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भारतीय राजनीति

विधानपरिषद

  • 30 Jan 2020
  • 16 min read

संदर्भ

हाल ही में आंध्र प्रदेश विधानसभा ने राज्य विधानमंडल के उच्च सदन अर्थात् विधानपरिषद को भंग करने के लिये एक प्रस्ताव पारित किया है। इसके पश्चात् राज्य सरकार यह प्रस्ताव संसद की स्वीकृति हेतु केंद्र सरकार के पास भेजेगी। यदि संसद के दोनों सदनों में यह प्रस्ताव बहुमत से पारित हो जाता है, तो राज्य की विधानपरिषद का विघटन हो जाएगा।

पृष्ठभूमि:

ध्यातव्य है कि दिसंबर 2019 में राज्य सरकार ने राज्य की तीन नई राजधानियों, कार्यकारी राजधानी-विशाखापत्तनम, विधायी राजधानी- अमरावती एवं न्यायिक राजधानी- कुरनूल, का प्रस्ताव पारित किया था। इसके पीछे राज्य सरकार का तर्क है कि इससे राज्य के तीनों क्षेत्रों उत्तरी तट, दक्षिणी तट और रॉयल सीमा का समान विकास संभव हो सकेगा।

इसके लिये राज्य सरकार ने दो बिल- ‘आंध्र प्रदेश विकेंद्रीकरण एवं सभी क्षेत्रों का समावेशी विकास विधेयक-2020’ और ‘आंध्र प्रदेश राजधानी क्षेत्र विकास प्राधिकरण (एपीसीआरडीए) अधिनियम (निरसन) विधेयक’ विधानसभा से पारित कर विधानपरिषद में भेजे थे। परंतु विधानपरिषद में विपक्ष ने इन दोनों विधेयकों पर मतदान से पहले इन्हें प्रवर समिति को भेजने की सिफारिश की थी। इसके बाद राज्य सरकार ने विधानपरिषद को विकास कार्यों में बाधक और विपक्ष पर सदन में राजनीति से प्रेरित नकारात्मक व्यवहार करने का आरोप लगाते हुए यह निर्णय लिया। ध्यातव्य है कि 58 सदस्यों वाली आंध्र विधानपरिषद में सत्तारूढ़ दल के पास मात्र 9 सीटें हैं, जबकि मुख्य विपक्षी दल 28 सीटों के साथ बहुमत में है।

विधानपरिषद:

भारतीय संविधान में राज्यों को राज्य की भौगोलिक स्थिति, जनसंख्या एवं अन्य पहलुओं को ध्यान में रखते हुए राज्य विधानमंडल के अंतर्गत उच्च सदन के रूप में विधानपरिषद (वैकल्पिक) की स्थापना करने की अनुमति दी गई है। जहाँ विधानपरिषद के पक्षकार इसे विधानसभा की कार्यवाही और शासक दल की निरंकुशता पर नियंत्रण रखने के लिये महत्त्वपूर्ण मानते हैं, वहीं कई बार राज्य विधानमंडल के इस सदन को समय और पैसों के दुरुपयोग की वजह बता कर इसकी भूमिका और आवश्यकता पर प्रश्न उठते रहते हैं। राज्य विधानसभा की कार्यप्रणाली कई मायनों में राज्यसभा से मेल खाती है तथा इसके सदस्यों का कार्यकाल भी राज्यसभा सदस्यों की तरह ही 6 वर्षों का होता है।

आंध्र प्रदेश विधानपरिषद का इतिहास:

  • वर्ष 1956 में राज्य के गठन के पश्चात् राज्य सरकार ने विधानपरिषद के गठन का प्रस्ताव पारित किया और 1 जुलाई, 1968 को राज्य में 90 सदस्यीय विधानपरिषद का गठन हुआ।
  • वर्ष 1984 में तात्कालिक राज्य सरकार ने विधानपरिषद भंग करने का प्रस्ताव दिया और संसद की सहमति से 31 मई, 1985 को आंध्र प्रदेश विधानपरिषद भंग हो गई।
  • 22 जनवरी, 1990 को राज्य की नई सरकार द्वारा विधानपरिषद के गठन का प्रस्ताव दिया गया परंतु यह प्रस्ताव संसद में लंबित पड़ा रहा।
  • जुलाई 2004 में राज्य में पुनः विधानपरिषद के गठन का प्रस्ताव दिया गया और 10 जनवरी, 2007 को संसद की सहमति के पश्चात् 30 मार्च, 2007 को राज्य में पुनः विधानपरिषद का गठन हुआ।
  • राज्य के पुनर्गठन के बाद आंध्र प्रदेश विधानसभा की सीटें 90 से घटकर मात्र 58 रह गई थीं।

संविधान में राज्य विधानपरिषद से जुड़े प्रावधान:

  • संविधान के छठे भाग में अनुच्छेद 168-212 तक राज्य विधानमंडल (दोनों सदनों) के गठन, कार्यकाल, नियुक्तियों, चुनाव, विशेषाधिकार एवं शक्तियों की व्याख्या की गई है।
  • इसके अनुसार, विधानपरिषद उच्च सदन के रूप में राज्य विधानमंडल का स्थायी अंग होता है।
  • वर्तमान में देश के 6 राज्यों -आंध्र प्रदेश, बिहार, कर्नाटक, महाराष्ट्र, तेलंगाना और उत्तर प्रदेश में विधानपरिषद है, केन्द्रशासित प्रदेश बनने से पहले जम्मू-कश्मीर में भी विधानपरिषद थी।
  • संविधान के अनुच्छेद 169, 171(1) और 171(2) में विधानपरिषद के गठन एवं संरचना से जुड़े प्रावधान हैं।
  • संविधान का अनुच्छेद 169 किसी राज्य में विधानपरिषद के उत्सादन या सृजन का प्रावधान करता है, वहीं अनुच्छेद 171 विधानपरिषदों की संरचना से जुड़ा है।
  • संविधान के अनुच्छेद 169 के अनुसार, राज्यों को विधानपरिषद के गठन अथवा विघटन करने का अधिकार है, परंतु इसके लिये प्रस्तुत विधेयक का विधानसभा में विशेष बहुमत (2/3) से पारित होना अनिवार्य है।
  • विधानसभा के सुझावों पर विधानपरिषद के निर्माण व समाप्ति के संदर्भ में अंतिम निर्णय लेने का अधिकार संसद के पास होता है।
  • विधानसभा से पारित विधेयक यदि संसद के दोनों सदनों में बहुमत से पास हो जाता है तब इस विधेयक को राष्ट्रपति के पास हस्ताक्षर के लिये भेजा जाता है।
  • राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद इस विधेयक (विधानपरिषद का गठन अथवा विघटन) को संवैधानिक मान्यता प्राप्त हो जाती है।

पूर्व में संबंधित राज्यों के सुझावों पर संसद की सहमति के पश्चात् वर्ष 1969 में पंजाब और पश्चिम बंगाल, वर्ष 1985 में आंध्र प्रदेश तथा वर्ष 1986 में तमिलनाडु राज्य की विधानपरिषदों का विघटन कर दिया गया था।

  • इस प्रक्रिया के दौरान संविधान में आए परिवर्तनों को अनुच्छेद 368 के तहत संविधान का संशोधन नहीं माना जाता।

विधानपरिषद की संरचना

(Composition of Legislative Council):

  • संविधान के अनुच्छेद 171 के अनुसार, विधानपरिषद के कुल सदस्यों की संख्या राज्य विधानसभा के सदस्यों की कुल संख्या के एक-तिहाई (1/3) से अधिक नहीं होगी, किंतु यह सदस्य संख्या 40 से कम नहीं होनी चाहिये।
  • विधानपरिषद के सदस्यों का कार्यकाल राज्यसभा सदस्यों की ही तरह 6 वर्षों का होता है तथा कुल सदस्यों में से एक-तिहाई (1/3) सदस्य प्रति दो वर्ष में सेवानिवृत्त हो जाते हैं।
  • राज्यसभा की तरह ही विधानपरिषद भी एक स्थायी सदन है जो कभी भंग नहीं होता है।
  • राज्यसभा की ही तरह विधानपरिषद के सदस्यों का निर्वाचन प्रत्यक्ष चुनावों द्वारा नहीं होता है।

विधानपरिषद के गठन की प्रक्रिया:

संविधान के अनुच्छेद 171 के तहत विधानपरिषद के गठन के लिये सदस्यों के चुनाव के संदर्भ में निम्नलिखित प्रावधान किये गए हैं-

  • 1/3 सदस्य राज्य की नगरपालिकाओं, ज़िला बोर्ड और अन्य स्थानीय संस्थाओं द्वारा निर्वाचित होते हैं।
  • 1/3 सदस्यों का चुनाव विधानसभा के निर्वाचित सदस्यों द्वारा किया जाता है।
  • 1/12 सदस्य ऐसे व्यक्तियों द्वारा चुने जाते हैं जिन्होंने कम-से-कम तीन वर्ष पूर्व स्नातक की डिग्री प्राप्त कर लिया हो एवं उस विधानसभा क्षेत्र के मतदाता हों।
  • 1/12 सदस्य उन अध्यापकों द्वारा निर्वाचित किया जाता है, जो 3 वर्ष से उच्च माध्यमिक (हायर सेकेंडरी) विद्यालय या उच्च शिक्षण संस्थानों में अध्यापन कर रहे हों।
  • 1/6 सदस्य राज्यपाल द्वारा मनोनीत होंगे, जो कि राज्य के साहित्य, कला, सहकारिता, विज्ञान और समाज सेवा का विशेष ज्ञान अथवा व्यावहारिक अनुभव रखते हों।
  • सभी सदस्यों का चुनाव ‘अनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली’ के आधार पर एकल संक्रमणीय गुप्त मतदान प्रक्रिया से किया जाता है।

सदस्यता हेतु अर्हताएँ

(Qualifications for the Membership):

संविधान के अनुच्छेद 173 के अनुसार, किसी भी व्यक्ति के राज्य विधानपरिषद में नामांकन के लिये निम्नलिखित अहर्ताएँ बताई गई हैं-

  • वह भारत का नागरिक हो।
  • उसकी आयु कम-से-कम 30 वर्ष होनी चाहिये।
  • मानसिक रूप से असमर्थ और दिवालिया नहीं होना चाहिये।
  • जिस क्षेत्र से वह चुनाव लड़ रहा हो वहाँ की मतदाता सूची में उसका नाम होना चाहिये।
  • राज्यपाल द्वारा नामित होने के लिये व्यक्ति को संबंधित राज्य का निवासी होना अनिवार्य है।

द्विसदनीय व्यवस्था:

भारतीय संविधान में द्विसदनीय प्रणाली के अंतर्गत देश की संसद में दो सदनों (लोकसभा और राज्यसभा) की व्यवस्था की गई है। इसके पक्ष में तर्क दिया जाता है कि राज्यसभा उच्च सदन के रूप में लोकसभा की कार्रवाइयों/कार्यवाहियों पर नियंत्रण रखने और ज़ल्दबाजी में लिये गए निर्णयों को सुधारने का एक और अवसर प्रदान करती है। इसी प्रणाली के तहत राज्यों में विधानसभा और विधानपरिषद के रूप में दो सदनों की परिकल्पना प्रस्तुत की गई है।

विधानमंडल की कार्य एवं शक्तियाँ:

  • साधारण विधेयक को दोनों सदनों में पेश किया जा सकता है परंतु असहमति की स्थिति में विधानसभा प्रभावी होती है।
  • विधानपरिषद किसी भी विधेयक को अधिकतम चार माह तक ही रोक सकती है।
  • मुख्यमंत्री और मंत्रियों का चयन किसी भी सदन से किया जा सकता है, यदि विधानपरिषद के सदस्य को मंत्री या मुख्यमंत्री बनाया जाता है तब भी वह विधानसभा के प्रति उत्तरदायी होता है।
  • वित्त विधेयक को सिर्फ विधानसभा में ही पेश किया जा सकता है, विधानपरिषद वित्त विधेयक को न ही अस्वीकृत कर सकती है और न ही 14 दिनों से अधिक रोक सकती है।
  • 14 दिनों के बाद विधेयक को विधानपरिषद से स्वतः ही पारित मान लिया जाएगा।
  • राज्यसभा के लिये राज्यों से जाने वाले प्रतिनिधियों और राष्ट्रपति के निर्वाचन में विधानपरिषद का कोई योगदान नहीं होता है।
  • संविधान संशोधन विधेयक के संदर्भ में विधानपरिषद को कोई अधिकार प्राप्त नहीं हैं।
  • विधानसभा को विधानपरिषद के सुझावों का अध्यारोहण करने का अधिकार प्राप्त होता है।

राज्यसभा की तुलना में विधानपरिषद की शक्तियाँ:

  • देश का उपराष्ट्रपति सभापति के रूप में राज्यसभा की कार्यवाही का संचालन करता है, जबकि विधानपरिषद के सभापति का चुनाव परिषद के सदस्यों के बीच से ही किया जाता है।
  • राज्यसभा में देश के सभी राज्यों का प्रतिनिधित्व होता है।
  • विधानपरिषद के सदस्य अलग-अलग तरीकों से निर्वाचित होते हैं और इनमें नामित सदस्यों की संख्या अधिक होती है।
  • राज्यसभा के गठन का आधार समान है, इसके सदस्य राज्यों की विधानसभाओं के सदस्यों द्वारा निर्वाचित होते हैं और मात्र 12 सदस्य ही राष्ट्रपति द्वारा नामित होते हैं।

विधानपरिषद की उपयोगिता:

  • इस व्यवस्था द्वारा उन लोगों को भी विधायिका में सीधे अपना योगदान देने का मौका मिलता है जिन्हें किन्हीं कारणों से प्रत्यक्ष चुनावों से नहीं चुना जा सका हो।
  • विधान मंडल का उच्च सदन विधानसभा के निर्णयों की समीक्षा करने और सत्तापक्ष के निरंकुशतापूर्ण निर्णयों पर अंकुश लगाने में सहायता करता है।
  • उच्च सदन शिक्षाविदों और बुद्धिजीवियों को एक मंच प्रदान करता है, जो सरकार की जन-कल्याण योजनाओं के माध्यम से राज्य के विकास में अपना बहुमूल्य योगदान देते हैं।
  • इस व्यवस्था को नियंत्रण और संतुलन (Check and Balance) सिद्धांत के अनुसार किसी भी लोकतांत्रिक सरकार के लिये आवश्यक माना जाता है।

विधानपरिषद की आलोचना:

विधानपरिषद राज्यसभा की तुलना में काफी प्रभावहीन होती है तथा अधिकांश विशेषज्ञों द्वारा इससे समय और धन के अपव्यय का कारण माना जाता है।

  • आलोचकों के अनुसार, समाज के अलग-अलग वर्ग के सदस्यों के नाम पर राजनीतिक दल अपने अधिक-से-अधिक कार्यकर्ताओं को सरकार में लाने के लिये इस सदन का प्रयोग करते हैं
  • राज्य सरकार के निरंकुश फैसलों/आदेशों को न्यायालय व अन्य संवैधानिक संस्थाओं में चुनौती देकर सरकार की निरंकुशता पर लगाम लगाई जा सकती है।

अभ्यास प्रश्न: क्या वर्तमान समय में भी राज्य विधानपरिषद मात्र एक विलंबकारी निकाय है? अपने उत्तर के पक्ष में तर्क दीजिये।

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