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क्यों अवांछनीय है उच्च न्यायालयों के अधिकार-क्षेत्र में अतिक्रमण

  • 30 Oct 2017
  • 9 min read

संदर्भ

  • हाल के कुछ वर्षों में देश के उच्च न्यायालयों के क्षेत्राधिकारों में व्यापक अतिक्रमण देखने को मिला है। आधुनिक न्याय-व्यवस्था में उच्च न्यायालय को सम्मानपूर्ण गरिमामय एवं अधिकारितायुक्त उच्च स्थिति प्राप्त है। इतना ही नहीं हमारे संविधान निर्माताओं ने उच्च न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र को सुप्रीम कोर्ट की तुलना में अधिक व्यापक बनाया है।
  • भारत के गणतंत्र बनने के आरंभिक वर्षों में उच्च न्यायालयों ने कई महत्त्वपूर्ण संवैधानिक संकटों के समाधान की पहल की। उदाहरण के लिये संविधान में प्रथम संशोधन की पहल पटना उच्च न्यायालय ने भूमि सुधार कानून को असंवैधानिक घोषित करते हुए किया था।
  • यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश के 24 उच्च न्यायालयों के अधिकार-क्षेत्र संसद द्वारा लगातार प्रभावित किये जाते रहे हैं। यहाँ तक ​​कि संविधान का सरंक्षक माने जाने वाले सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भी उच्च न्यायालयों के अधिकार-क्षेत्र का अतिक्रमण किया गया है।
  • इस लेख में हम जानेंगे कि क्यों यह अतिक्रमण अवांछनीय है, लेकिन नज़र दौड़ाते हैं उच्च न्यायालय से संबंधित महत्त्वपूर्ण सांविधिक प्रावधान एवं इसकी शक्तियों पर।

उच्च न्यायालय के अधिकार

  • संविधान का अनुच्छेद 214 यह बतलाता है कि प्रत्येक राज्य में एक न्यायालय होगा। वहीं संविधान के अनुच्छेद 215 के अनुसार प्रत्येक राज्य के उच्च न्यायालय को अभिलेख न्यायालय के रूप में स्वीकार किया गया है।
  • गौरतलब है कि अभिलेख न्यायालय में सभी निर्णय एवं कार्यवाहियों को प्रमाण के रूप में प्रकाशित किया जाता है और उसके निर्णय संबंधित राज्य के सभी न्यायालयों में भी माने जाते हैं। राज्य का सबसे बड़ा न्यायालय उच्च न्यायालय ही है। उच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र अत्यंत ही व्यापक है।
  • प्राथमिक अधिकार क्षेत्र: उच्च न्यायालय को दीवानी और फौज़दारी दोनों ही प्रकार के मामलों में विशेष अधिकार प्राप्त हैं। वे सभी दीवानी एवं फौज़दारी मुकदमें, जिन्हें ज़िला न्यायालय नहीं सुन सकते उच्च न्यायालय में ही प्रारम्भ होते हैं। राजस्व तथा उसकी वसूली से संबंधित मुकदमें भी उच्च न्यायालय के प्राथमिक अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत आते हैं।
  • अपीलीय अधिकार क्षेत्र: उच्च न्यायालयों का अपीलीय अधिकार क्षेत्र भी दीवानी और फौज़दारी दोनों प्रकार के मुकदमों तक विस्तृत है। किसी सत्र न्यायालय द्वारा दिये गए मृत्युदंड की संपुष्टि उच्च न्यायालय द्वारा अनिवार्यतः होनी चाहिये।
  • अधीक्षण की शक्ति: संविधान के अनुच्छेद 227 के अनुसार, उच्च न्यायालयों को अधीनस्थ न्यायालयों और न्यायाधिकरणों के अधीक्षण का अधिकार है। साथ ही  उच्च न्यायालयों द्वारा संसद तथा राज्य विधानमंडल द्वारा बनाए किसी ऐसे कानून को असंवैधानिक घोषित किया जा सकता जो संविधान के प्रावधानों के विरुद्ध हो।
  • अन्य अधिकार क्षेत्र: संविधान के अनुच्छेद-226 के अनुसार उच्च न्यायालयों को बंदी-प्रत्यक्षीकरण (writ of habeas corpus) परमादेश (mandamus), प्रतिषेध (prohibition), अधिकार-पृच्छा (quo-warranto), उत्प्रेषण (certiorari) रिट जारी करने का अधिकार दिया गया है।
  • विदित हो कि उच्च न्यायालय को उपर्युक्त रिट जारी करने का अधिकार न केवल मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिये, बल्कि अन्य वैधानिक अधिकारों को लागू करने हेतु भी प्राप्त है।
  • दरअसल, उच्च न्यायालय अपने इस अधिकार का प्रयोग केवल मूल अधिकारों के रक्षार्थ ही नहीं बल्कि अन्य कार्यों के लिये भी कर सकता है, जबकि सर्वोच्च न्यायालय केवल मूल अधिकारों के रक्षार्थ ही रिट जारी कर सकता है। यही कारण है कि उच्च न्यायालय की रिट जारी करने की शक्तियाँ सर्वोच्च न्यायालय की रिट जारी करने की शक्तियों से व्यापक मानी जाती हैं।

कैसे हुआ है यह अतिक्रमण

  • उच्च न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र में सर्वाधिक अतिक्रमण संसद द्वारा किया गया है और संसद ने ऐसा विभिन्न ट्रिब्यूनल्स की स्थापना के ज़रिये किया है।
  • कंपनी अधिनियम, प्रतिस्पर्धा अधिनियम, सेबी अधिनियम, विद्युत अधिनियम, उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के तहत विवादों के निपटारे हेतु ट्रिब्यूनल्स का निर्माण कर उच्च न्यायालयों की शक्तियों को कम कर दिया गया है।
  • संसद द्वारा ट्रिब्यूनल के सन्दर्भ में ऐसी व्यवस्था की गई है कि कोई भी पक्ष यदि ट्रिब्यूनल के फैसले से असंतुष्ट है तो वह सीधे सर्वोच्च न्यायालय का रुख कर सकता है और इस प्रक्रिया में उच्च न्यायालय को साइडलाइन कर दिया जाता है।
  • इतना ही नहीं सर्वोच्च न्यायालय रिट याचिकाओं पर सुनवाई अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जा जाकर करता है, जिसका कि उच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

क्यों अवांछनीय है यह अतिक्रमण

  • दरअसल, आज उच्च न्यायालयों का काम ट्रिब्यूनल कर रहे हैं, जबकि इन ट्रिब्यूनल्स को उच्च न्यायालयों के समान संवैधानिक संरक्षण प्राप्त नहीं है। उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति कॉलेजियम व्यवस्था के ज़रिये होती है, जबकि इन ट्रिब्यूनल्स में नियुक्तियाँ एवं सेवा शर्तें कार्यपालिका द्वारा तय की जाती हैं।
  • यही कारण है कि कई ट्रिब्यूनल्स मंत्रालय विशेष के प्रति अनैतिक रूप से सहयोगात्मक रुख अपनाए रहते हैं। यदि ट्रिब्यूनल्स के निर्णयों को पहले उच्च न्यायालय और फिर सर्वोच्च न्यायालय में ली जाने की व्यवस्था की गई तो एक जवाबदेह व्यवस्था का निर्माण किया जा सकता है।
  • भारत में प्रत्येक राज्य का अपना एक उच्च न्यायालय है, जिनकी कुल संख्या 24 है (दो राज्यों के लिये एक उच्च न्यायालय भी हैं) जबकि ट्रिब्यूनल्स की सीमित संख्या है। उदाहरण के लिये समूचे देश में एनजीटी के केवल चार बेंच हैं।
  • कुछ यही हाल प्रतिभूति अपीलीय ट्रिब्यूनल को लेकर है, जो कि मुंबई में स्थित है। इन परिस्थितियों में एक चेन्नई के शेयरधारक को शिकायत दर्ज़ कराने हेतु मुंबई आना पड़ता है।
  • सर्वोच्च न्यायालय वह स्थान है जहाँ विवादों एवं मामलों का अंतिम निवारण किया जाता है, किन्तु ट्रिब्यूनल्स के मामलों के सीधे हस्तांतरण ने हज़ारों मामलों की सुनवाई का दबाव झेल रही शीर्ष अदालत की चिंताएँ बढ़ा दी हैं।

निष्कर्ष

संविधान निर्माताओं द्वारा व्यापक महत्त्व दिये जाने के बावज़ूद उच्च न्यायालयों की यह स्थिति चिंतिंत करने वाली है। उच्च न्यायालयों में सुनवाई का दौरान विभिन्न प्रकार के मामलों पर विचार-विमर्श करते हुए न्यायाधीश एक विशेष योग्यता अर्जित करते हैं। जब वह सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश बनता है तो यह योग्यता बड़े काम की साबित होती है। उच्च न्यायालयों को उनके अधिकार से वंचित कर हम एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण कर रहे हैं जो हमारी न्याय वितरण प्रणाली के लिये उचित नहीं है।

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