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वैचारिक विरोध से ट्रोलिंग तक

  • 02 Mar 2019
  • 5 min read

देश आजकल एक नई तरह की हिंसा देख रहा है, कहने को तो ये हिंसा सोशल मीडिया पर है यानी कि ये सिर्फ शाब्दिक हिंसा है लेकिन सच पूछा जाए तो इसका असर शारीरिक हिंसा से कम नहीं है। सोशल मीडिया पर अश्लील कमेंट तथा किसी की निजी जिंदगी पर भद्दी टिप्पणी करना अब आम चलन सा हो गया है।

क्या है ट्रोल?

  • स्कैंडेनेविया की लोक-कथाओं में एक ऐसे बदशक्ल और भयानक जीव का जिक्र आता है, जिसकी वज़ह से राहगीर अपनी यात्रा पूरी नहीं कर पाते थे। इस विचित्र जीव का नाम ‘ट्रोल’ था।
  • इंटरनेट की दुनिया में ट्रोल का मतलब उन लोगों से होता है, जो किसी भी मुद्दे पर चल रही चर्चा में कूदते हैं और आक्रामक तथा अनर्गल बातों से विषय को भटका देते हैं। अगर ये नहीं तो फिर इंटरनेट पर दूसरों को बेवजह ऐसे लोक-कथाओं के राहगीरों की तरह फेसबुक या ट्विटर के यात्रियों का सफर भी ट्रोल की वजह से अधूरा रह जाता है, क्योंकि उनकी बात जिस दिशा में जानी थी वहाँ न जाकर पूरी तरह भटक जाती है।
  • अंग्रेजी में ट्रोल शब्द संज्ञा और क्रिया दोनों रूपों में इस्तेमाल किया जाता है, लेकिन व्याकरण से परे सोशल मीडिया इस्तेमाल करने वालों के लिये ट्रोल का सीधा मतलब सिरदर्द और अपमान है।

ट्रोलिंग की मानसिकता क्या होती है?

  • आखिर ट्रोल कौन लोग होते हैं और वे क्यों अपना सारा कामकाज छोड़कर औरों के पीछे लग जाते हैं? पूरी दुनिया में इस सवाल के मनोवैज्ञानिक और समाजशास्त्रीय पहलुओं पर बात हो रही है।
  • मनोवैज्ञानिकों की मानें तो जो मानसिकता बिना बात चलती ट्रेन पर पत्थर फेंकने वालों की होती है या पुराने जमाने में ब्लैंक-कॉल करके लोगों को परेशान करने वालों की होती थी, लगभग वही मनोवृत्ति एक ट्रोल की भी होती है। कई मनोवैज्ञानिक इस प्रवृति को आइडेंटिटी क्राइसिस से जोड़कर देखते हैं। पहचान के संकट से जूझ रहे लोग अक्सर ये रास्ता अपनाते हैं ताकि उन्हें समाज का अटेंशन मिल सके।

ट्रोल के प्रकार

  • लेकिन मामला सिर्फ यही नहीं है। एक्सपर्ट्स ने ट्रोल्स की अलग-अलग कैटेगरी बना रखी हैं, हो सकता है कि कोई आदमी सोशल मीडिया पर बेवज़ह आपके पीछे पड़ जाए, वो बेहद आक्रामक भाषा में ऐसी बातें करने लगे जिसका आपके मुद्दे से कोई लेना-देना ना हो। लेकिन ज़रूरी नहीं है कि ऐसा करने वाला आदमी ट्रोल ही हो, वो खालिस मूर्ख भी हो सकता है, जिसे विशेषज्ञों की भाषा में एक्सीडेंटल ट्रोल कहा जाता है।
  • विशेषज्ञ इस बात पर लगभग एकमत हैं कि ट्रोलिंग तभी मानी जाएगी जब इसके पीछे सोची-समझी रणनीति हो।
  • इसका मतलब ये है कि कुछ कंपनियाँ, राजनीतिक दल और सरकारें सोची-समझी रणनीति के तहत ट्रोल्स की फौज खड़ी कर देती हैं ताकि उनके खिलाफ सोशल मीडिया में कोई निगेटिव राय न बन पाए।

चुनौतियाँ

  • सोशल मीडिया पर बहुत-कुछ चलता रहता है, ज़्यादा ध्यान मत दीजिये। ये एक आदर्श वाक्य है, जो ट्रोलिंग से परेशान हरेक आदमी दूसरे से ज़रूर कहता है, लेकिन क्या मौजूदा दौर में सोशल मीडिया को नजरअंदाज किया जा सकता है?
  • जब सोशल मीडिया का असर सरकार और समाज पर इतना बड़ा हो तो कोई इसे नज़रअंदाज कैसे करे? लेकिन अब सवाल ये है कि इसके बुरे असर से बचने का रास्ता क्या है जवाब बेहद मुश्किल है।
  • कम्युनिकेशन के इस नए मीडियम ने आम आदमी के हाथों में एक अलग किस्म की ताकत दी है, लेकिन साथ ही एक ऐसा माहौल भी पैदा कर दिया है जहाँ सबकुछ शक के दायरे में है। कोई व्यक्ति और कोई खबर आज विश्वसनीय नहीं है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिये ये बेहद हताशा भरी और खतरनाक स्थिति है।
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