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संसद टीवी संवाद

जैव विविधता और पर्यावरण

पिघलता हिमालय

  • 29 Jun 2019
  • 15 min read

संदर्भ

हिम या बर्फ अतिरिक्त गर्मी या ऊष्मा को वापस अंतरिक्ष में भेजकर पृथ्वी और महासागरों की रक्षा करता है। लेकिन मानवीय गतिविधियों से, विशेष रूप से औद्योगिक क्रांति के बाद से तेज़ी से बढ़ी ग्लोबल वार्मिंग और उसके परिणामस्वरूप जलवायु परिवर्तन हुआ है। हाल ही में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) के एक अध्ययन के अनुसार, गंगा के पानी का तापमान बढ़ रहा है तथा गर्मियों में जब तापमान अधिक रहता है तो प्रवाह तेज़ रहता है और सर्दियों में तापमान घटने के साथ ही प्रवाह भी कम हो जाता है। CPCB की बायोलॉजिकल हेल्थ ऑफ रिवर गंगा नामक रिपोर्ट में कहा गया है कि औसत तापमान में लगभग एक डिग्री तक की वृद्धि से ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार बढ़ी है।

पूरा विश्व है प्रभावित

मानव जनित जलवायु परिवर्तन ने पहले से ही दुनियाभर में चरम मौसम (सूखा, अतिवृष्टि, बेमौसम वर्षा, रेगिस्तान में वर्षा, जलग्रहण क्षेत्रों में कम वर्षा आदि), वन्य जीवों के विस्थापन, बड़ी संख्या में जीव प्रजातियों के विलोपन और अन्य प्रभावों की एक शृंखला के रूप में देखा जा रहा है। लेकिन इसका सर्वाधिक प्रभाव ग्लेशियरों के तेज़ी से पिघलने के रूप में देखा जा रहा है। वैज्ञानिकों के अनुसार दुनिया के दो हिस्सों (एशिया और अंटार्कटिका) के ग्लेशियर तापमान में वृद्धि से सर्वाधिक प्रभावित हुए हैं।

ग्लेशियर को हिंदी में हिमनद कहा जाता है।

एक अन्य हालिया अध्ययन से पता चला है कि अब हिमालयी ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार शताब्दी की शुरुआत में उनके पिघलने की रफ्तार से दोगुनी हो गई है। यह आँकड़ा वर्ष 1975 से वर्ष 2000 तक ग्लेशियरों के पिघलने की मात्रा का दोगुना है। वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि भले ही आने वाले दशकों में दुनिया ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन पर अंकुश लगा ले, लेकिन दुनिया के शेष ग्लेशियरों का एक तिहाई से अधिक हिस्सा वर्ष 2100 से पहले पिघल जाएगा।

हिमालयी ग्लेशियर

  • हिमालय पर्वत शृंखला, अंटार्कटिका और आर्कटिक के बाद दुनिया में बर्फ और हिम का तीसरा सबसे बड़ा भंडार है।
  • दो हज़ार किलोमीटर का विस्तार लिये और 600 बिलियन टन बर्फ के साथ हिमालय के ग्लेशियर लगभग 800 मिलियन लोगों के लिये सिंचाई, जलविद्युत और पीने के पानी के स्रोत हैं।
  • भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में 750 मिलियन से अधिक लोग हिमालय के ग्लेशियरों से निकलने वाली नदियों से पानी प्राप्त करते हैं। यह अमेरिका की आबादी के दोगुना से अधिक है, जिसे केवल एक स्रोत से पानी मिलता है।
  • हिमालय के पहाड़ों में स्थित गंगोत्री ग्लेशियर इस क्षेत्र के सबसे बड़े ग्लेशियरों में से एक है और गंगा नदी का स्रोत है। यह नदी भारत और बांग्लादेश में मीठे पानी एवं बिजली का सबसे महत्त्वपूर्ण स्रोत है।

मानसून और हिमालयी ग्लेशियर

हर वर्ष गर्मियों में पिघल जाने वाली बर्फ की पुनः पूर्ति के लिये ग्लेशियर भारी वर्षा पर निर्भर करते हैं,

लेकिन यदि मानसून कमज़ोर रहता है या बाधित हो जाता है तो ग्लेशियरों की बर्फ तेज़ी से पिघलने लगती है। ग्लेशियरों के पिघलने से नदियों का जलस्तर बढ़ जाता है और बाढ़ जैसे हालात बन जाते हैं। इसका प्रभाव नदियों के जलग्रहण क्षेत्रों के निकट रहने वाले लोगों और जीव-जंतुओं पर पड़ता है तथा जलविद्युत संयंत्र भी ठप हो जाते हैं। इसके अलावा कमज़ोर मानसून का अर्थ है देशभर में वर्षा का कम होना, जिसका परिणाम सूखे और मरुस्थलीकरण के विस्तार के रूप में सामने आता है।

हिमालयी ग्लेशियरों की वर्तमान स्थिति

  • हाल ही में हुए एक अध्ययन के परिणामों से पता चलता है कि जलवायु परिवर्तन से हिमालयी ग्लेशियरों के प्रभावित होने की रफ्तार बढ़ गई है। अध्ययनकर्त्ताओं ने हिमालय में 650 ग्लेशियरों पर चार दशकों के दौरान बर्फ के पिघलने का विश्लेषण किया और पाया...
  • वर्ष 1975 से वर्ष 2000 के बीच हर साल औसतन चार बिलियन टन बर्फ पिघल रही थी, लेकिन वर्ष 2000 से वर्ष 2016 के बीच ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार दोगुनी हो गई और इस अवधि में औसतन हर साल लगभग 8 बिलियन टन बर्फ पिघली।
  • वर्ष 2000 के बाद से यह भी देखने में आया कि ग्लेशियर औसतन प्रतिवर्ष 0.5 मीटर की दर से सिकुड़ रहे हैं।
  • वर्ष 1975 में इन ग्लेशियरों में जितनी बर्फ मौजूद थी, वह वर्ष 2000 में घटकर 87% तथा 2016 में घटकर 72% रह गई।
  • अध्ययन से यह भी पता चला कि बर्फ के तेज़ी से पिघलने की मुख्य वज़ह बढ़ता तापमान है, जो एशिया के अधिकांश हिस्सों में लाखों लोगों के लिये पानी की आपूर्ति को प्रभावित कर सकता है।
  • वर्ष 1975 से वर्ष 2000 तक की तुलना में इस क्षेत्र में तापमान 1 डिग्री सेल्सियस अधिक हो गया है।
  • अन्य कारणों में वर्षा के पैटर्न में बदलाव और जीवाश्म ईंधनों का इस्तेमाल शामिल है, जिसकी वज़ह से बर्फीले ग्लेशियरों पर एक आवरण सा पड़ जाता है तथा धूप के असमान प्रभाव से बर्फ के पिघलने की रफ्तार काफी तेज़ हो जाती है।

ग्लेशियरों के पिघलने के प्रमुख कारण

  • वर्ष 1900 के बाद से विश्वभर में ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार में इज़ाफा हुआ है। इसके पीछे मानवीय गतिविधियों को उत्तरदायी माना गया है।
  • औद्योगिक क्रांति के बाद से कार्बन डाईऑक्साइड और अन्य ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन से ध्रुवों पर भी तापमान में वृद्धि देखने को मिल रही है।
  • वैज्ञानिकों का कहना है कि कार्बन डाईऑक्साइड और अन्य ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन की यही रफ्तार बनी रही तो वर्ष 2040 की गर्मियों तक आर्कटिक क्षेत्र में बर्फ देखने को नहीं मिलेगी।
  • जलवायु परिवर्तन की वज़ह से होने वाली ग्लोबल वार्मिंग (वैश्विक तापन) भी ग्लेशियरों के पिघलने का एक अन्य बड़ा कारण है।
  • स्थानीय वायु प्रदूषण के साथ-साथ पहाड़ों में बढ़ती व्यावसायिक गतिविधियों का भी इसमें योगदान है।
  • हालिया वर्षों में हिमालय क्षेत्र में भूमि उपयोग में हो रहे बदलाव के कारण भी तापमान बढ़ रहा है।
  • हिमालय के अधिकांश पर्यटक स्थल धीरे-धीरे कंक्रीट के जंगलों में तब्दील होते जा रहे हैं, जिससे इस क्षेत्र की पारिस्थितिकी प्रभावित हुई है।
  • मनुष्यों के साथ वाहनों की आवाजाही ने भी बर्फ के पिघलने की रफ्तार बढ़ाई है।
  • जीवाश्म ईंधन के जलने के परिणामस्वरूप ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन होता है, जिससे ऊष्मन प्रक्रिया प्रभावित होती है क्योंकि ये ऊष्मा को वायुमंडल से बाहर जाने में बाधा बनती हैं।
  • विभिन्न कारकों की वज़ह से बनने वाली मीथेन गैस भी वातावरण को गर्म करने में अपना योगदान करती है तथा ग्लोबल वार्मिंग इज़ाफा करती है। पर्यावरण के लिये मीथेन को कार्बन डाईऑक्साइड से अधिक हानिकारक माना जाता है।
  • वनों के अंधाधुंध कटान से भी पारिस्थितिकीय तंत्र प्रभावित होता है और पहाड़ों पर पानी के ठहरने की प्रक्रिया बाधित होती है।

जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग का प्रभाव

विश्व के हर क्षेत्र में अनुमान से अधिक बर्फ के पिघलने का क्रम जारी है, विशेषकर उत्तरी तथा दक्षिणी ध्रुवों में। इसमें ग्लेशियर और बर्फ की चादरें शामिल हैं, जो अंटार्कटिका और ग्रीनलैंड के अलावा आर्कटिक सागर की बर्फ को कवर करती हैं। यहाँ मोंटाना के ग्लेशियर नेशनल पार्क का उदाहरण देना तर्कसंगत होगा, जहाँ वर्ष 1910 में 150 से अधिक ग्लेशियर थे और आज इनकी संख्या 30 से भी कम रह गई है।

वैज्ञानिकों के अनुसार, वैश्विक समुद्री स्तर 0.13 इंच की दर से बढ़ रहा है और इसकी एकमात्र वज़ह ग्लेशियरों की बर्फ का तेज़ी से पिघलना है। इसकी वज़ह से कम ऊँचाई पर बसे द्वीपों और तटीय शहरों के डूबने का खतरा उत्पन्न हो गया है।

ग्लेशियरों के पिघलने का प्रभाव

  • बाढ़ की बारंबारता में वृद्धि, जिसके परिणामस्वरूप नदियों, झीलों और समुद्रों जैसे पानी के अन्य स्रोतों के जलस्तर में अचानक वृद्धि हो जाती है।
  • ग्लेशियरों के पिघलने से जैव विविधता को नुकसान पहुँचता है और जीव-जंतुओं को अपने आवासों से हाथ धोना पड़ रहा है।
  • पानी का बढ़ता तापमान और जलस्तर जलीय जंतुओं एवं जलीय पादपों को प्रभावित करता है, जो बदले में उन पक्षियों को प्रभावित करते हैं जो उन पर आश्रित होते हैं।
  • इसका प्रभाव प्रवाल भित्तियों (Coral Reefs) पर भी पड़ता है, जिन्हें प्रकाश संश्लेषण के लिये सूर्य की रोशनी की आवश्यकता होती है, लेकिन जब जलस्तर में वृद्धि होती है तो सूर्य का प्रकाश उन तक पर्याप्त मात्रा में नहीं पहुँच पाता।
  • इससे वे जलीय जंतु भी प्रभावित होते हैं जो अपने भोजन के लिये प्रवाल भित्तियों पर निर्भर होते हैं।
  • ग्लेशियरों के पिघलने से ताज़े पानी की मात्रा में कमी आ सकती है, जो बढ़ती जनसंख्या की दृष्टि से बेहद चिंताजनक है।

ग्लेशियरों का महत्त्व

  • ग्लेशियरों की तलछट फसलों के लिये उपजाऊ मृदा प्रदान करती है।
  • रेत और बजरी का उपयोग कंक्रीट और डामर (Asphalt) बनाने के लिये किया जाता है।
  • ग्लेशियर मीठे पानी का सबसे बड़ा स्रोत हैं। बहुत सी नदियाँ पानी के लिये ग्लेशियरों की बर्फ पर निर्भर करती हैं।
  • विश्व की अधिकांश झीलों के बेसिन का निर्माण ग्लेशियरों की वज़ह से ही होता है।
  • पृथ्वी और महासागरों के लिये बर्फ एक सुरक्षा कवच की तरह काम करती है। यह अतिरिक्त ऊष्मा को वापस अंतरिक्ष में भेजकर पृथ्वी को ठंडा रखती है।
  • ग्लेशियर कई सौ से लेकर कई हज़ार साल पुराने हो सकते हैं, जिससे इस बात का वैज्ञानिक रिकॉर्ड मिल जाता है कि समय के साथ जलवायु में किस प्रकार परिवर्तन हुए।

संभावित उपाय

  • वैज्ञानिकों के अनुसार तापमान को बढ़ने से रोकने के लिये एकमात्र उपाय पृथ्वी को ठंडा करना है और इसके लिये ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करना होगा।
  • ग्लोबल वार्मिंग दशकों से हिमालयी ग्लेशियरों को प्रभावित कर रही है, लेकिन इसके प्रभाव पर अनुसंधान हाल ही में शुरू हुए हैं।
  • जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया द्वारा सूचीबद्ध भारतीय हिमालय के 9575 ग्लेशियरों में से केवल 25 का ग्राउंड डेटा उपलब्ध है।
  • दुनिया में लगभग 1 लाख 98 हज़ार ग्लेशियर हैं और इनमें से लगभग साढ़े 9 हज़ार केवल भारत में हैं। हालाँकि इनमें से अधिकांश अभी मानवीय हस्तक्षेप से अछूते हैं, लेकिन फिर भी ग्लेशियरों की स्थिति और उनको होने वाली क्षति के जोखिम को पूरी तरह से समझने के लिये अधिक विस्तृत शोध की आवश्यकता है।
  • इसके अलावा ग्लेशियरों के आसपास के क्षेत्रों में मानवीय गतिविधियाँ सीमित करनी होंगी। इसका परिणाम इन ग्लेशियरों के पिघलने की गति में कमी के रूप में सामने आएगा। लेकिन सबसे बड़ा मुद्दा तो तापमान में हो रही वृद्धि पर अंकुश लगाने का है, जिसके बिना सारे प्रयास बेमानी होंगे।

अभ्यास प्रश्न: “मनुष्य अपने स्वार्थ के लिये अपने भविष्य से खिलवाड़ कर रहा है।“ हिमालयी ग्लेशियरों के तेज़ी से पिघलने के संदर्भ में इस कथन का विश्लेषण कीजिये।

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