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नीतिशास्त्र

उपयोगितावाद

  • 28 Aug 2020
  • 10 min read

नीतिशास्त्र के अध्ययन की दृष्टि से अनेक सिद्धांत महत्त्वपूर्ण है। वस्तुत: नीतिशास्त्र में अनेक सिद्धांतों का अध्ययन किया जाता है।

  • ऐसा ही एक सिद्धांत है ‘‘उपयोगितावाद’’ (Utilitarianism)। नीतिशास्त्र के दृष्टिकोण से उपयोगितावाद का सिद्धांत विशेष महत्त्व रखता है।
  • वस्तुत: उपयोगितावाद नीतिशास्त्र का एक आधुनिक सिद्धांत है तथा एक ‘‘परिणाम सापेक्षवादी’’ विचारधारा है।
  • हालाँकि उपयोगितावाद का विकास काफी पहले हुआ। यथा- ह्यूम उदारता को सबसे बड़ा गुण मानते थे तथा व्यक्ति विशेष के व्यवहार में दूसरों के सुख में अभिवृद्धि को ही उदारता का मापदंड समझते थे।
  • 18वीं शताब्दी में शेफ्टसबरी व बटलर इसके प्रमुख समर्थक रहे हैं, परंतु उपयोगितावाद का संबंध प्रमुखत: 19वीं शताब्दी के ‘‘बेंथम’’ एवं ‘‘मिल’’ से रहा है।

क्या है उपयोगितावाद?

  • जेरमी बेंथम एवं ‘जेम्स मिल’ मनोवैज्ञानिक सुखवाद तथा नैतिक सुखवाद के समर्थक रहे हैं। वस्तुत: उपयोगितावाद का मूल सुखवाद (Hedonism) को ही माना गया है।
  • उपयोगितावादी मानते हैं कि वही कर्म शुभ है जो सिर्फ व्यक्ति विशेष के हित में न होकर व्यापक सामाजिक हित के पक्ष में होता है।
  • यदि यह संभव नहीं तो वह कार्य शुभ है जो अधिकतम व्यक्तियों को अधिकतम सुख प्रदान करने में सहायक है।
  • उपयोगितावाद में शुभ की मूल परिभाषा किसी वस्तु या कार्य की उपयोगिता से तय होती है।
  • ‘उपयोगी’ शब्द पर अधिक ज़ोर देने के कारण ही इस सिद्धांत या विचारधारा का नाम उपयोगितावाद पड़ा है। यहाँ उपयोगी होने का आशय उस कार्य से है जिससे अधिकतम लोगों को सुख प्राप्त हो।
  • जो समाज के लिये उपयोगी है वह शुभ है और शुभ वही है जो सुख प्रदान करता है।
  • इसीलिये अधिकांश उपयोगितावादी सुखवादी भी हैं। परंतु यदि कोई यह माने कि ‘सुख’ के अलावा भी ऐसी कोई अन्य वस्तु है जो समाज के लिये उपयोगी है तो उपयोगितावाद सुखवाद से अलग भी हो सकता है। होस्टिंग्स रैश्डैल का उपयोगितावाद इसी प्रकार का है।
  • बेंथम के अनुसार सुख का तात्पर्य विभिन्न कार्यों से प्राप्त सुखों का योग नहीं है; यह अनेक कार्यों का ऐसा सारांश है जिसमें कभी-कभी ऐसे सुखों का परित्याग भी करना पड़ता है, जिसके परिणाम पीड़ादायक होते हैं ।
  • उपयोगितावाद के सुखवाद के सिद्धांत में बेंथम ने सुखों के केवल मात्रात्मक भेद को माना है , वहीं मिल ने मात्रात्मक के साथ-साथ गुणात्मक भेद भी माना है।
  • सुख की मात्रा के निर्धारण के लिये बेंथम ने ‘सुखवादी मापदंड’ अथवा नैतिक मापदंड की रचना की जिसके सात घटक निर्धारित किये गए- तीव्रता, अवधि, निश्चितता, निकटता, उत्पादकता, शुद्धता एवं व्यापकता।
  • उपयोगितावाद का सिद्धांत कार्य के परिणाम से संबंधित है न कि उस कार्य को करने की मनोवृत्ति से।
  • किसी कार्य के शुभ या अशुभ होने का निर्णय उसके परिणामों या सामाजिक प्रभावों पर आधारित होता है।
  • बेंथम का मानना है कि कोई कर्म या नियम अधिकतम व्यक्तियों के लिये अधिकतम उपयोगिता रखता है या नहीं इसका एकमात्र पैमाना सुख है।
  • शेष सभी वांछनीय वस्तुएँ सुख के साधन के रूप में ही शुभ हो सकती हैं जैसे- ज्ञान, चरित्र इत्यादि।

उपयोगितावाद के प्रकार

  • सुखवादी उपयोगितावाद: इसके समर्थकों का मानना है कि उपयोगिता का आधार सुख है। अर्थात् ‘सुखवादी उपयोगितावाद’ के मूल में ‘सुख’ है।
  • आदर्श मूलक उपयोगितवाद: इसमें उपयोगिता की धारणा केवल सुख तक सीमित न होकर व्यापक है। अर्थात् इसमें सुख तो शामिल है ही, परंतु सुख के अलावा अन्य आधार भी हो सकते हैं जैसे- ज्ञान, सत्य, सद्गुण तथा चारित्रिक श्रेष्ठता को भी सुख की तरह स्वत: शुभ माना जा सकता है।
  • कर्म संबंधी उपयोगितावाद: इसमें कार्य के संदर्भ में तय किया जाता है कि वह समाज के लिये उपयोगी है या नहीं। इसे पुन: दो उप प्रकारों में बाँटा गया है- 1. सीमित कर्म संबंधी उपयोगितावाद, 2. व्यापक कर्म संबंधी उपयोगितावाद।
  • नियम संबंधी उपयोगितावाद: इसमें विशेष कृत्यों का नहीं बल्कि नियमों की उपयोगिता का निश्चय किया जाता है, अर्थात् कोई नियम समाज के लिये उपयोगी है या नहीं।
  • निकृष्ट उपयोगितावाद: इसमें सुखों में गुणात्मक भेद नहीं माना जाता, अर्थात् केवल मात्रात्मक भेद माना जाता है; जैसा कि बेंथम ने माना था।
  • उत्कृष्ट उपयोगितावाद: इसमें सुखों में गुणात्मक भेद को भी स्वीकार किया जाता है; जैसा कि मिल ने माना था।

उपयोगितावाद के सिद्धांत का महत्त्व

  • बेंथम का उपयोगितावाद का सिद्धांत विधि-वेत्ताओं से ऐसे कानून या नियम बनाने की बात करता है जो ‘अधिकतम व्यक्तियों को अधिकतम सुख प्रदान करें, वस्तुत: यह कल्याणकारी राज्य की स्थापना में सहायक है।’
  • उपयोगितावाद का सिद्धांत सार्वभौमिक सिद्धांत है। व्यक्ति प्रत्येक कार्य सुख की भावना से प्रेरित होकर ही करता है, फिर चाहे एक शहीद का जीवन अर्पण करना हो या एक सन्यासी का सन्यास धारण करना।
  • यह वस्तुगत तथ्यों पर आधारित है। स्वयंसिद्ध नैतिक नियमों में विश्वास न कर अनुभव पर आधरित है।
  • अर्थात यह पारभौतिक नियमों को नकार देता है, जिससे इसे वैज्ञानिक एवं आनुभविक धरातल प्राप्त होता है।
  • क्योंकि यह परिणामों पर आधारित है इसलिये अधिक तर्कसंगत प्रतीत होता है।

आलोचना

  • यह परिणामों पर ध्यान केंद्रित करता है, केवल परिणामों के आधार पर किसी कार्य को पूर्णत: सही या गलत नहीं ठहराया जा सकता।
  • यह सुख की बात पर केंद्रित है। वस्तुत: कोई कार्य किसी व्यक्ति को सुख प्रदान करने वाला हो सकता है, वहीं अन्य व्यक्ति के लिये वह कार्य पीड़ादायी भी हो सकता है; ऐसा संभव है।
  • इसमें ‘सुख’ का एक आशय ‘पीड़ा से बचाव’ भी है। वस्तुत: प्रत्येक पीड़ा बुरी नहीं होती, वह दीर्घकालीन समय में सुख प्रदान करने वाली हो सकती है जैसे- कहा जाता है कि ‘गलतियों से ही इंसान सीखता है’, असफलता ही सर्वश्रेष्ठ शिक्षक है।
  • मानव जीवन में सुख की आकांक्षा ही एकमात्र उद्देश्य नहीं होता, अधिकांशतः: व्यक्ति कर्त्तव्य की भावना से प्रेरित होकर कार्य करते हैं। ‘गीता’ में भी कहा गया है कि ‘कर्म कर, फल की इच्छा मत कर’ अर्थात् कर्म करना व्यक्ति का कर्त्तव्य है।
  • आध्यात्मिक सुख के स्थान पर सापेक्षिक भौतिकवादी सुख पर अधिक ध्यान केंद्रित करने के कारण अराजकता, स्वार्थपरकता जैसे भावों को बढ़ावा मिल सकता है।
  • रॉक्स जैसे उदारवादी चिंतकों का मानना है कि उपयोगितवाद ‘अधिकतम व्यक्तियों के अधिकतम सुख’ की आकांक्षा रखता है, किंतु इस प्रयास में समुदाय के कुछ व्यक्ति छूट जाते हैं, जो उनके लिये अन्यायपूर्ण है।

निष्कर्षत: उपयोगितावाद का सिद्धांत जीवन को अधिकतम लोगों द्वारा यथासंभव ‘पीड़ामुक्त’ बनाने पर केंद्रित है। सामान्यत: यह एक प्रशंसा योग्य लक्ष्य की भाँति लगता है। परंतु यदि सभी इस जीवन में ‘अधिकतम सुख की प्राप्ति के लिये ही जीवित रहेंगे तो जीवन का व्यापक दृष्टिकोण संकीर्ण/धुंधला हो जाएगा।

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