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एडिटोरियल

  • 26 Mar, 2021
  • 8 min read
जैव विविधता और पर्यावरण

भारतीय जलवायु राजनीति

इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में जलवायु परिवर्तन को सीमित करने के लिये किये जा रहे हैं प्रयासों और उससे संबंधित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ:

वैश्विक जलवायु परिवर्तन वार्ताओं के लिये वर्ष 2021 एक महत्वपूर्ण वर्ष है क्योंकि इस वर्ष जलवायु परिवर्तन पर अंतर्राष्ट्रीय पैनल (Intergovernmental Panel on Climate Change- IPCC) अपनी रिपोर्ट जारी करेगा और यूनाइटेड किंगडम (यूके) में आयोजित जलवायु सम्मेलन में पक्षकारों की उत्सर्जन सीमाओं पर राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं को अद्यतन किये जाने की अपेक्षा है। इसके अतिरिक्त जो बाइडेन के नेतृत्व में संयुक्त राज्य अमेरिका ने पेरिस जलवायु समझौते में फिर से शामिल होने की प्रतिबद्धता व्यक्त की है।

इसके अलावा हाल ही में भारत ने वर्ष 2050 तक नेट ज़ीरो उत्सर्जन हासिल करने की प्रतिबद्धता व्यक्त की है। यह प्रतिबद्धता जलवायु नेतृत्व को स्वीकार करते हुए भारत को कूटनीतिक श्रेय प्रदान करेगी। हालाँकि ये राजनयिक लाभ घरेलू विकासात्मक उद्देश्यों को प्रभावित कर सकते हैं क्योंकि नीति और प्रौद्योगिकी में बड़े बदलाव के बिना भारत को कम उत्सर्जन करते हुए अधिक विकास के विकल्प की आवश्यकता है। इसलिये भारत को अपने रणनीतिक कार्बन उत्सर्जन को सीमित रखते हुए अधिक विकास पर ध्यान केंद्रित करना होगा।

वैश्विक जलवायु राजनीति में भारत की चुनौतियाँ 

  • लक्ष्य प्राप्त न होने की आशंका: अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी द्वारा किया गया विश्लेषण परिवर्तन के इस पैमाने को दर्शाता है कि भारत को अपने कार्बन उत्सर्जन को सीमित करने के लिये सामान्य नीतियों को स्थायी विकास से स्थानांतरित करने हेतु तत्काल बड़े बदलाव की आवश्यकता है।
    • इसके अलावा इस बड़े बदलाव के बाद भी नेट ज़ीरो उत्सर्जन की स्थिति वर्ष 2065 तक प्राप्त की जा सकेगी, ऐसे में वर्ष 2050 का लक्ष्य निर्धारण एक चुनौती है।
    • साथ ही वर्तमान लक्ष्य तात्कालिक कार्रवाई के बजाय भविष्य के वादों और वातावरण से ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के लिये अनिश्चित प्रौद्योगिकियों पर भरोसा करता है।
  • साइलो-आधारित जलवायु निर्णय: भारत की जलवायु शासन संरचना साइलो-आधारित निर्णयों के लिये डिज़ाइन की गई है, जबकि जलवायु संकट के लिये पार-अनुभागीय (Cross-Sectoral) सहयोग की आवश्यकता होती है।
    • उदाहरण के लिये विद्युत के उपयोग से संबंधित नीति को शहरी नियोजन नीति, परिवहन प्रणाली और भवन डिज़ाइन पर निर्णय के संतुलन के माध्यम से प्रबंधित किया जा सकता है। हालाँकि भारत के नीति निर्धारण में अभी भी पार-अनुभागीय सहयोग का अभाव है।
  • विकास के लिये जीवाश्म-ईंधन की आवश्यकता: यदि भारत नेट ज़ीरो उत्सर्जन लक्ष्य को प्राप्त करना चाहता है तो उसे उत्सर्जन को तात्कालिक रूप से सीमित करना होगा लेकिन इस प्रकार की कार्यवाही से उसकी अब तक की विकास की स्थिति भी प्रभावित हो सकती है।
    • हालाँकि वर्तमान में भारत का ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन बढ़ रहा है और क्योंकि जटिल ऊर्जा तथा आर्थिक प्रणालियों को चालू होने में कुछ और समय लग सकता है।
    • इसके अलावा वर्तमान में उद्योग से होने वाले उत्सर्जन को सीमित करना एक दीर्घकालिक संभावना है क्योंकि भारत में प्रौद्योगिकियों की स्थिति शैशवावस्था में है और नई तकनीक एवं दृष्टिकोण के लिये अंतर्राष्ट्रीय सहयोग की आवश्यकता है।

आगे की राह 

  • क्षेत्रगत संक्रमणीय योजना (Sectoral Transition Plans): वर्तमान में एक व्यापक महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य के बजाय, अर्थव्यवस्था के प्रमुख क्षेत्रों के लिये क्षेत्रीय परिवर्तन योजनाओं से संबंधित भविष्य की प्रतिबद्धता को पहचानने और नीति निर्माण की आवश्यकता है।
    • क्षेत्रगत बदलावों पर ध्यान दिए जाने की संभावना, व्यापक और विकसित होती अर्थव्यवस्था के शून्य-उत्सर्जन लक्ष्य को प्राप्त करने में निवेश पैटर्न को निजी क्षेत्र की ओर स्थानांतरित करने की आवश्यकता पर ज़ोर देती है।
    • उदाहरण के लिये विद्युत क्षेत्र के संक्रमण में तेज़ी लाने के लिये वितरण कंपनियों में सुधार करने, कोयला उपभोग को सीमित करते हुए नवीकरणीय ऊर्जा निवेश बढ़ाने की आवश्यकता है।
  • जलवायु शासन को सुदृढ़ बनाना: भारत को जलवायु शासन के लिये अपने घरेलू संस्थानों के सृजन और पहले से स्थापित संस्थानों को मज़बूत करने की आवश्यकता है। इसके लिये विकास ज़रूरतों और कम कार्बन अवसरों के बीच संबंधों की पहचान करना होगा जिसके लिये एक जलवायु कानून उपयोगी हो सकता है।
  • पुन: पुष्टि करने वाले CBDR: इस आगामी जलवायु परिवर्तन वार्ताओं में भारत को "सामान्य लेकिन विभेदित ज़िम्मेदारी" (Common But Differentiated Responsibility”- CBDR) के दीर्घकाल के सिद्धांत की पुनः पुष्टि करने की आवश्यकता है जिससे विकसित देशों को किसी भी प्रतिबद्धता का विरोध करने के लिये विशेष कारणों की आवश्यकता होगी जो भारत जैसे विकासशील देशों में विकास के लिये उपयोग में लाई जा रही ऊर्जा उपयोग की नीति के प्रभाव को सीमित कर रही है ।

निष्कर्ष

भारतीय नेतृत्व की राह विशिष्ट निकट-अवधि की कार्रवाइयों, संस्थागत मज़बूती और मध्य तथा  दीर्घकालिक लक्ष्यों के संयोजन पर आधारित होनी चाहिये। शुद्ध शून्य कार्बन उत्सर्जन के दीर्घकालिक लक्ष्यों को भविष्य के सीमित कार्बन निर्धारण के संक्रमण के हिस्से के रूप में पूरा करने के लिये ( समयोपरि कार्य करने के तरीकों से सीखते हुये) कार्बन उत्सर्जन के निर्धारण की प्रतिबद्धता को अधिक स्पष्ट एवं मज़बूती से लागू किया जाना चाहिये।

प्रश्न: भारत को अपनी जलवायु नीतियों के लिये उन उपायों को परिभाषित करने की आवश्यकता है जो एक साथ राजनयिक, विकासात्मक और जलवायु हितों को पूरा करते हों। टिप्पणी कीजिये।


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