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उत्तराखंड

लैंगिक समानता की कानूनी जीत

  • 28 Feb 2024
  • 3 min read

चर्चा में क्यों?

उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि गर्भावस्था के आधार पर महिलाओं को रोज़गार देने से इंकार नहीं किया जा सकता है। इसने गर्भवती महिलाओं को सरकारी पदों के लिये पात्र होने से रोकने वाले नियम को पलट दिया।

मुख्य बिंदु:

  • यह ऐतिहासिक फैसला मिशा उपाध्याय के मामले से प्रेरित था, जिन्हें गर्भावस्था के कारण नर्सिंग अधिकारी का पद देने से इंकार कर दिया गया था।
  • उच्च न्यायालय ने 12 सप्ताह या उससे अधिक की गर्भवती महिलाओं को रोज़गार के लिये "अस्थायी रूप से अयोग्य" बताने वाले राज्य सरकार के विनियमन को अमान्य कर दिया।
    • इसमें फिटनेस प्रमाण-पत्र की आवश्यकता के साथ-साथ प्रसव के छह सप्ताह बाद एक पंजीकृत चिकित्सक द्वारा मेडिकल जाँच को भी अनिवार्य किया गया है।
  • न्यायालय ने राज्य की कार्रवाई को "महिलाओं के खिलाफ अत्यधिक भेदभावपूर्ण" माना तथा संविधान के अनुच्छेद 14, 16 और 21 के उल्लंघन पर ज़ोर दिया।
    • अनुच्छेद 14 में कहा गया है कि भारत के क्षेत्र के भीतर, राज्य किसी भी व्यक्ति को धर्म, नस्ल, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर कानून के समक्ष समानता या कानूनों के तहत समान सुरक्षा से वंचित नहीं कर सकता है।
    • अनुच्छेद 16 में कहा गया है कि राज्य के तहत रोज़गार के मामलों में सभी नागरिकों के लिये अवसर की समानता होगी।
    • अनुच्छेद 21 कहता है कि किसी भी व्यक्ति को विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अतिरिक्त उसके जीवन और वैयक्तिक स्वतंत्रता के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है।
  • यह ऐसे कार्यस्थलों को बढ़ावा देने के महत्त्व को रेखांकित करता है जो महिलाओं के प्रजनन विकल्पों का सम्मान करते हैं और उन्हें समायोजित करते हैं, जो सतत् विकास लक्ष्य 5 सहित लैंगिक समानता की दिशा में व्यापक वैश्विक प्रयासों के साथ संरेखित होते हैं।

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