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भूगोल

ग्राउंड रिपोर्ट: पेयजल की कमी दूर कर रहा समुद्र का खारा पानी (DESALINATION Process)

  • 20 Jun 2018
  • 21 min read

संदर्भ एवं पृष्ठभूमि

हाल ही में भारत में शिमला और इस वर्ष की शुरुआत में दक्षिण अफ्रीका का केप टाउन शहर पीने के पानी की कमी की वज़ह से दुनियाभर में चर्चा का विषय बने रहे। इन दोनों ही स्थानों पर स्थिति विस्फोटक हो गई थी और पानी की राशनिंग करनी पड़ी। यूँ तो लगभग पूरे भारत में पीने के पानी की किल्लत रहती है, लेकिन चेन्नई में यह समस्या दशकों से बनी हुई है।

विलवणीकरण (Desalination) क्या है?

  • समुद्री या खारे पानी को लवणों से मुक्त करने की प्रक्रिया डिसेलिनेशन कहलाती है। यह उन कई प्रक्रियाओं को संदर्भित करता है जो पानी से नमक तथा अन्य खनिजों को अलग करती है और उसे पीने लायक बनाती हैं। डिसेलिनेशन एक सामान्य वैज्ञानिक प्रक्रिया है, लेकिन इसके बुनियादी ढाँचे और प्रोसेसिंग पर काफी अधिक खर्च आता है। 

क्यों खारा होता है समुद्र का पानी?

  • पृथ्वी के हर कोने में, प्रत्येक घटक में पानी है, लेकिन हर जगह इसके रंग-रूप और अवस्थाएँ अलग-अलग होती हैं।
  • जहाँ वर्षा का पानी मीठा होता है, वहीं समुद्र का पानी खारा होता है। लेकिन क्यों होता है समुद्र का पानी इतना खारा?
  • समुद्र की सतह गरम होने की वज़ह से इससे भाप उठती है जिससे बादल बनते हैं और वर्षा होती है और इसी से नदियों व झरनों में पानी आता है। 
  • नदियों और झरनों के पानी में प्रकृति के अन्य पदार्थों से आए लवण घुलते हैं, लेकिन उनकी मात्रा कम होती है, इसलिये नदी-झरनों का पानी मीठा लगता है।
  • जब यह पानी समुद्र में पहुँचता है तो वहाँ लवण जमा होते जाते हैं और इनमें से दो लवण सोडियम तथा क्लोराइड ऐसे हैं जो नमक बनाते हैं।
  • इनका एकत्रीकरण काल बहुत लंबा होता है अर्थात जब ये समुद्र में पहुँच जाते हैं तो लाखों-करोड़ों साल तक वहीं जमा रहते हैं, इसीलिये समुद्र का पानी खारा होता रहता है।
  • समुद्र के अंदर ऐसी कई प्रक्रियाएं होती रहती हैं, जिनके कारण समुद्र जल का लवणांश समुद्र तल में निक्षेपित भी होता रहता है। इसमें कुछ शल्क-धारी जीव-जंतु भी योगदान करते हैं। ये जीवधारी अपना खोल बनाने के लिये समुद्र जल से लवणांश लेते और छोड़ते रहते हैं। 
  • समुद्र के जल में औसतन 3.5% अर्थात प्रत्येक 100 मिली. समुद्र जल से 3.5 ग्राम लवण प्राप्त होता है। इस लवण में मुख्यतः क्लोरीन के लवण होते हैं, जैसे खाने वाला नमक (NaCl)। 
  • लवणों की यह सांद्रता समुद्र में हर जगह एक समान नहीं होती। जैसे कि नदी मुखों के पास समुद्र जल का खारापन कम होता है क्योंकि वहाँ नदियों के कारण मीठे जल की मात्रा अधिक रहती है।

(टीम दृष्टि इनपुट)

कहाँ गया पानी?

मानव जनित जलवायु परिवर्तन के कारण विश्व के लगभग सभी बड़े शहरों में जलापूर्ति के प्राकृतिक स्रोत, जैसे-नदियाँ, झीलें, झरने तालाब आदि प्रभावित हुए हैं और सभी को शुद्ध पेयजल पहुँचाना एक बड़ी चुनौती बनकर सामने आया है। ऐसे में कई देश समुद्री पानी के डिसेलिनेशन पर काम कर रहे हैं, ताकि उसे पीने योग्य बनाया जा सके।

विदित हो कि कुछ समय पूर्व संयुक्त राष्ट्र ने चेतावनी दी थी कि 2025 तक दुनिया के करीब 1.20 अरब लोगों को स्वच्छ पेयजल मिलने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा।

चेन्नई में क्यों ज़रूरत पड़ी डिसेलिनेशन की?

  • चेन्नई मे समस्या इतनी विकट हो चुकी है कि समुद्र का पानी डिसेलिनेशन कर पेयजल के रूप में लोगों तक पहुंचाया जा रहा है।
  • चेन्नई में पानी की मांग 1100 एमएलडी है, लेकिन प्राकृतिक स्रोतों से केवल 650 एमएलडी पानी ही मिल पाता है। 
  • शहर में पानी की दैनिक आवश्यकता को पूरा करने के लिये चेन्नई के समुद्र तट पर दो विलवणीकरण अर्थात् डिसेलिनेशन (Desalination) संयंत्र काम कर रहे हैं और दोनों की क्षमता 100 एमएलडी है। 
  • ऐसे दो और संयंत्रों (150 एमएलडी और 400 एमएलडी क्षमता वाले) पर काम चल रहा है, जो अगले 3 वर्षों में 550 एमएलडी समुद्री पानी का डिसेलिनेशन करने में सक्षम होंगे। 
  • 2010 में उत्तर चेन्नई के मिंजूर और 2013 में दक्षिण चेन्नई के निम्मेली में समुद्र किनारे विलवणीकरण संयंत्र लगाए गए। 
  • समुद्र में बिछाए गए 1050 मीटर लंबे व 1600 मिलीमीटर व्यास की HDPE (High Density Polyethylene) पाइपलाइन के ज़रिये समुद्र का खारा पानी इन संयंत्रों में आता है और ट्रीटमेंट के बाद स्वच्छ पानी दूसरी पाइपलाइन के ज़रिये बाहर सप्लाई किया जाता है। 
  • ट्रीटमेंट के बाद कुल पानी का 40% स्वच्छ पानी के रूप में परिवर्तित हो जाता है।

दो प्रकार की तकनीक का इस्तेमाल होता है

  • इन संयंत्रों में दो तरह की तकनीकों का प्रयोग होता है--पारंपरिक वैक्यूम डिस्टिलेशन और रिवर्स ऑस्मोसिस (Reverse Osmosis-RO)। चेन्नई के दोनों संयंत्र RO तकनीकी पर काम कर रहे हैं। 
  • इस प्रकार के संयंत्रों से समुद्री पानी को स्वच्छ बनाने की प्रक्रिया में ऊर्जा की अधिक खपत होती है। वैक्यूम डिस्टिलेशन तकनीक में एक घनमीटर समुद्री जल को शुद्ध करने के लिये तीन किलोवॉट ऊर्जा की खपत प्रति घंटे होती है, तो RO तकनीक में यह खपत दो किलोवाट होती है।
  • इन विधियों से खारे पानी को मीठे पानी में बदलने के लिये एक तो काफी मात्रा में ऊर्जा खर्च होती है, बावजूद इसके पानी में से नमक की मात्रा पूरी तरह नहीं निकल पाती। इस अतिरिक्त नमक को हटाने के लिये दोबारा वही प्रक्रिया दोहरानी पड़ती है। इस कारण समय और ऊर्जा दोनों ही अधिक खर्च होते हैं।

रिवर्स ऑस्मोसिस (RO) तकनीक के गुण-दोष

  • रिवर्स ऑस्मोसिस (Reverse Osmosis-RO) पानी को शुद्ध करने वाली एक ऐसी तकनीक है जिसमें दबाव डालकर पानी साफ किया जाता है। 
  • इस तकनीक का इस्तेमाल उन इलाकों में किया जाता है, जहाँ पानी में टीडीएस (Total Dissolved Solids-TDS) 500 मि.ग्रा. प्रति लीटर से अधिक होते हैं अर्थात् पानी खारा होता है। 
  • बोरवेल के पानी या समुद्र तटीय इलाकों में यह तकनीक उपयोगी है
  • RO के पानी में कोई भी अशुद्धि नहीं होती
  • बैक्टीरिया और वायरस भी दूर हो जाते हैं
  • क्लोरीन और आर्सेनिक जैसी अशुद्धियाँ भी दूर हो जाती हैं
  • इस प्रक्रिया में बिजली की खपत अधिक होती है
  • यह नल के पानी के सामान्य से अधिक दबाव में काम करता है
  • RO से बाहर निकलने वाले पानी के रूप में औसतन 30-40% पानी बर्बाद होता है
  • RO पीने के पानी से आवश्यक खनिजों को भी बाहर निकल देता है

कम तापमान वाली थर्मल विलवणीकरण तकनीक-LTTD

  • इस खर्च को कम करने के लिये राष्ट्रीय समुद्र प्रौद्योगिकी संस्थान (National Institute of Ocean Technology-NIOT) ने डिसेलिनेशन प्रक्रिया के लिये कम तापमान वाली थर्मल विलवणीकरण (Low Temperature Thermal Desalination-LTTD) तकनीक का विकास किया है। 
  • इस प्रक्रिया के तहत दो अलग-अलग जल स्रोतों के बीच तापमान के उतार-चढाव से पहले गर्म पानी को कम दाब पर वाष्पीकृत किया जाता है और फिर निकले हुए भाप को ठंडे पानी से द्रवीकृत किया जाता है ताकि मीठा पानी प्राप्त किया जा सके।
  • पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के तहत Earth System Science Organization-ESSO ने देश में कुछ LTTD संयंत्रों की स्थापना की है, जो कवारत्ती, मिनीकॉय, अगत्ती, लक्षद्वीप में स्थापित हैं। इनकी प्रौद्योगिकी पूरी तरह से घरेलू और पर्यावरणानुकूल है। प्रत्येक LTTD संयंत्र की क्षमता प्रतिदिन एक लाख लीटर समुद्री जल शुद्ध करने की है। इस तकनीक द्वारा खारे पानी से एक लीटर मीठा पानी बनाने में 19 पैसे का खर्च आता है।

(टीम दृष्टि इनपुट)

विश्वभर में लगे हैं ऐसे प्लांट

  • पृथ्वी पर उपलब्ध पानी का 97% हिस्सा समुद्री जल का है, जो पीने लायक नहीं है। 
  • अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, इज़राइल, सऊदी अरब, यूएई जैसे देश अपनी कुल पानी की मांग का बड़ा हिस्सा इसी समुद्री जल का डिसेलिनेशन करके पूरा करते हैं। 
  • फिलहाल दुनियाभर में इसके लगभग 15 हजार संयंत्र काम कर रहे हैं।
  • सऊदी अरब की राजधानी रियाद में इसके लिये 320 किमी. लंबी पाइपलाइन बिछाई गई है। भारत के अंडमान, गुजरात, तमिलनाडु, लक्षद्वीप और आंध्र प्रदेश में छोटे-बड़े लगभग 175 संयंत्र चल रहे हैं। भारत में पहला संयंत्र अंडमान में लगाया गया था। 
  • अमेरिका के फ्लोरिडा में रोजाना 9 करोड़ 45 लाख लीटर, संयुक्त अरब अमीरात में 38 करोड़ 50 लाख और अरूबा द्वीप में 4 करोड़ 94 लाख लीटर क्षमता के डिसेलिनेशन संयंत्र लगे हुए हैं, जिनमें समुद्री पानी को पीने योग्य बनाया जाता है। 

पानी-ही-पानी है, लेकिन...

  • पृथ्वी के 71% प्रतिशत हिस्से में पानी है। 1.6% पानी धरती के नीचे है और 0.001% वाष्प और बादलों के रूप में है। 
  • पृथ्वी की सतह पर जो पानी है, उसमें 97% सागरों और महासागरों में है, जो खारा होने के कारण पीने लायक नहीं है। 
  • कुल उपलब्ध पानी में से केवल 3% पानी ही पीने योग्य है। इसमें से 2.4% हिमखण्डों के रूप में उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों पर बर्फ के रूप में जमा हुआ है।

नीति आयोग का आकलन 

  • नीति आयोग के एक आकलन के अनुसार विश्व में भारत की आबादी का हिस्सा 17% है, लेकिन इसी तुलना में साफ पानी केवल 4% उपलब्ध है। 
  • इस आकलन में कहा गया है कि भारत में फिलहाल प्रति व्यक्ति 1700 से 1000 क्यूबिक मीटर जल उपलब्ध है। 
  • वैश्विक मानदंडों पर देखें तो यदि प्रति व्यक्ति 1554 क्यूबिक मीटर जल ही उपलब्ध है, तो यह भीषण जल संकट का संकेत है। 
  • इस पैमाने के अनुसार, भारत एक गंभीर जल संकट वाला देश है, क्योंकि यहां जल उपलब्धता इससे भी कम है।

इज़राइल अग्रणी है इस मामले में

आपको याद होगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी हालिया इज़राइल यात्रा के दौरान वहाँ के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के साथ समुद्र किनारे एक जीप में बैठे दिखाई दिये थे, जो समुद्र के पानी में चलते हुए खारे जल को मीठे पेयजल में बदलने का काम करती है। बाद में इज़राइली प्रधानमंत्री जब भारत यात्रा पर आए तो उन्होंने यह जीप भारत को भेंट कर दी थी। 71 लाख की कीमत वाले इस संयंत्र से एक दिन में समुद्र का या बाढ़ का 20 हज़ार लीटर पानी पीने लायक बनाया जा सकता है।

दुनियाभर में समुद्र के पानी को मीठे जल में परिवर्तित करने की तकनीक की खोज की जा रही है, लेकिन जो सफलता इज़राइल को मिली है, वह अन्य किसी देश को नहीं मिली। 

संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, 2050 तक जब विश्व की 40% आबादी जल संकट का सामना कर रही होगी, तब भी इज़राइल में पीने के पानी का संकट नहीं होगा।

  • इज़राइल अपने सोरेक स्थित डिसेलिनेशन संयंत्र को पूर्ण क्षमता पर संचालित करता है और इससे रोज़ाना 6.30 लाख घनमीटर समुद्री पानी को पीने लायक बनाया जाता है। इस संयंत्र से वहाँ की 40% पानी की ज़रूरत पूरी हो रही है। यह अलग बात है कि इज़राइल की कुल आबादी 85 लाख और कुल क्षेत्रफल 20,770 वर्ग किमी. है। 

मृत सागर (Dead Sea) है सबसे अधिक खारा

  • इसी प्रकार कुछ छोटे समुद्रों में खारापन कहीं ज़्यादा हो सकता है। जैसे कि मृत सागर (इसे खारे पानी की अरबी झील भी कहा जाता है) में, जिसका खारापन सामान्य समुद्रों से 7-8 गुना अधिक है...लगभग 33.7%। इसका कारण यह है कि यह अन्य समुद्रों से अलग-थलग है और उनके साथ जल-विनिमय नहीं कर सकता। इस सागर में वाष्पीकरण बहुत अधिक होता है, इसलिये लवणों का सांद्रीकरण भी तेज़ी से होता है।
  • इतने अधिक खारेपन के कारण मृत सागर की उत्प्लावकता भी असामान्य रूप से अधिक है, इतनी अधिक कि आदमी इस समुद्र में डूब ही नहीं सकता।
  • पृथ्वी के न्यूनतम बिंदु पर स्थित मृत सागर इज़राइल और जॉर्डन के बीच है । यह सागर सबसे कम जगह में फैला है तथा केवल 8 मील लंबा और 11 मील चौड़ा है। तीन पर्वतमालाओं से इस सागर का स्तर पृथ्वी की सतह से लगभग 1375 फुट या 420 मीटर गहरा है और समुद्री सतह से करीब 2400 फुट नीचे है।
  • इसमें नदियों एवं वर्षा से ताज़ा पानी आता रहता है, लेकिन यहाँ का वातावरण और हवा काफी शुष्क है। पूरे साल तापमान गर्म रहता है, इस कारण वाष्पीकरण तेज़ होने के कारण इसका पानी हर साल एक मीटर से अधिक कम हो जाता है और झील की लवणता बढ़ती जाती है।

ग्रैफीन ऑक्साइड से बना फिल्टर

कुछ समय पूर्व यूनिवर्सिटी ऑफ मैनचेस्टर के वैज्ञानिकों की एक टीम ने एक ऐसा फ़िल्टर बनाया, जिससे पानी के दूषित पदार्थों को अलग किया जा सकता है। ग्रैफीन ऑक्साइड से निर्मित यह फ़िल्टर समुद्र के पानी से नमक अलग करने में सक्षम है, लेकिन इससे उत्पादित पानी बहुत महँगा पड़ता है। दरअसल, वर्तमान में जो तकनीक उपलब्ध है, उससे सिंगल लेयर वाले ग्रैफीन द्वारा बड़े पैमाने पर उत्पादन में बेहद अधिक लागत आती है। उल्लेखनीय है कि ग्रैफीन ग्रेफाइट की पतली पट्टी जैसा तत्त्व है, जिसे प्रयोगशाला में आसानी से तैयार किया जा सकता है।

बार्क का डिसेलिनेशन पायलट प्लांट

भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर (Bhabha Atomic Research Centre-BARC) के वैज्ञानिकों ने तमिलनाडु के कलपक्कम में एक पायलट प्लांट तैयार किया है, जिसमें समुद्र के पानी को शुद्ध करने के लिये अपशिष्ट भाप (Waste Steam) का उपयोग किया जाता है। इस प्लांट की क्षमता प्रतिदिन 6.3 मिलियन लीटर पानी को शुद्ध करने की है। वैज्ञानिकों ने ऐसी शोधन (फिल्टरेशन) विधि भी तैयार की है, जिससे आर्सेनिक और यूरेनियम युक्त पानी को भी पीने लायक बनाया जा सकता है। बार्क ने ऐसी झिल्लियाँ (Membranes) भी विकसित की हैं, जिनके ज़रिये बेहद कम लागत पर यूरेनियम या आर्सेनिक युक्त पानी को साफ और शुद्ध करके पीने लायक बनाया जा सकता है।

(टीम दृष्टि इनपुट)

निष्कर्ष: देश में पानी की कमी नहीं है, पानी के नियोजन की कमी है। पानी का असमान वितरण भी एक बड़ी समस्या है। राज्यों के बीच जल विवाद, पानी के अपव्यय और सतही जल प्रबंधन ने इस समस्या को इतना बढ़ा दिया है कि यह चिंताजनक स्तर पर जा पहुँची है। इसके अतिरिक्त पिछले कुछ दशकों से अन्य कारकों के अलावा जनसंख्या वृद्धि, आर्थिक विकास और बदलते उपभोग पैटर्न के चलते जल की मांग में बेहद वृद्धि हुई और यह वृद्धि निकट भविष्य में भी जारी रहने वाली है।

शुद्ध अर्थात् प्राकृतिक स्रोतों से मिलने वाला पानी असीमित नहीं है और यह अनंत काल तक चलने वाला नहीं है। ऐसे में प्राकृतिक प्रक्रियाओं के उपयोग या अनुकरण से बहुआयामी जल प्रबंधन करना समय की मांग है। जैसे-जल उपलब्धता का संवर्द्धन (मृदा में नमी को रोककर रखना, भू-जल पुनर्भरण), पानी की गुणवत्ता में सुधार (प्राकृतिक और निर्मित आर्द्रभूमियों अथवा नदी तटों पर बफर स्ट्रिप्स के निर्माण द्वारा), जल संबंधी आपदाओं और जलवायु परिवर्तन से जुड़े जोखिमों को कम करना आदि। वाटरशेड मैनेजमेंट भी एक अन्य प्रकृति-आधारित समाधान है।

भारत में जल संकट की समस्या इतनी गहराती जा रही है कि इसका समाधान करने के लिये युद्धस्तर पर प्रयास करने की आवश्यकता है। ऐसा नहीं है कि इस संबंध में प्रयास नहीं किये गए हैं या जल संरक्षण संबंधी कोई पहल नहीं की गई है। तथापि, अभी भी इस संबंध में बनाए गए कानून एवं नीतियाँ अपर्याप्त हैं। देश में सभी को  शुद्ध पेयजल की उपलब्धता सुनिश्चित करने  के लियेएक बेहतर विनियामक की आवश्यकता है।

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