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शहरीकरण और सरंक्षण का द्वंद्व

  • 21 Jul 2017
  • 12 min read

ऐतिहासिक इमारतों के इर्द-गिर्द शहरीकरण का अपना डेरा जमा लेना कोई आश्चर्य की बात नहीं है और इसके कई कारण हैं। ऐतिहासिक निर्माण हमारी संपन्न विरासत के प्रतीक होने के साथ-साथ पर्यटन उद्योग की रीढ़ भी हैं। इमारतों के आस-पास लोग बसते गए, छोटे शहर बड़े शहरों में बदल गए और बड़े शहर महानगर बन गए। जब लोग बढ़े, जनसंख्या बढ़ी तो लोगों की ज़रूरतें भी आसमान छूने लगीं। अब धरती कोई रबड़ की गेंद तो है नहीं जिसे खिंच-खींचकर बढ़ा दिया जाए, ऐसे में शहरीकरण और हमारी विरासतों के सरंक्षण के बीच टकराव तो होना ही था। आज वाद-प्रतिवाद और संवाद के ज़रिये हम शहरीकरण और सरंक्षण के द्वंद्व से बाहर निकलने का प्रयास करेंगे।

वाद

  • यह सोचने वाली बात है कि जो रोज़ अपनी-अपनी छतों के मुंडेर से भारत माता की जय चिल्लाते हैं, भारतीय सभ्यता और संस्कृति को अक्षुण्ण बनाए रखने का संकल्प लेते हैं, उन्हें अपनी ऐतिहासिक इमारतों के सरंक्षण से कुछ भी लेना-देना नहीं है।
  • इस बात का जीता-जागता सबूत है ‘प्राचीन स्मारक और पुरातत्त्व स्थल और अवशेष अधिनियम में प्रस्तावित संशोधन, जिसके माध्यम से हमारे राष्ट्रीय संरक्षित स्मारकों के चारों और मौजूदा सुरक्षा घेरे को हटाने पर विचार किया जा रहा है।
  • यह विडंबना ही कही जाएगी कि भारत सरकार का संस्कृति मंत्रालय, आर्थिक मामलों के मंत्रालय की तरह कार्य कर रहा है। दरअसल, संस्कृति मंत्रालय ने अपने एक वक्तव्य में स्मारकों के सरंक्षण की बात करने के बजाय रोड, पुल और रेलवे ट्रैक निर्माण की वकालत करता नज़र आ रहा है।
  • मंत्रालय ने तीन सन्दर्भों का सहारा लेते हुए, स्मारक और पुरातत्त्व स्थल और अवशेष अधिनियम में संशोधन को सही ठहराया है। वे तीन सन्दर्भ हैं:

→ यदि आगरा में स्थित अकबर के किले के 100 मीटर के दायरे के अंदर से एक हाईवे पास नहीं किया गया तो, कई लोगों का जीवन संकट में पड़ जाएगा। ऐसा इसलिये क्योंकि जिस जगह से होकर हाईवे को निकलना था, वहाँ मानव बस्तियाँ बसा दी गई हैं।
→ बंगलुरू में स्थित टीपू सुल्तान के महल के 100 मीटर के दायरे में सेंध लगाए बिना एक निजी हॉस्पिटल का विस्तार नहीं किया जा सकता है।
→ तीसरा सन्दर्भ यह है कि गुजरात के पाटन में स्थित रानी की वाव के पास से एक रेलवे ट्रैक का गुजरना अति आवश्यक हो गया है।

  • केवल तीन सन्दर्भों का हवाला देते हुए स्मारक और पुरातत्त्व स्थल और अवशेष अधिनियम में संशोधन लाना कहाँ तक उचित है, जबकि तीनों ही सन्दर्भों में एक उचित आकलन के बाद आवश्यक उपाय किये जा सकते थे।
  • भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा जारी नोट में कहीं भी इस बात की चर्चा नहीं की गई है कि संशोधन के संबंध में भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग से सलाह लिया गया हो, ना ही इस बात की चर्चा की गई है कि जिन तीन सन्दर्भों के आधार पर संशोधन को लाया जा रहा है यदि उन पर अमल होता है तो संबंधित इमारतों पर इसके क्या प्रभाव देखने को मिलेंगे।
  • प्राचीन इमारतों के ऐतिहासिक महत्त्व की पहचान रखने वाले लोगों को आगे आना चाहिये, संसद में प्रस्तावित संशोधन का विरोध किया जाना चाहिये। हमें याद रखना होगा कि भारतीय वास्तुकला के विद्यार्थी, एक एंग्लो-इंडियन जेम्स फर्ग्यूसन ने 1876 में ब्रिटिश सरकार को आड़े हाथों लिया था, क्योंकि वे मुगलों द्वारा निर्मित इमारतों के सरंक्षण के प्रति बेहद लापरवाह थे।

प्रतिवाद

  • आज के दौर में इमारतों की कांटेदार घेराबंदी के द्वारा सरंक्षण का सिद्धांत उतना व्यावहारिक नहीं रहा, अब इमारतों को आधुनिकता के तत्त्वों के साथ जोड़ा जाना चाहिये। हमारी विरासतों को आधुनिकता के साथ जोड़ने के लिये प्रमुख इतिहासकारों, पुरातत्त्वविदों एवं अन्य विशेषज्ञों के एक पैनल से सुझाव लेना चाहिये।
  • इस संबंध में पेरिस का उदाहारण लिया जा सकता है, जहाँ आई. एम. पेई का ग्लास पिरामिड शायद अस्तित्व में नहीं आ पाता यदि वे सरंक्षण के प्रचलन से बाहर हो चुके उपायों से चिपके रहते।
  • लोगों के व्यापक विद्रोह के बाद भी फ्रांस ने कदम पीछे नहीं हटाए और आज यह ग्लास पिरामिड पेरिस शहर की खूबसूरती में चार चाँद लगाने का काम करता है। और हाँ जिस पुराने म्यूजियम के सरंक्षण के नाम पर इसके निर्माण का विरोध किया जा रहा था वह अब पहले से कहीं अधिक सुन्दर नज़र आता है।
  • ऐसे कई अन्य उदाहरण भी हैं जहाँ प्राचीन इमारतों को आधुनिकता का पुट देकर उन्हें ग्लोबल वार्मिंग के कुप्रभावों से बचाने की कोशिश की जा रही है।
  • किसी भी निर्माण के आप-पास क्या-क्या प्रयोग किये जा सकते हैं, कैसे उन्हें और प्रभावी बनाये जिससे कि उनका सरंक्षण भी हो सके। इन मामलों में निर्णय लेने का अधिकार केवल नौकरशाही पर नहीं छोड़ देना चाहिये।
  • प्रत्येक शहर की अपनी ज़रूरते हैं, उन ज़रूरतों एवं ऐतिहासिक इमारतों के सरंक्षण के मध्य उचित सामंजस्य स्थापित हो इसके लिये हमें प्रत्येक शहर के लिये एक शहरी कला आयोग (urban art commission) का निर्माण करना चाहिये, जो संरक्षण प्रबंधन योजना तैयार करे विरासत के सरंक्षण के लिये उचित दिशानिर्देश जारी करे।

संवाद

  • अबूझ कानूनी शब्दों का जाल संसदीय लोकतंत्र के लिये हमेशा से एक समस्या रही है, जब तक किसी प्रस्तावित संशोधन या विधेयक का मतलब लोगों की समझ में आता है, तब तक वह कानून का रूप ले लेता है।
  • अतः सबसे पहले विधायिका को ‘स्मारक और पुरातत्त्व स्थल और अवशेष अधिनियम’ में संशोधन के लिये जल्दबाजी नहीं दिखानी चाहिये। यदि यह संशोधन प्रस्ताव पारित हो जाता है, हमारे स्मारकों के आस पास स्थापित किया गया 100 मीटर का सुरक्षा घेरा अप्रभावी हो जाएगा।
  • वर्ष 2010 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने इस बात का खुलासा किया कि इसके सदस्यों को 2,500 से अधिक स्मारकों में जाने की अनुमति नहीं है, क्योंकि वे जर्जर स्थिति में हैं। भारत की रक्षाहीन विरासतों का संरक्षण केवल तभी हो सकता है, जब उनके लिये उपयुक्त नियम बनाए जाएं और बनाए गए नियमों से छेड़ छाड़ न की जाए।
  • दरअसल, वर्ष 2010 में भारत सरकार ने एक समिति का गठन किया, जिसने संसद में एक नए विधेयक की सिफारिश की। “प्राचीन स्मारक और पुरातात्त्विक स्थल और अवशेष (संशोधन और वैधता) अधिनियम” नामक इस विधेयक को मार्च 2010 में सर्वसम्मति से पारित कर दिया गया था।
  • विदित हो कि इस विधेयक के कानून बनते ही स्मारकों के चारों ओर के प्रतिबंधित और नियामकीय क्षेत्र को अधिनियम के दायरे में लाया गया है। अब सरकार राष्ट्रीय संरक्षित स्मारकों के चारों ओर के 100 मीटर के प्रतिबंधित क्षेत्र को हटाने पर विचार कर रही है, जो कि अत्यंत ही चिंतनीय है।
  • जहाँ तक विकसित देशों के अनुभवों से सीखने का सवाल है तो हम यह देखते हैं कि अपने इतिहास-बोध के प्रति सर्वाधिक सजग देशों को भी अपनी विरासत की रक्षा के लिये बहुत सख्त कानूनों का उपयोग करना पड़ा है, जबकि हम तो अपनी ऐतिहासिक इमारतों की दीवारों पर “चाक-चित्रकारी” करने के लिये जाने जाते हैं। ऐसे में प्रस्तावित संशोधन पर गहन विचार-विमर्श किया जाना चाहिये।

निष्कर्ष

  • एक हालिया संसदीय समिति की रिपोर्ट में बताया गया है कि राजधानी में अकेले कुतुब मीनार क्षेत्र में 93 अतिक्रमण सामने आए हैं, यह स्थिति तब है जब “प्राचीन स्मारक और पुरातात्त्विक स्थल और अवशेष अधिनियम" द्वारा ऐतिहासिक इमारतों के 100 मीटर के दायरे में किसी भी प्रकार के निर्माण कार्य की अनुमति नहीं है। 
  • यह चिंतनीय है कि आगरा में अकबर के किले के 100 मीटर के दायरे में आज भी आवागमन जारी है, आज तक सरकारें एक सड़क तक का निर्माण नहीं करा पाई हैं जो आवागमन को किले के दायरे से दूर ले जा सके।
  • आज जो समस्या है, वह बेतरतीब शहरीकरण के कारण है। यदि शहरीकरण की समस्याओं से उचित ढंग से निपटा जाए तो शहरीकरण और ऐतिहासिक इमारतों के सरंक्षण का यह द्वंद्व अपने आप समाप्त हो जाएगा।
  • इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि कुछ मामलों में निहित तत्त्वों ने धरोहरों के संरक्षण की आड़ में अपना स्वार्थ साधा है। ऐसा ही पर्यावरण से जुड़े मुद्दों के साथ हुआ है। दरअसल, कुछ ऐसे लोग अवश्य हैं जो पर्यावरण के नाम पर शोर मचाकर इसका फायदा उठाते हैं, लेकिन ऐसे मामलों की पहचान की जा सकती है।
  • प्रस्तावित संशोधन राष्ट्रीय स्मारक प्राधिकरण को भी कमज़ोर करेगा, जो स्मारकों के इर्द-गिर्द 100 मीटर के दायरे में निर्माण के लिये सरकार के अनुरोध की समीक्षा करता है। देश में ऐतिहासिक विरासतों के संरक्षण के लिये यह शुभ संकेत नहीं हैं।
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