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पब्लिक फोरम : राफेल का सच (Truth of Rafale)

  • 12 Sep 2018
  • 20 min read

संदर्भ

राफेल डील पिछले कुछ महीनों से राजनीतिक कारणों से चर्चा में बनी हुई है। इस विवाद पर कॉन्ग्रेस और मोदी सरकार आमने-सामने हैं। भारत और फ्राँस सरकार के बीच हुई इस डील को मुद्दा बनाते हुए कॉन्ग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने केंद्र सरकार की इस डील को एक बड़ी राफेल लूट (Rafale Robbery) करार दिया है। वहीं, वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कॉन्ग्रेस के आरोपों को निराधार करार देते हुए राहुल गांधी से 15 सवाल पूछे हैं। जेटली के सवाल पूछने के बाद कॉन्ग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने संयुक्त संसदीय समिति (JPC) से राफेल सौदे की जाँच कराने की मांग की है। वित्त मंत्री के अनुसार, राहुल गांधी ने राफेल डील के संबंध में अलग-अलग भाषणों में सात अलग-अलग कीमतों का जिक्र किया है। 520 करोड़ रुपए से लेकर 700 करोड़ तक चार-पाँच अलग-अलग दाम बताए हैं।

पृष्ठभूमि 

  • वायुसेना को अपनी सैन्य क्षमता बढ़ाने के लिये कम से कम 42 लडा़कू स्क्वाड्रन विमानों की ज़रूरत थी, लेकिन उसकी वास्तविक क्षमता घटकर महज 34 स्क्वाड्रन रह गई। 
  • इसलिये वायुसेना की मांग पर 126 लड़ाकू विमान खरीदने का सबसे पहले प्रस्ताव अटल बिहारी वाजपेयी की एनडीए सरकार ने रखा था। इस प्रस्ताव को कॉन्ग्रेस सरकार द्वारा आगे बढ़ाया गया। 
  • रक्षा खरीद परिषद, जिसके मुखिया तत्कालीन रक्षा मंत्री ए.के. एंटनी थे, ने 126 एयरक्राफ्ट की खरीद को अगस्त 2007 में मंज़ूरी दी थी। यहीं से इसमें बोली लगने की प्रक्रिया शुरू हुई। 
  • इसके बाद आखिरकार 126 विमानों की खरीद का आरएफपी जारी किया गया। जाहिर तौर पर यह राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा एक अहम मुद्दा था जिसे जिसे लंबे समय तक अनदेखा किया गया।

राजनीतिक विवाद क्या है? 

इस डील में विवाद का मुद्दा यह है कि किस भारतीय सरकार ने मीडियम मल्टी-रोल कॉम्बैट एयरक्राफ्ट (MMRCA) के लिये सस्ता सौदा (deal) किया है, कॉन्ग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार या बीजेपी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने?

  • कॉन्ग्रेस का आरोप है कि प्रधानमंत्री द्वारा विमानों की संख्या 126 से घटाकर 36 कर दी गई है। 
  • हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (HAL) जिसके पास रक्षा उपकरण बनाने का अनुभव है, को हटा दिया गया और रिलायंस को ऑफसेट पार्टनर के रूप में पेश किया गया जिसके पास इस क्षेत्र में कोई अनुभव नहीं है।
  • सौदे के पहले सुरक्षा मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति (CCS) का अनुमोदन नहीं लिया गया। रक्षा खरीद प्रक्रिया के अनुसार, 3000 करोड़ रुपए से ऊपर के सभी सौदों का सीसीएस द्वारा अनुमोदन कराना अनिवार्य है।
  • कॉन्ग्रेस का दावा है कि 2008 के भारत-फ़्रेंच गोपनीयता समझौते में खरीद की कीमत शामिल नहीं है। समझौते में यह भी उल्लेख नहीं किया गया है कि कौन सी जानकारी वर्गीकृत की जानी चाहिये।
  • कॉन्ग्रेस का आरोप है कि इस डील से अनिल अंबानी समूह को फायदा होगा जिसे ऑफसेट अनुबंध को निष्पादित करने के लिये दासॉल्ट कंपनी द्वारा चुना गया था। 
  • 9 मार्च, 2018 को फ्राँस के राष्ट्रपति इमैनुअल मैक्रोन ने एक इंटरव्यू में कहा था कि भारत और फ्राँस में  जब कोई संवेदनशील सौदा होता है  तो हम व्यावसायिक कारणों से सभी विवरण प्रकट नहीं कर सकते।
  • मोदी सरकार ने यूपीए की तुलना में इसे सस्ता और सुरक्षित सौदा करार दिया है। रक्षा मंत्रालय और भारतीय वायुसेना द्वारा तैयार सरकारी दस्तावेज़ का हवाला देते हुए हालिया रिपोर्टों में यह भी दावा किया गया है कि मोदी सरकार ने यूपीए की तुलना में प्रत्येक जेट पर 59 करोड़ रुपए बचाए।
  • लेकिन अगर यह बात वास्तव में सही थी  तो सरकार को विपक्ष और संसद के साथ इसे साझा करने से कौन-सी परिस्थिति रोक रही है?
  • विपक्ष सवाल उठा रहा है कि अगर सरकार ने हज़ारों करोड़ रुपए बचा लिये हैं तो उसे आँकड़े सार्वजनिक करने में क्या परेशानी है? 
  • कॉन्ग्रेस के नेताओं का कहना है कि यूपीए 126 विमानों के लिये 54,000 करोड़ रुपए दे रही थी, जबकि मोदी सरकार सिर्फ 36 विमानों के लिये 58,000 करोड़ दे रही है। 
  • कॉन्ग्रेस का आरोप है कि एक प्लेन की कीमत 1555 करोड़ रुपए है, जबकि  कॉन्ग्रेस सिर्फ 428 करोड़ रुपए में खरीद कर रही थी।

क्या था समझौता और क्यों चुना गया राफेल को?

  • यह डील उस मीडियम मल्टी-रोल कॉम्बेट एयरक्राफ्ट (MMRCA) कार्यक्रम का हिस्सा है, जिसे रक्षा मंत्रालय की ओर से इंडियन एयरफोर्स (IAF) के लाइट कॉम्बेट एयरक्राफ्ट और सुखोई के बीच मौजूद अंतर को खत्म करने के मकसद से शुरू किया गया था।
  • MMRCA के कम्पीटीशन में अमेरिका के बोइंग एफ/ए-18ई/एफ सुपर हॉरनेट, फ्राँस का डसॉल्ट राफेल, ब्रिटेन का यूरोफाइटर, अमेरिका का लॉकहीड मार्टिन एफ-16 फाल्कन, रूस का मिखोयान मिग-35 और स्वीडन के साब जैस 39 ग्रिपेन जैसे एयरक्राफ्ट शामिल थे। 
  • 6 फाइटर जेट्स के बीच राफेल को इसलिये चुना गया क्योंकि राफेल की कीमत बाकी जेट्स की तुलना में काफी कम थी। इसके अलावा इसका रख-रखाव भी अधिक किफायती था।
  • 2014 में जब नरेंद्र मोदी सरकार बनी तो उसने इस दिशा में फिर से प्रयास शुरू किये। प्रधानमंत्री की फ्राँस यात्रा के दौरान 2015 में भारत और फ्राँस के बीच इस विमान की खरीद को लेकर समझौता किया गया। 
  • इस समझौते में भारत ने जल्द-से-जल्द 36 राफेल विमान फ्लाइ-अवे यानी उड़ान के लिये तैयार विमान हासिल करने की बात कही। 
  • समझौते के अनुसार, दोनों देश विमानों की आपूर्ति की शर्तों के लिये एक अंतर-सरकारी समझौते पर सहमत हुए।
  • समझौते के अनुसार, विमानों की आपूर्ति भारतीय वायुसेना की ज़रूरतों के मुताबिक उसके द्वारा तय समयसीमा के भीतर होनी थी और विमान के साथ जुड़े तमाम सिस्टम और हथियारों की आपूर्ति भी वायुसेना द्वारा तय मानकों के अनुरूप होनी है। 
  • इसमें कहा गया है कि लंबे समय तक विमानों के रख-रखाव की ज़िम्मेदारी फ्राँस की होगी। सुरक्षा मामलों की कैबिनेट से मंज़ूरी मिलने के बाद दोनों देशों के बीच 2016 में आईजीए हुआ। 
  • समझौते पर हस्ताक्षर होने के करीब 18 महीने के भीतर विमानों की आपूर्ति शुरू करने की बात कही गई है, यानी 18 महीने के बाद भारत में फ्राँस से पहला राफेल लड़ाकू विमान भेजा जाएगा।

यूपीए बनाम एनडीए : सौदा किसका बेहतर?

स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि यूपीए सरकार के समय इस डील पर कोई समझौता नहीं हुआ,  इसलिये यह कहना मुश्किल है कि किस सरकार ने बेहतर सौदा किया है। तथ्य यह है कि यूपीए सरकार द्वारा सौदे में काफी देरी हुई थी और बाद में कई कारणों से यह रुक गया जिसके मुख्य कारण हैं-

  1. प्रौद्योगिकी हस्तांतरण' पर सर्वसम्मति न होना।
  2. फ्राँसीसी जेट निर्माता की भारत में हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (HAL) को 108 विमानों के उत्पादन के गुणवत्ता नियंत्रण की ज़िम्मेदारी देने की अनिच्छा।
  3. डसॉल्ट ने भारत में 108 विमानों की एसेंबलिंग के लिये तीन करोड़ मानव घंटों को पर्याप्त बताया, जबकि एचएएल ने इसका दोगुना वक्त चाहा था, जिससे विमान की लागत बढ़ गई।
  4. 2011 की रिपोर्टों में बताया गया है कि प्रति विमान डेसॉल्ट द्वारा तय किया मूल्य 740 करोड़ रुपए था, जबकि भारत उन्हें कम-से-कम 20 प्रतिशत सस्ती दर पर हासिल करना चाहता था।
  5. आखिरकार, फ्राँस और भारत दोनों ही जगह चुनाव हुए और सरकारें बदलने से इस डील को लगभग 15 साल लंबे इंतज़ार के बाद अंतिम चरण में लाने का प्रयास किया गया।
  • नरेंद्र मोदी की अगुआई में एनडीए सरकार बनने के बाद तय किया गया कि विमान खरीद के मामले में सरकारों के बीच समझौता हो।
  • सरकार ने भारत में टीओटी के तहत विमानों का निर्माण किये जाने की बजाय पूरी तरह से तैयार 36 विमान खरीदने का निर्णय लिया।

राफेल डील में दोनों सरकारों के बीच भारी अंतर क्यों है? 

  • दोनों सौदे में कीमत का भारी अंतर इसलिये है क्योंकि जहाँ यूपीए ने डसॉल्ट एवं एचएलए के साथ सम्मिलित रूप से 126 घरेलु विमानों के उत्पादन एवं 18 पूर्ण निर्यात विमानों का सौदा तय किया था।
  • वहीँ एनडीए सरकार ने 36 विमानों के उड़ान भरने के लिये तैयार विमानों का सौदा तय किया है। जिनमें तकनीक व अन्य क्षमताएँ पूर्व में निर्यात किये जाने वाले विमानों से काफी बेहतर और अत्याधुनिक है।
  • सरकार का दावा है कि इन विमानों में पहले मंगवाए जाने वाले विमानों की तुलना में न केवल एयर-टू-एयर, एयर-टू-ग्राउंड विजुअल रेंज मिसाइलों को पनाह देने वाला शस्त्र-गृह है बल्कि बेहद ऊँचाई वाले हवाई क्षेत्रों के लिये आधुनिक रडार क्षमताएँ भी होंगी जो केवल भारत के पास होंगी अन्य देशों के पास नहीं।
  • इसके साथ ही सभी 36 विमानों के रसद संबंधी सहयोग के लिये सात वर्ष तक प्रदर्शन हेतु अनुबंध तैयार किया है। पिछले अनुबंध में यह अवधि केवल 5 वर्ष थी वह भी केवल 18 विमानों के लिये। 
  • एनडीए द्वारा संपन्न इस सौदे में डसॉल्ट ने न्यूनतम 75 प्रतिशत फ्लीट ओपेराब्लिटी की गारंटी मुहैय्या करवाई है।
  • हालाँकि यूपीए सरकार द्वारा प्रस्तावित MMRCA सौदा जिसे भाजपा ने 36 राफेल विमानों की खरीद करते हुए अपने मुकाम पर पहुँचाया, के बीच सूक्ष्म स्तर पर तुलना करना संभव नही है। इसका कारण इन दोनों सौदे की प्रकृति, प्रदेयता एवं सेवाओं से संबंधित है।

राफेल डील : महत्त्वपूर्ण तथ्य

  • राफेल फ्रेंच ट्विन-इंजन मल्टी-रोल फाइटर जेट है जो ज़मीन और समुद्री हमलों, टोही, उच्च सटीक हमलों और परमाणु हमले की रोकथाम सहित लघु एवं लंबी दूरी के मिशनों की एक विस्तृत श्रृंखला को पूरा करने में सक्षम है।
  • राफेल जेट को विश्व स्तर पर सबसे शक्तिशाली मुकाबला करने में सक्षम जेट माना जाता है।
  • ये विमान फ्राँसीसी वायुसेना और नौसेना के लिये विकसित किये गए थे।
  • राफेल को 2004 में फ्रेंच नौसेना और 2006 में फ्रेंच वायुसेना में शामिल किया गया।
  • यह फ्राँसीसी कंपनी डसॉल्ट एविएशन द्वारा निर्मित है।
  • यह एक मल्टीरोल फाइटर है जो ट्विन इंजन, टू सीटर, कैनर्ड विंग एयरक्राफ्ट है, इसकी अधिकतम गति 2000 किमी/घंटा है।
  • यह फ्रेंच स्नेका (snecma) एम 88 टर्बोफैन जेट इंजन द्वारा संचालित है।
  • यह 9500 किलोग्राम तक वज़न के हथियारों को उठाने में सक्षम है।
  • इसे 400 मीटर से अधिक रनवे की आवश्यकता नहीं होती।
  • राफेल की 145 किमी की स्कैनिंग रेंज है।
  • इसका रडार एक साथ दो से अधिक लक्ष्यों को साधने में सक्षम है।
  • पहला ओमनी-रोल राफेल फाइटर जेट 2019 में भारत आएगा, जबकि सभी 36 फाइटर जेट भारत को अप्रैल 2022 तक सौंप दिये जाएंगे।
  • भारत ने 2017 में 226 मीडियम-मल्टी रोल कॉम्बैट एयरक्राफ्ट के खरीद की प्रक्रिया शुरू की।
  • अप्रैल 2015 में 36 राफेल एयरक्राफ्ट की खरीद से संबंधित इंडिया-फ्रेंच संयुक्त वक्तव्य जारी किया गया।
  • यूपीए सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा का हवाला देकर इस सौदे को एक दशक से भी अधिक समय तक रोके रखा।
  • सरकार के अनुसार, यह डील यूपीए सरकार की तुलना में 20 प्रतिशत तक सस्ती है।
  • राफेल डील का मुद्दा संसद के मानसून सत्र में भी उठाया गया।
  • भारत ने 36 राफेल की खरीद के लिये फ्रेंच सरकार के साथ एक समझौते पर 23 सितंबर, 2016 को हस्ताक्षर किये।
  • सरकार का कहना है कि राफेल को लेकर कॉन्ग्रेस द्वारा उठाए गए सवाल पूरी तरह से मिथ्या पर आधारित है।

क्या इस सौदे में भारत अधिक कीमत चुका रहा है?

यह पूरे विवाद में सबसे सरल और सबसे जटिल दोनों सवाल हैं। सबसे पहले हमें इस बात पर विचार करना चाहिये कि क्या हमें इन विमानों की वास्तव में ज़रूरत है। वास्तव में ज़रूरत के हिसाब से देखा जाय तो 36 विमान बेहद कम हैं। जहाँ तक इनकी कीमत का सवाल है तो निश्चित रूप से इस खरीद प्रक्रिया को निर्धारित मापदंडों के अनुसार किया गया होगा। 

  • सरकार ने इस सौदे में आगे बढ़ने से पहले सोच-विचार किया होगा, विशेषज्ञों की राय ली होगी तथा उनके द्वारा इस पूरी प्रक्रिया में आगे बढ़ने की सलाह दी गई होगी और सुरक्षा क्षमता पर भी विचार किया गया होगा।
  • 2016 में हस्ताक्षरित समझौते के अनुसार, भारत 36 राफेल जेटों के लिये 58,000 करोड़ रुपए का भुगतान करेगा। अर्थात् प्रति जेट की लागत 1,600 करोड़ रुपए से अधिक है। 
  • ऐसा प्रतीत होता है कि कॉन्ग्रेस के नेतृत्व वाला संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन जिस कीमत पर बातचीत कर रहा था उसकी तुलना में एनडीए का सौदा अधिक महँगा होगा।
  • 126 विमानों की खरीद के लिये यूपीए सरकार द्वारा किये गए सौदे के मुताबिक 54,000 करोड़ रुपए खर्च होने थे। जबकि एनडीए सरकार ने सिर्फ 36 विमानों के लिये 58,000 करोड़ रुपए में सौदा किया।
  • भारत की ज़रूरतों के हिसाब से जो साज़ो-सामान विमान में जोड़ा गया है, उसके चलते यूपीए सरकार वाली शर्तों पर हर राफेल जेट की कीमत 1705 करोड़ रुपए बैठती, जबकि एनडीए सरकार ने 36 विमानों पर जो डील की उसमें कीमत 1646 करोड़ रुपए पड़ती है।
  • लागत का एक बड़ा हिस्सा भारत से जुड़ी ज़रूरतों वाले साज़ो-सामान का बताया जा रहा है। इसमें लेह जैसे बेहद ऊँचाई वाले इलाकों से उड़ान भरने से लेकर बेहतर इंफ्रारेड सर्च और ट्रैक सेंसर तथा इलेक्ट्रॉनिक जैमर पॉड जैसी क्षमताएँ शामिल हैं।
  • सरकार का कहना है कि यह सौदा न केवल सस्ता है, बल्कि इसमें विमानों में आधुनिक प्रौद्योगिकी के साथ एक परफॉर्मेंस गारंटी क्लॉज भी जोड़ा गया है।

निष्कर्ष 

यूपीए सरकार में रक्षा उपकरणों की खरीद का काम काफी पिछड़ गया जिसका प्रभाव सेना की ताकत पर दिखाई दे रहा है। इसके चलते एयरफोर्स को अब संसाधनों की तंगी का डर सता रहा है। खरीदे जाने वाले आधुनिक विमानों की संख्या 36 तक सीमित रखने और रूस के साथ फिफ्थ जेनरेशन फाइटर एयरक्राफ्ट प्रोग्राम के रद्द होने के करीब पहुँचने के साथ एयर फोर्स बुरे दौर से गुज़र रही है।

एनडीए सरकार ने सैन्य क्षमता बढ़ाने को लेकर तेज़ी से निर्णय लिये हैं और सामरिक ज़रूरतों को पूरा करने के लिये बेहतर कदम उठाए हैं। सरकार ने बिचौलियों को दूर कर सीधे सरकार के स्तर पर अनुबंध किये ताकि किसी भी तरह के भ्रष्टाचार की गुंजाइश न रहे। किंतु राफेल सौदे में हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (HAL) के स्थान पर एक नीजी कंपनी को तरजीह देना निश्चित रूप से कई सवाल खड़ा करता है। कुछ जानकार इसे देश के कॉर्पोरेट घरानों के शीत युद्ध से जोड़कर भी देख रहे हैं। भले ही राहुल गांधी राफेल सौदे में किसी भी तरह के भ्रष्टाचार को सिद्ध न कर पाए हों लेकिन सरकार के लिये बेहतर होगा कि वह किसी उपाय पर विचार करे, ताकि राफेल सौदे पर संशय का माहौल बनाने की कोशिश सफल न होने पाए। साथ ही, प्रधानमंत्री की विश्वसनीयता पर भी कोई आँच न आए और देश की रक्षा ज़रूरतें भी समय पर पूरी होती रहें। लेकिन ज़िम्मेदारी राहुल गांधी की भी कम नहीं है क्योंकि 2008 में हुए गोपनीयता अनुबंध की बात यदि प्रामाणिक निकली तो फिर कॉन्ग्रेस वर्तमान से भी बुरी स्थिति का शिकार हो सकती है।

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