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एडिटोरियल

  • 16 Apr, 2024
  • 33 min read
कृषि

भारत की खाद्य प्रणालियों का उन्नयन

यह एडिटोरियल 15/04/2024 को ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित “Food for Reform” लेख पर आधारित है। इसमें भविष्य की सरकारों द्वारा कृषि उत्पादकता में वृद्धि करने, प्रसंस्करण एवं खुदरा बिक्री संचालनों का विस्तार करने और नवीन प्रौद्योगिकी अंगीकरण को बढ़ावा देने को प्राथमिकता दिये जाने के महत्त्व पर चर्चा की गई है।

प्रिलिम्स के लिये:

न्यूनतम समर्थन मूल्य, e-NAM, किसान उत्पादक संगठन, राष्ट्रीय बीज निगम, बीटी कपास, पौधा किस्म और कृषक अधिकार संरक्षण अधिनियम, बौद्धिक संपदा अधिकार, मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना, प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना (PMFBY), सूक्ष्म सिंचाई निधि (MIF), राष्ट्रीय सतत् कृषि मिशन (NMSA), नैनो यूरिया, विकासशील भारत@2047, एशियाई विकास बैंक

मेन्स के लिये:

आर्थिक रूप से व्यवहार्य कृषि: महत्त्व, चुनौतियाँ और आगे की राह।

भारत विश्व की सबसे तेज़ी से विकास करती अर्थव्यवस्थाओं में से एक है। देश की लगभग आधी आबादी का प्राथमिक व्यवसाय कृषि है। पिछले कुछ दशकों में विनिर्माण एवं सेवा क्षेत्रों ने अर्थव्यवस्था की वृद्धि में तेज़ी से योगदान दिया है, जबकि कृषि क्षेत्र का योगदान कम हुआ है। भारत में अभूतपूर्व कृषि संकट लगभग एक दशक से देश भर के किसानों को प्रभावित कर रहा है।

कृषि और संबद्ध क्षेत्र भारतीय अर्थव्यवस्था में केंद्रीय स्थिति रखते हैं। इसे देखते हुए और एक संवहनीय भविष्य को ध्यान में रखते हुए, भारत सरकार ने अपनी G20 अध्यक्षता के दौरान प्राकृतिक, पुनर्योजी एवं जैविक प्रणालियों सहित प्रौद्योगिकी-सक्षम संवहनीय खेती को बढ़ावा देने का उपयुक्त दृष्टिकोण प्रकट किया। सरकार कम उत्पादकता, उच्च इनपुट लागत, बाज़ार में उतार-चढ़ाव, जलवायु परिवर्तन, ऋणग्रस्तता और संस्थागत समर्थन की कमी जैसी किसानों की विभिन्न समस्याओं के समाधान के लिये कई उपाय कर रही है।

इस गति को बनाये रखने के लिये निवर्तमान सरकार ने विभिन्न मंत्रालयों से योजनाएँ तैयार करने के लिये कहा है जिनकी घोषणा वह अपने तीसरे कार्यकाल के पहले 100 दिनों में करना चाहती है। मंत्रालयों द्वारा विभिन्न विशेषज्ञों से संपर्क किया जा रहा है ताकि उन्हें ऐसा उपयुक्त नीति ढाँचा तैयार करने में मदद मिल सके जो ‘विकसित भारत@2047’ के दृष्टिकोण के अनुरूप हो।

India Agricultural Productivity

भारत में उपयुक्त कृषि-खाद्य प्रणाली सुनिश्चित करने की राह से संबंधित विभिन्न चुनौतियाँ:

  • जल संसाधनों का अत्यधिक दोहन:
    • जल के उपयोग की सीमांत लागत लगभग शून्य होने के कारण किसानों ने कम वर्षा वाले क्षेत्रों में जल-गहन फसलों की खेती शुरू कर दी है और जल-आधारित अभ्यासों तथा बे-मौसमी खेती को अपना लिया है। हालाँकि कृषि क्षेत्र का आधा भाग वर्षा-सिंचित है तथा सिंचाई साधनों तक पहुँच नहीं रखता और कृषि क्षेत्र देश में उपयोग किये जाने वाले कुल जल में लगभग 90% की हिस्सेदारी रखता है।
      • पंजाब, हरियाणा एवं राजस्थान के पारंपरिक रूप से मूंगफली एवं कपास उत्पादक क्षेत्रों में धान की एकल कृषि या ‘मोनोकल्चर’ का उभार, महाराष्ट्र एवं उत्तर प्रदेश में गन्ने का विस्तार, राजस्थान में चरम ग्रीष्मकाल में मूंगफली की खेती और ऐसे कई मामले इसकी पुष्टि करते हैं।
        • इस प्रकार, देश में विभिन्न कृषि-जलवायु क्षेत्रों की कृषि-जलवायु उपयुक्तता का पूर्ण उल्लंघन करते हुए फसलों का एक नया भूगोल ही उभर गया है।
  • प्रकृति की उपेक्षा और फसल विविधता की हानि:
    • वास्तविक फसल पैटर्न और विभिन्न फसलों के लिये आवंटित रकबा कृषि-जलवायु दृष्टिकोण से उपयुक्त नहीं है। यह विचलन मुख्य रूप से नीतिगत समर्थन और विभिन्न फसलों के लिये प्रौद्योगिकी की प्रगति में असमानताओं के कारण उत्पन्न हुआ है।
    • हरित क्रांति प्रौद्योगिकी और कुछ फसलों के पक्ष में प्रौद्योगिकीय एवं नीतिगत पूर्वाग्रह ने न केवल फसल पैटर्न में विकृतियाँ पैदा की हैं, बल्कि इसके परिणामस्वरूप कुछ फसलों के तहत कृषि क्षेत्र की एकाग्रता में वृद्धि हुई है और फसल विविधता में भारी गिरावट आई है।
      • 1970 के दशक की शुरुआत में पंजाब में शुद्ध बुआई क्षेत्र के 10.8% और हरियाणा में 8% पर धान की खेती की जा रही थी। वर्ष 2020 तक पंजाब में यह हिस्सेदारी बढ़कर 73.3% और हरियाणा में 39.5% हो गई है। इसी प्रकार, हरित क्रांति की शुरुआत के बाद गन्ने की खेती का क्षेत्र महाराष्ट्र में चार गुना और उत्तर प्रदेश में दोगुना हो गया।
  • कम दक्षता और मूल्य प्रेरित विकास:
    • कृषि क्षेत्र में भारत की वृद्धि हालाँकि अधिकांश उत्पादों और राज्यों में प्रभावशाली रही है, लेकिन यह अभी भी क्षमता से कम बनी हुई है।
      • हमारा उत्पादकता स्तर प्रमुख कृषि देशों की तुलना में कम है। इस क्षेत्र में आधुनिकीकरण भी धीमी गति से हो रहा है।
    • प्रौद्योगिकी, उत्पादन के तरीके और फसल कटाई के बाद के मूल्य संवर्द्धन में अपेक्षित बदलाव बड़े पैमाने पर परिलक्षित नहीं हो रहे हैं।
      • खेतों में उर्वरक का एकसमान वितरण (broadcasting of fertilizer) और बाढ़ सिंचाई (flood irrigation) जैसे इनपुट के व्यापक रूप से उपयोग को शामिल करने वाली कृषि पद्धतियों में कोई महत्त्वपूर्ण सुधार नहीं दिख रहा है।
  • असंतुलन और क्षेत्रीय असमानताएँ:
    • गुज़रते समय के साथ मांग और घरेलू उत्पादन के बीच असंतुलन बढ़ता जा रहा है। भारत चावल, गेहूँ एवं चीनी का बड़ा अधिशेष जमा कर रहा है जो सरकारी खजाने के लिये भारी लागत उत्पन्न करता है।
    • इसका अंतर्निहित कारण केंद्र द्वारा उत्पादन मूल्य में वृद्धि करना एवं चावल के लिये बोनस का भुगतान करना और कुछ राज्यों द्वारा कृषि लागत और मूल्य आयोग (CACP) की सिफ़ारिशों और इस क्रम में मांग एवं आपूर्ति या बाज़ार की स्थिति की उपेक्षा कर गन्ने के लिये उचित एवं लाभकारी मूल्य (FRP) में वृद्धि करना है। 
      • दूसरी ओर, भारत में खाद्य तेल का घाटा वर्ष दर वर्ष बढ़ता जा रहा है। देश वनस्पति तेलों की अपनी घरेलू आवश्यकता का 55% आयात से पूरा करता है।
      • इस प्रकार, घरेलू बाजार में घरेलू तिलहन उत्पादन में 127% वृद्धि को अवशोषित करने की गुंजाइश है।
  • व्यर्थ निवेश:
    • प्रमुख, मध्यम और सूक्ष्म सिंचाई में निवेश कृषि में सार्वजनिक निवेश का एक बड़ा हिस्सा है। इन निवेशों का उद्देश्य सतही जल सिंचाई के तहत कृषि क्षेत्र का विस्तार करना था।
      • देश ने वर्ष 2007-08 के बाद से प्रत्येक वर्ष पूंजीगत व्यय के रूप में 30,000 करोड़ रुपए और नहरों के संचालन एवं रखरखाव के रूप में भी एक बड़ी राशि खर्च की, लेकिन नहर सिंचाई के तहत कृषि क्षेत्र में या तो कोई विस्तार नहीं हो रहा या इनमें गिरावट ही आ रही है।
      • व्यय के एक बड़े हिस्से का उपयोग करने के बाद भी कई प्रमुख सिंचाई परियोजनाएँ छोटी-छोटी बाधाओं, जैसे छोटे खंडों में वन मंज़ूरी, जलग्रहण क्षेत्र विकास, वितरिकाओं एवं फील्ड चैनलों के निर्माण आदि के कारण अवरुद्ध बनी हुई हैं। कुछ प्रमुख सिंचाई कार्यों के पूरा होने में देरी का एक अन्य कारण अंतर-राज्यीय और अंतरा-राज्यीय विवाद भी है।
  • प्रौद्योगिकी सृजन और प्रसार:
    • कृषि संबंधी समस्याएँ अधिक जटिल होती जा रही हैं और संबंधित अनुसंधान अधिक पूंजी गहन होता जा रहा है। जलवायु परिवर्तन, ग्रीनहाउस उत्सर्जन में कृषि की हिस्सेदारी और संवहनीयता संबंधी चिंताएँ अनुसंधान एवं विकास (R&D) प्रणाली द्वारा संबोधित की जाने वाली चुनौतियों को और बढ़ाती हैं।
    • विकसित विश्व में अनुसंधान के प्रसार की गुंजाइश कम हो रही है और बौद्धिक संपदा अधिकार (IPR) के मुद्दे जटिल होते जा रहे हैं। ये बाह्य दुनिया और निजी क्षेत्र से प्रौद्योगिकी के हस्तांतरण को महंगा बना रहे हैं।
    • यद्यपि कृषि अनुसंधान और उच्च शिक्षा काफी हद तक राज्य कृषि विश्वविद्यालयों (SAUs) की ज़िम्मेदारी है, ICAR द्वारा कृषि क्षेत्र से संबंधित किसी भी चुनौती एवं मुद्दे को संबोधित किया जाना आवश्यक है। जनमत द्वारा व्यापक रूप से कृषि क्षेत्र में किसी भी प्रतिकूल विकास के लिये ICAR को ज़िम्मेदार माना जाता है। परिणामस्वरूप, समय के साथ ICAR का पोर्टफोलियो SAUs से अधिक बड़ा होता जा रहा है।
  • छोटे भूमि धारकों की व्यवहार्यता:
    • भारत और अधिकांश एशियाई देशों में कृषि पर छोटी जोत का प्रभुत्व है। वर्ष 2015-16 की कृषि जनगणना के अनुसार, 68% कृषि जोतें 1 हेक्टेयर से कम भूमि क्षेत्र पर संचालित होती हैं। इसके अलावा, 85% कृषक परिवार 2 हेक्टेयर से कम भूमि पर खेती करते हैं।
    • भूमि जोत का यह छोटा आकार सामान्य कृषि पद्धतियों और उत्पादों से पर्याप्त आय उत्पन्न नहीं करता है। छोटे धारकों को भी इनपुट और आउटपुट बाज़ारों में (जहाँ विभिन्न प्रकार की संस्थागत मदद की आवश्यकता होती है) आकारिक मितव्ययिता या ‘स्केल इकोनॉमी’ की समस्या का भी सामना करना पड़ता है।
  • पोषण, खाद्य सुरक्षा और स्वास्थ्य:
    • भारत के पोषण संकेतक और बाल स्वास्थ्य संकेतक निम्न हैं। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO) के अनुसार, भूखे या अल्पपोषित लोगों की सबसे बड़ी संख्या भारत में पाई जाती है।
    • वैश्विक भुखमरी सूचकांक (Global Hunger Index) में भारत की स्थिति वर्ष दर वर्ष निम्न बनी हुई है, जबकि वह सबसे बड़ा चावल निर्यातक देश बन गया है जो अपने उत्पादन के लगभग 15% की विश्व बाज़ार में बिक्री करता है। भारत ‘प्रचुर उत्पादन के बीच भुखमरी’ (hunger in the midst of plenty) की विरोधाभासी स्थिति का प्रतिनिधित्व करता है।
  • आउटपुट और कार्यबल में संरचनात्मक परिवर्तनों के बीच असंगति:
    • जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था विकसित होगी, राष्ट्रीय सकल मूल्य वर्द्धित (GVA)—जो राष्ट्रीय आय और रोज़गार की एक माप है—में कृषि की हिस्सेदारी में गिरावट का अनुभव होगा। अर्थव्यवस्था की वृद्धि जितनी अधिक होगी, अर्थव्यवस्था की संरचना में परिवर्तन भी उतनी ही तेज़ी से होगा।
    • भारत में वर्ष 1950-51 और 1970-71 के बीच, वर्ष 2011-12 के मूल्यों पर राष्ट्रीय आय में कृषि की हिस्सेदारी 61.7% से घटकर 49.6% रह गई, जबकि रोज़गार में इस क्षेत्र की हिस्सेदारी 69% से अधिक पर अटकी रही। इसके अगले दो दशकों में रोज़गार में क्षेत्र की हिस्सेदारी घटकर 59% और आय में हिस्सेदारी घटकर 35.1% रह गई।
    • वर्ष 1990-91 के बाद अर्थव्यवस्था की विकास दर में तेज़ी आई जिसके परिणामस्वरूप कृषि की हिस्सेदारी में भी तेज़ी से गिरावट आई। हालाँकि, कार्यबल में कृषि की हिस्सेदारी में गिरावट राष्ट्रीय आय में क्षेत्र की हिस्सेदारी में गिरावट के अनुरूप नहीं रही। वर्ष 2010-11 में राष्ट्रीय आय और रोज़गार में कृषि की हिस्सेदारी क्रमशः 18.3% और 54.6% थी।
  • किसानों की निम्न आय:
    • राष्ट्रीय आय और रोज़गार में कृषि की विषम हिस्सेदारी कृषि और गैर-कृषि क्षेत्र में प्रति श्रमिक आय में असमानता को दर्शाती है। मैक्रो स्तर पर, गैर-कृषि क्षेत्र में प्रति श्रमिक आय एक औसत कृषि श्रमिक (जिसमें खेतिहर मज़दूर और कृषक शामिल हैं) की आय का 3.75 गुना है।
      • देश में प्रति किसान निम्न आय के प्रमुख कारणों में भूमि का छोटा एवं सिकुड़ता आकार, अतिरिक्त कार्यबल, निम्न उत्पादकता और बदतर कार्यशील बाज़ार शामिल हैं।

कृषि उत्पादकता में सुधार के लिये आवश्यक कदम:

कृषि-खाद्य क्षेत्र के लिये कुछ सुझाव दिये गए हैं। ये सुझाव जलवायु परिवर्तन के परिदृश्य में खाद्य सुरक्षा पर एशियाई विकास बैंक (ADB) द्वारा आयोजित चार दिवसीय फोरम के दौरान विशेषज्ञों के साथ संपन्न संवाद पर आधारित हैं ।

  • कुल कारक उत्पादकता बढ़ाना:
    • कृषि को न केवल खाद्य, फाइबर और यहाँ तक कि जैव ईंधन का उत्पादन करना होगा, बल्कि इसे कम संसाधनों के साथ ऐसा करना होगा। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2047 तक भारत की जनसंख्या लगभग 1.6 बिलियन हो जाएगी।
      • इस परिदृश्य में देश पर अधिक पेट भरने का बोझ होगा। आय में धीरे-धीरे वृद्धि के साथ लोगों द्वारा अधिक और बेहतर खाद्य की माँग बढ़ेगी।
    • भूमि, जल, श्रम और उर्वरक एवं कृषि मशीनरी जैसे इनपुट के उपयोग में दक्षता महत्त्वपूर्ण होने जा रही है। दूसरे शब्दों में, हमें अपनी कुल कारक उत्पादकता (total factor productivity) बढ़ाने का लक्ष्य रखना होगा।
      • कृषि संबंधी अनुसंधान एवं विकास, नवाचार और विस्तार में अधिक संसाधनों के निवेश से यह किया जा सकता है।
  • जलवायु अनुकूल कृषि का सृजन:
    • ग्लोबल वार्मिंग से प्रेरित चरम मौसमी घटनाओं से उत्पादन प्रणाली के लिये खतरा उत्पन्न हो रहा है। वास्तविक समाधान जलवायु-प्रत्यास्थी या स्मार्ट कृषि के सृजन के लिये संसाधनों का निवेश करने में निहित है।
      • इसका अभिप्राय है कि उन बीजों में अधिक निवेश करना होगा जो गर्मी और बाढ़ प्रतिरोधी हैं। जल संसाधनों में भी अधिक निवेश करना होगा, न केवल उनकी आपूर्ति बढ़ाने के लिये बल्कि यह सुनिश्चित करने के लिये भी कि जल का अधिक विवेकपूर्ण तरीके से उपयोग किया जा रहा है।
      • ‘प्रति बूँद अधिक फसल’ को महज नारा नहीं बल्कि वास्तविकता में साकार करना होगा। परिशुद्ध कृषि के अंग के रूप में ड्रिप, स्प्रिंकलर सिंचाई और संरक्षित खेती को आज की तुलना में कहीं अधिक बड़े पैमाने पर अपनाना होगा।
  • कुशल मूल्य शृंखलाओं का निर्माण:
    • वर्ष 2047 तक भारत की दो-तिहाई से अधिक आबादी शहरी क्षेत्रों में वास कर रही होगी, जो वर्तमान के लगभग 36% से अधिक होगी। उच्च उत्पादकता वाली नौकरियों की तलाश में ग्रामीण से शहरी क्षेत्रों की ओर पलायन एक स्वाभाविक प्रक्रिया है जिस्की अनदेखी नहीं की जा सकती और न ही किया जाना चाहिये।
      • इसका तात्पर्य यह है कि अधिकांश खाद्य को भीतरी इलाकों से शहरी क्षेत्रों की ओर ले जाना होगा।
      • इसके लिये परिवहन से लेकर भंडारण और प्रसंस्करण से लेकर संगठित खुदरा बिक्री तक बड़े पैमाने पर लॉजिस्टिक क्रांति की आवश्यकता होगी।
      • इससे मुख्य रूप से निजी क्षेत्र द्वारा बड़े पैमाने पर निवेश के अवसर खुलेंगे। नई सरकार को ‘भारत@2047’ के लिये उपयुक्त कानूनों में बदलाव कर इस रूपांतरण को सुविधाजनक बनाना होगा।
  • किसान उत्पादक संगठनों (FPOs) या सहकारी समितियों को बढ़ावा देना:
    • खाद्य प्रणाली के इस रूपांतरण में, जबकि बीज उद्योग से लेकर कृषि मशीनरी तक और प्रसंस्करण से लेकर खुदरा बिक्री तक सभी खिलाड़ी आगे बढ़ रहे हैं, खेती अभी भी छोटी से छोटी जोतों में बँटती जा रही है।
    • चुनौती यह सुनिश्चित करना है कि इन छोटे भूमि धारकों को किसान उत्पादक संगठनों या सहकारी समितियों के माध्यम से एक साथ लाया जाए (जैसा कि अमूल द्वारा दूध क्षेत्र में किया गया था), ताकि उस वृहत पैमाने का सृजन किया जा सके जिसकी मांग प्रसंस्करणकर्ताओं, संगठित खुदरा विक्रेताओं और निर्यातकों द्वारा की जा रही है। 
      • समावेशी भारत के लिए यह संस्थागत नवाचार अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।

Agricultural Productivity

  • साधारण खाद्य सुरक्षा से पोषण सुरक्षा की ओर आगे बढ़ना:
    • उपभोग के मामले में, साधारण खाद्य सुरक्षा से आगे बढ़ते हुए पोषण सुरक्षा की ओर जाने की ज़रूरत है। कुपोषण की स्थिति, विशेष रूप से 5 वर्ष से कम आयु के बच्चों के लिये, चिंताजनक है और वर्तमान में 35% बच्चे स्टंटिंग के शिकार हैं।
      • स्थिति में सुधार के लिये, स्वच्छता, महिला शिक्षा और टीकाकरण के अलावा हमारे आहार को सूक्ष्म पोषक तत्वों से संपन्न या ‘फोर्टिफाई’ करने की भी आवश्यकता है।
    • सरकार ने जिंक युक्त चावल और गेहूँ के साथ शुरुआत की है, लेकिन बीटा कैरोटीन (विटामिन A से भरपूर) से संपन्न गोल्डन चावल से अभी कतरा रही है, जबकि ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड, कनाडा एवं अमेरिका ने इसे सुरक्षित घोषित किया है और यहाँ तक कि बांग्लादेश और फिलीपींस ने भी इसके परीक्षण की अनुमति दे दी है।
      • चावल हमारा प्रमुख फसल है और आज जो बच्चे कुपोषित हैं उनमें से अधिकांश चावल का भरपूर सेवन करते हैं। इसलिये इसे उच्च पोषक तत्वों के साथ संपन्न करने की ज़रूरत है।
  • सार्वजनिक-निजी भागीदारी की आवश्यकता:
    • सार्वजनिक-निजी भागीदारी (Public Private Partnership) आगे बढ़ने का उपयुक्त रास्ता है। निजी क्षेत्र कुशल मूल्य शृंखलाओं का निर्माण कर सकता है और ऐसे बीज पैदा कर सकता है जो जलवायु-प्रत्यास्थी एवं अधिक पौष्टिक हों।
    • सरकार को एक अनुकूल नीतिगत ढाँचा प्रदान करना होगा। जब सरकार उद्योग के लिये PLI जैसी योजनाएँ तैयार कर सकती है तो ऐसा भविष्य की खाद्य प्रणालियों के रूपांतरण के लिये भी किया जाना चाहिये।
  • विकास से कुशल-विकास की ओर आगे बढ़ना:
    • इसके लिये कृषि प्रौद्योगिकी के उन्नयन, कृषि पद्धतियों में आधुनिक कौशल के अनुप्रयोग, खेती में नए नवाचार और उर्वरक, जल एवं अन्य इनपुट के उपयोग में बर्बादी को कम करने की आवश्यकता है।
      • जल एवं उर्वरक जैसे इनपुट के प्रचुर एवं अंधाधुंध उपयोग को हतोत्साहित करने और उनके इष्टतम उपयोग को बढ़ावा देने के लिये इनपुट मूल्य निर्धारण नीति में भी बदलाव की आवश्यकता होगी।
    • डिजिटल प्रौद्योगिकी किसानों तक प्रौद्योगिकी एवं ज्ञान के आसान प्रसार के माध्यम से दक्षता में सुधार लाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।
  • अधिशेष प्रबंधन:
    • खाद्य का घरेलू उपयोग घरेलू उत्पादन की तुलना में निम्न दर से बढ़ा है। 1980 के दशक की शुरुआत में भारत प्रति व्यक्ति प्रति दिन 1 किलोग्राम से कुछ अधिक खाद्य का उत्पादन एवं उपभोग करता था। हाल के वर्षों में उत्पादन धीरे-धीरे बढ़कर 1.73 किलोग्राम हो गया है, जबकि घरेलू उपभोग बढ़कर 1.59 किलोग्राम हो गया है। इससे पता चलता है कि पिछले 35 वर्षों से खाद्य अधिशेष लगातार बढ़ रहा है।
    • इस परिदृश्य में खाद्य नीति में कमी प्रबंधन से अधिशेष प्रबंधन की ओर पूर्ण बदलाव की आवश्यकता है। इससे यह भी पता चलता है कि भारत में अधिकांश अल्पपोषण खाद्य की अनुपलब्धता के कारण नहीं है, बल्कि यह खाद्य के कम ग्रहण के कारण है। भारत को अधिशेष खाद्य उपज के निपटान के लिये विदेशी बाज़ार की तलाश करनी होगी।

खाद्य प्रणालियों और कृषि उत्पादकता में सुधार में प्रौद्योगिकी का योगदान:

  • उत्पादकता बढ़ाना:
    • परिशुद्ध खेती: रोपण, सिंचाई और उर्वरक डालने की प्रक्रियाओं को इष्टतम करने के लिये जीपीएस, सेंसर एवं ड्रोन का उपयोग, जिससे अधिक पैदावार होती है और संसाधन की बर्बादी कम होती है।
    • मशीनीकरण: ट्रैक्टर, हार्वेस्टर और प्लांटर्स जैसी मशीनरी का उपयोग, जो शारीरिक श्रम को कम करता है और कृषि कार्यों में दक्षता को बढ़ाता है।
    • जैव प्रौद्योगिकी: कीटों, बीमारियों और पर्यावरणीय तनावों के प्रति बेहतर प्रतिरोध रखने वाले आनुवंशिक रूप से संशोधित फसलों का विकास, जो पैदावार एवं गुणवत्ता में सुधार लाता है।
  • संसाधन प्रबंधन में सुधार:
    • जल प्रबंधन: ड्रिप एवं स्प्रिंकलर सिंचाई जैसी कुशल सिंचाई प्रणालियों के लिये प्रौद्योगिकी का प्रयोग जो जल का संरक्षण करता है और फसल पैदावार में सुधार लाता है।
    • मृदा स्वास्थ्य की निगरानी: मृदा स्वास्थ्य और पोषक तत्वों के स्तर का आकलन करने के लिये सेंसर एवं इमेजिंग तकनीक का उपयोग करना, जो लक्षित उर्वरकीकरण और मृदा संरक्षण अभ्यासों को सक्षम करता है।
    • मौसम का पूर्वानुमान: कृषि गतिविधियों की बेहतर योजना और प्रबंधन के लिये रियल-टाइम मौसम डेटा तक पहुँच, जो मौसम संबंधी आपदाओं के जोखिम को कम करता है।
  • बाज़ार पहुँच को सुगम बनाना:
    • डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म: किसानों द्वारा बाज़ारों तक पहुँचने, कीमतों पर सौदेबाज़ी करने और सीधे उपभोक्ताओं को उपज बेचने के लिये ऑनलाइन मार्केटप्लेस एवं मोबाइल एप्लीकेशन (जैसे e-NAM portal) का उपयोग करना, जहाँ बिचौलियों की समाप्ति के साथ मुनाफे की वृद्धि होती है।
    • आपूर्ति शृंखला प्रबंधन: खेत से बाज़ार तक उपज की ट्रैकिंग एवं निगरानी के लिये प्रौद्योगिकी का उपयोग, जिससे गुणवत्ता नियंत्रण सुनिश्चित होता है और फसल की बर्बादी को कम किया जा सकता है।
  • संवहनीयता को बढ़ावा देना:
    • छोटे किसानों को सशक्त बनाना: प्रौद्योगिकी में सूचना, बाज़ार और वित्तीय सेवाओं तक पहुँच प्रदान करने के रूप में छोटे किसानों को सशक्त बनाने की क्षमता है।
      • मोबाइल एप्लीकेशन और डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म मूल्यवान कृषि संबंधी सलाह, बाज़ार मूल्य और मौसम पूर्वानुमान प्रदान करते हैं, जिससे किसानों को सूचित निर्णय लेने और उनकी आजीविका में सुधार करने में मदद मिलती है।
    • नवीकरणीय ऊर्जा: खेतों को बिजली देने के लिये सौर पैनलों और जैव-ऊर्जा स्रोतों का उपयोग करना, जो जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता कम करता है और कार्बन उत्सर्जन का शमन करता है।
    • डेटा-आधारित निर्णय लेना: फसल प्रबंधन पर सूचित निर्णय लेने के लिये सेंसर, उपग्रहों एवं ड्रोन से प्राप्त डेटा का विश्लेषण करना, जिससे अधिक संवहनीय कृषि पद्धतियों को बढ़ावा मिलता है।
      • उदाहरण के लिये, पूर्वानुमानकारी विश्लेषण किसानों को कीटों के प्रकोप का अनुमान लगाने या इष्टतम रोपण समय की पहचान करने में मदद कर सकता है, सक्रिय प्रबंधन रणनीतियों को सक्षम कर सकता है और जोखिमों को कम कर सकता है।

निष्कर्ष:

किसानों की आय में उल्लेखनीय एवं स्थिर वृद्धि के लिये और कृषि के रूपांतरण के लिये कृषि क्षेत्र के प्रति संपूर्ण दृष्टिकोण में आमूल-चूल बदलाव की आवश्यकता है। आधुनिक एवं जीवंत कृषि के लिये एक सक्षम वातावरण के निर्माण के लिये पुराने विनियमनों में परिवर्तन और इस क्षेत्र का उदारीकरण आवश्यक है। विज्ञान प्रेरित प्रौद्योगिकी में प्रगति, कटाई से पहले और बाद के चरणों में निजी क्षेत्र की बढ़ी हुई भूमिका, उदारीकृत उत्पादन बाज़ार, सक्रिय भूमि पट्टा बाज़ार और दक्षता पर बल कृषि को 21वीं सदी की चुनौतियों से निपटने तथा नए भारत के लक्ष्य में योगदान करने में सक्षम बनाएगा। 

अभ्यास प्रश्न: भारत में कृषि उत्पादकता बढ़ाने में प्रौद्योगिकी और संवहनीय प्रक्रियाओं की भूमिका पर चर्चा कीजिये। इन्हें समावेशी विकास के लिये कैसे एकीकृत किया जा सकता है?

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न. निम्नलिखित युग्मों पर विचार कीजिये: (2014) 


 

कार्यक्रम/परियोजना 

मंत्रालय

1. 

सूखा - प्रवण क्षेत्र कार्यक्रम  

कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय

2. 

मरुस्थल विकास कार्यक्रम 

पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय 

3. 

वर्षापूरित क्षेत्रों हेतु राष्ट्रीय जलसंभर  विकास परियोजना 

ग्रामीण विकास मंत्रालय 

उपर्युक्त युग्मों में से कौन-सा/से सही सुमेलित है/हैं?

(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 3
(c) 1, 2 और 3
(d) इनमें से कोई नहीं

उत्तर: (d) 


प्रश्न. भारत में निम्नलिखित में से किन्हें कृषि में सार्वजनिक निवेश माना जा सकता है? (2020)

  1. सभी फसलों के कृषि उत्पाद के लिये न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित करना
  2.  प्राथमिक कृषि साख समितियों का कम्प्यूटरीकरण
  3.  सामाजिक पूंजी विकास
  4.  कृषकों को नि:शुल्क बिजली की आपूर्ति
  5.  बैंकिंग प्रणाली द्वारा कृषि ऋण की माफी
  6.  सरकारों द्वारा शीतागार सुविधाओं को स्थापित करना

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग करके सही उत्तर चुनिये:

(a) केवल 1, 2 और 5
(b) केवल 1, 3, और 4 और 5
(c) केवल 2, 3 और 6
(d) 1, 2, 3, 4, 5 और 6

उत्तर:C


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