर्क की तलाश न की जाए। इसके प्रत्युत्तर में न्यायमूर्ति चंद्रचूड ने जवाब दिया कि न्यायालय अधिकारों के प्रश्न की जाँच करने के लिये आधुनिक आचारों पर निर्भर नहीं है।
  • न्यायालय ने कहा कि आधुनिक विचार बदलते रहते हैं। 1950 के बाद (जिस वर्ष भारतीय संविधान अस्तित्व में आया) सबकुछ संवैधानिक सिद्धांतों, आचारों के अनुरूप होना चाहिये।
  • ध्यातव्य है कि सर्वोच्च न्यायालय वर्ष 2006 में एक गैर-लाभकारी संगठन ‘इंडियन यंग लॉयर्स एसोसिएशन’ द्वारा दायर जनहित याचिका पर सुनवाई कर रहा है, जिसमें सबरीमाला मंदिर में सभी महिलाओं और लड़कियों के प्रवेश की मांग की गई है। इस मामले की सुनवाई मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पाँच सदस्यीय खंडपीठ कर रही है।
  • विदित है कि मंदिर परिसर में मासिक धर्म की आयु वाली महिलाओं को प्रवेश की अनुमति नहीं दी जाती।
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