इंदौर शाखा: IAS और MPPSC फाउंडेशन बैच-शुरुआत क्रमशः 6 मई और 13 मई   अभी कॉल करें
ध्यान दें:

डेली अपडेट्स


सामाजिक न्याय

भारत के आर्थिक और सामाजिक परिवेश में महिलाएँ

  • 15 May 2019
  • 14 min read

संदर्भ

पिछले कुछ दशकों में, विशेषकर बीते कुछ वर्षों में भारतीय महिलाओं ने सभी क्षेत्रों में उल्लेखनीय प्रगति की है, लेकिन इसके बावजूद अभी भी बहुत कुछ करना बाकी है। इस बार के चुनाव में महिलाओं के रोज़गार पर विशेष रूप से ध्यान केंद्रित किया गया है। कॉन्ग्रेस और भारतीय जनता पार्टी जैसे राष्ट्रीय दलों ने महिलाओं के बीच पहुँच बनाई और अपने घोषणा-पत्र में शहरी एवं ग्रामीण महिलाओं के लिये आजीविका के अवसर उपलब्ध कराने के साथ ही व्यवसायों में प्रोत्साहन देने की बात कही।

श्रम भागीदारी में महिलाओं की स्थिति

इसमें कोई दो राय नहीं कि यदि भारतीय महिलाओं को उन पर लगे अघोषित अनावश्यक प्रतिबंधों और बाधाओं से मुक्त कर दिया जाए तो उनकी आवाज़ सही मायने में सुनी जाएगी। लेकिन फिलहाल जो हालात हैं, वे हर दृष्टि से निराश करने वाले हैं। उदाहरण के लिये, महिलाओं की श्रम भागीदारी संबंधित सर्वेक्षण से प्राप्त हुए निष्कर्ष बहुत चौंकाने वाले हैं।

कार्यक्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी

  • मौजूदा समय में कार्यक्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी में भारत दुनिया के सबसे निचले स्थान पर है।
  • भारत में महिलाओं की कार्यक्षेत्र में भागीदारी दर (Female Labour Force Participation Rate-LFPR) जो 2011-12 में 31.2% थी, 2017-18 में घटकर 23.3% हो गई है।
  • यह गिरावट ग्रामीण क्षेत्रों में बहुत तेज़ी से दर्ज की गई तथा वहाँ 2017-18 में महिलाओं की भागीदारी में 11% से अधिक की कमी आई है।

भागीदारी में गिरावट के प्रमुख कारक

  • समाज में महिलाओं के घर से बाहर जाकर कार्य करने की अस्वीकार्यता।
  • कार्य-क्षेत्र में सुरक्षा के पर्याप्त प्रावधानों का अभाव।
  • श्रम के मूल्य में भेदभाव अर्थात् पुरुषों की तुलना में कम मेहनताना।
  • ग्रामीण महिलाओं के लिये अनुकूल नौकरियों का अभाव।

इन्हीं सब वज़हों से ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाएं कृषि कार्यों में संलग्न रहती हैं तथा शहरी महिलाएँ कम वेतन वाले घरेलू कार्य तथा घर पर किये जा सकने वाले छोटे-मोटे कार्य करती हैं।

योग्यता और कार्य में संबंध

  • हाल ही में हुए एक अध्ययन से यह पता चला है कि महिलाओं की शैक्षिक योग्यता तथा उनकी कृषि और गैर-कृषि क्षेत्र में भागीदारी के अनुरूप मिलने वाले वेतन में नकारात्मक संबंध देखने को मिलता है।
  • उच्च शैक्षिक योग्यता वाली महिलाएँ घर के बाहर ऐसे कार्य नहीं करना चाहती, जिनका स्तर उनको लगता है कि उनकी योग्यता से कम है।
  • इस अध्ययन से यह भी पता चला है कि अधिकतर महिलाएँ ऐसी नौकरियों को वरीयता देती हैं, जिनमें उनकी उच्च शैक्षिक योग्यता के अनुरूप वेतन मिलता हो।
  • एक अनुमान के आधार पर 25 से 59 वर्ष की आयु तक के जो लोग किसान, खेतिहर मज़दूर और घरेलू नौकर के रूप में कार्यरत हैं, उनमें महिलाओं का अनुपात एक-तिहाई यानी लगभग 33% है। इसके विपरीत मैनेजर तथा क्लर्क जैसे कार्यों में यह घटकर 15% रह जाता है।

(ये सभी आँकड़े National Sample Survey Office-NSSO, 2011-2012 के हैं।)

महिलाओं के कार्यों का नहीं होता सही मूल्यांकन (अवैतनिक श्रम)

यहाँ विचारणीय प्रश्न है कि महिलाओं की भागीदारी कार्यक्षेत्र में कम क्यों हो रही है?

सर्वे में पाया गया है कि महिलाएँ अपने समय का काफ़ी हिस्सा ऐसे कामों में खर्च करती हैं जिन्हें काम समझा ही नहीं जाता है तथा उसे उनके कर्त्तव्यों का विस्तार मान लिया जाता है। ऐसे कामों का बड़ा हिस्सा अवैतनिक होता है, जैसे कि घरेलू काम। साधारणतः महिलाओं के जीवन का एक बड़ा हिस्सा घरेलू कामों में ही खप जाता है और इसका कोई आकलन GDP में या अन्य डेटा को बनाने में नहीं किया जाता है।

महिलाओं द्वारा किये जाने वाले कठिन परिश्रम के बावजूद अवैतनिक श्रम में बढ़ोतरी हो रही है तथा महिलाओं पर काम का बोझ तेज़ी से बढ़ रहा है। ऐसा इसलिये हो रहा है क्योंकि सार्वजनिक क्षेत्र में उनके लिये पर्याप्त रोज़गार उपलब्ध करा पाना कठिन है।

घरों में बिना वेतन वाले जो कार्य हैं उनमें बच्चों, बुजुर्गों की देखभाल करना, खाना बनाना, पानी भरकर लाना, पशुओं की देखभाल करना आदि शामिल हैं। इसके अलावा कृषि कार्यों में सहायता एवं वन उत्पादों को एकत्रित करना भी महिलाओं के अवैतनिक कार्यों की श्रेणी में आता है, जिनका उपयोग घरेलू उपभोग के लिये होता है।

प्रवासी महिलाओं के लिये कार्य परिस्थितियाँ

  • प्रवासी महिलाओं के लिये रोज़गार तथा काम करने की परिस्थितियाँ ऐसी होनी चाहिये, जिसमें वे स्वयं को सुरक्षित महसूस करें।
  • शहरों में ऐसे प्रवासी केंद्रों की स्थापना की जानी चाहिये, जिनमें अस्थायी विश्रामस्थल, हेल्पलाइन, कानूनी सहायता और चिकित्सा तथा परामर्श सुविधाएँ उपलब्ध कराई जानी चाहिये।
  • महिला श्रमिकों के लिये सामाजिक सामूहिक आवास स्थल होने चाहिये, जिसमें किराये के आवास और छात्रावास शामिल हैं।
  • सभी बाज़ारों और वेंडिंग ज़ोन्स में महिला विक्रेताओं और फेरी लगाने वाली महिलाओं के लिये स्थान सुनिश्चित करना चाहिये।

सुरक्षित कार्य वातावरण देने हेतु महिलाओं के लिये मुफ्त सुलभ शौचालय, घरेलू उपयोग के लिये पानी की सुविधा, सार्वजनिक परिवहन के साधनों को सुरक्षित बनाना, पर्याप्त बिजली एवं CCTV कैमरों की व्यवस्था करना आदि जैसी सार्वजनिक सुविधाओं की व्यवस्था करना भी ज़रूरी है। ऐसे माहौल में महिलाओं के साथ अभद्रता और हिंसा को रोका जा सकेगा और वे भयमुक्त होकर स्वतंत्रतापूर्वक कहीं भी आ-जा सकेंगी। इनके अलावा महिलाओं को सुरक्षित और गरिमामयी जीवन यापन के लिये मातृत्व लाभ, चिकित्सा लाभ, भविष्य निधि और पेंशन आदि सहित अन्य सामाजिक सुरक्षा योजनाओं में शामिल किया जाना चाहिये।

कृषक के रूप में महिलाओं की पहचान हो

  • कृषि एवं मत्स्य पालन आदि क्षेत्रों में जहाँ महिलाएँ अवैतनिक कार्य करती हैं, वहाँ उनके ऐसे कार्यों की गणना कर उनको पारिश्रमिक दिलवाने की आवश्यकता है।
  • महिला किसानों को भी ‘राष्ट्रीय किसान नीति’ के अनुसार पहचान मिलनी चाहिये, जिसके अंतर्गत कृषक, खेतिहर मज़दूर, पशुपालक, वनकर्मी, मत्स्य पालक और नमक और पान आदि के उत्पादन में लगे श्रमिक शामिल हैं।
  • संभव हो सके तो भूमि पर महिलाओं को समान अधिकार देने तथा बाज़ारों और विस्तार सेवाओं तक उनकी पहुँच सुनिश्चित की जानी चाहिये।

मद्रास उच्च न्यायालय का महत्त्वपूर्ण निर्णय

वर्ष 2017 में मद्रास उच्च न्यायालय ने अपने एक फैसले में टिप्पणी करते हुए कहा था, ‘एक महिला बिना कोई पारिश्रमिक लिये घर की सारी देखभाल करती है। उसे होम मेकर (गृहणी) और बिना आय वाली कहना सही नहीं है। महिला सिर्फ एक मां और पत्नी नहीं होती, वह अपने परिवार की वित्त मंत्री और चार्टर्ड अकाउंटेंट भी होती है।’

न्यायालय ने यह टिप्पणी पुद्दुचेरी बिजली बोर्ड की उस याचिका के संदर्भ दी, जहाँ बोर्ड को बिजली की चपेट में आकर मृत एक महिला के मामले में क्षतिपूर्ति के तौर पर चार लाख रुपए देने थे, जो कि बिजली बोर्ड को इसलिये स्वीकार नहीं था, क्योंकि महिला एक गृहणी थी और उसकी कोई आय नहीं थी। न्यायालय ने बोर्ड की याचिका खारिज करते हुए कहा, ‘हमें खाना पकाना, कपड़े धोना, सफाई करना जैसे रोज़ाना के कामों को अलग नज़रिये से देखने की ज़रूरत है।’

न्यायालय के इस फैसले ने एक गृहणी के गैर-मान्यता प्राप्त अवैतनिक कार्य को वैतनिक, स्वीकृत श्रम के समान माना और उसके कार्य को बराबरी का दर्जा दिया।

इससे पहले सर्वोच्च न्यायालय ने भी अपने एक आदेश में परिवार में महिला के श्रम का मूल्यांकन कर, मुआवज़ा राशि को बढ़ाने का आदेश दिया था। सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात पर भी आपत्ति जताई थी कि क्यों 2001 की जनगणना में समाज के आर्थिक वर्गों की गणना करते हुए घरेलू महिलाओं को कैदियों, भिखारियों और यौनकर्मियों के समकक्ष रखा गया। न्यायालय का कहना था कि जब स्वयं सरकार की ओर से आर्थिक वर्गीकरण करते हुए देश की आधी आबादी को इस दृष्टिकोण से देखा जाएगा तो न केवल उनके श्रम की गरिमा के प्रति यह घोर संवेदनहीनता होगी, बल्कि यह भेदभाव और लैंगिक पूर्वाग्रह की पराकाष्ठा भी होगी।

लेकिन आज भी वस्तुस्थिति यह है कि देश में आधिकारिक तौर पर कराए जाने वाले अध्ययनों व सर्वेक्षणों में गृहणियों की गिनती गैर-उत्पादक वर्ग में की जाती है। होना तो यह चाहिये कि अवैतनिक घरेलू कार्यों की गणना आर्थिक उत्पादन के रूप में की जानी चाहिये न कि उपभोग के रूप में। घरेलू अवैतनिक कार्यों में वे सभी गुण हैं जो कि मानक आर्थिक वस्तु में होते हैं, क्योंकि अगर उनकी प्राप्ति बाज़ार से की जाए तो ये न तो मुफ्त हैं और न ही असीमित।

समस्या का समाधान क्या है?

  • कोई भी सरकार, जो महिलाओं के आर्थिक सशक्तीकरण और आजीविका के समान अधिकारों को सुनिश्चित करने को लेकर गंभीर है, उसे इस मुद्दे पर कई बड़ी चुनौतियों का सामना करना होगा जो अवैतनिक श्रम, कम वेतन आदि जैसे कारकों के साथ मौजूद हैं।
  • ऐसा वातावरण बनाना होगा जिसमें सार्वजनिक कार्यक्षेत्र में महिलाओं को काम करने की सुविधा हो। इसके लिये काम पर रखने में उनके साथ होने वाले भेदभाव को दूर करना होगा तथा समान मजदूरी/वेतन सुनिश्चित करने के साथ उनकी सामाजिक सुरक्षा आदि सुनिश्चित करना भी ज़रूरी है।

महिलाओं के अवैतनिक कार्यों को पहचान कर उनके लिये पारिश्रमिक तय करना सरकार की वरीयताओं में शामिल होना चाहिये। इसके लिये सरकार को घरेलू स्तर पर इन कामों में लगी महिलाओं के आँकड़े जुटाने होंगे। जब तक हमारे नीति निर्माता इन संरचनात्मक मुद्दों का आकलन का सही तरह से नहीं करेंगे तथा महिलाओं को कार्यबल में प्रवेश करने को लेकर बाधाएँ बनी रहेंगी, तब तक भारत में सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन लाना संभव नहीं होगा।

अभ्यास प्रश्न: “देश के सामाजिक-आर्थिक परिवेश को बदलने की दिशा में घरेलू श्रम को आर्थिक उत्पादकता की श्रेणी में लाकर कार्यबल में महिलाओं की संख्या बढ़ाई जा सकती है।” कथन की विवेचना कीजिये।

close
एसएमएस अलर्ट
Share Page
images-2
images-2