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भारतीय राजनीति

परिवर्तनकारी न्यायिक क्रांति का समय

  • 28 Nov 2022
  • 11 min read

यह एडिटोरियल 23/11/2022 को ‘हिंदू बिज़नेस लाइन’ में प्रकाशित “A burdened judiciary needs help” लेख पर आधारित है। इसमें भारतीय न्यायिक प्रणाली और उससे संबंधित मुद्दों के बारे में चर्चा की गई है।

संदर्भ

न्यायपालिका (Judiciary) कानून की व्याख्या करने और उसे अर्थ प्रदान करने के लिये उत्तरदायी निकाय है। यह संविधान का रक्षक और लोकतंत्र का संरक्षक है। भारतीय संविधान के तहत न्यायपालिका शीर्ष स्तर पर सर्वोच्च न्यायालय के साथ केंद्र और राज्यों के लिये न्यायालयों की एक एकल एकीकृत प्रणाली है।

  • हालाँकि भारतीय न्यायपालिका वर्तमान में कई समस्याओं का सामना कर रही है जो इसकी वैधता को कम कर रही हैं। इसके परिणामस्वरूप जनता का न्याय प्रणाली पर भरोसा कम हो रहा है और लोग अपनी समस्याओं के समाधान के लिये सहायता हेतु इस संस्था की ओर कदम बढ़ाने में संकोच रखते हैं।
  • चूँकि ‘न्याय में देरी न्याय से वंचित होने के समान है’ (Justice delayed is Justice denied), यह महत्त्वपूर्ण है कि न्यायपालिका जल्द-से-जल्द इन बाधाओं को दूर करे ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि भारतीय नागरिक इस संस्था तक पहुँचने में संकोच न करें।

भारत में न्यायपालिका से संबंधित प्रमुख मानदंड

  • कार्यकाल की सुरक्षा: एक न्यायाधीश 65 वर्ष की आयु प्राप्त करने तक अपने पद पर बना रह सकता है। उसे ‘सिद्ध दुर्व्यवहार या अक्षमता’ के आधार पर ही राष्ट्रपति द्वारा हटाया जा सकता है।
  • वेतन और सेवा शर्तों की सुरक्षा: न्यायाधीशों के वेतन, भत्तों आदि को उनकी पदावधि के दौरान अलाभकारी रूप में परिवर्तित नहीं किया जाएगा। वित्तीय आपातकाल की अवधि के अलावा न्यायाधीशों के वेतन को कभी भी कम नहीं किया जा सकता है।
    • उनके वेतन भत्ते भारत की संचित निधि (Consolidated Fund of India) पर भारित होते हैं और इसलिये संसद के मतदान के अधीन नहीं होते हैं।
  • न्यायाधीशों के आचरण पर विधायिका में चर्चा से मुक्त: किसी न्यायाधीश के आचरण या उसके कर्तव्यों के निर्वहन के बारे में संसद में तब तक कोई चर्चा नहीं हो सकती जब तक कि उसे हटाने का प्रस्ताव न लाया गया हो।
  • अपनी कार्य प्रक्रियाओं और स्थापना पर पूर्ण नियंत्रण: सर्वोच्च न्यायालय अपनी कार्य प्रक्रियाओं और अपनी स्थापना के साथ-साथ अपने कर्मचारियों की सेवा शर्तों को तय करने के लिये पूर्ण स्वतंत्र है। इस प्रकार, यह किसी बाहरी एजेंसी के प्रभाव से मुक्त है।
  • न्यायालय की अवमानना के लिये दंड: यदि कोई व्यक्ति या प्राधिकरण उसके अधिकार को कम या अवमानित करने का प्रयास करता है तो सर्वोच्च न्यायालय न्यायलय की अवमानना (Contempt of Court) के लिये उसे दंडित कर सकता है।

भारतीय न्यायिक प्रणाली से संबंधित प्रमुख चुनौतियाँ

  • लंबित मामलों की बड़ी संख्या: भारतीय न्यायालयों के समक्ष 30 मिलियन से अधिक मामले लंबित पड़े हैं।
    • उनमें से 4 मिलियन से अधिक मामले उच्च न्यायालय के पास लंबित हैं जबकि सर्वोच्च न्यायालय के पास 60,000 मामले लंबित हैं। यह तथ्य कि यह आँकड़ा लगातार बढ़ रहा है, न्याय प्रणाली की अपर्याप्तता को प्रदर्शित करता है।
  • विचाराधीन कैदी: भारतीय जेलों में बंद अधिकांश क़ैदी वे हैं जो अपने मामलों में निर्णय की प्रतीक्षा कर रहे हैं (यानी वे विचाराधीन कैदी हैं) और उन्हें निर्णयन तक की अवधि के लिये बंद रखा जाता है।
    • अधिकांश आरोपितों को जेल में एक लंबी सज़ा काटनी पड़ती है (उनके दोषी सिद्ध होने पर दी जा सकने वाली सज़ा अवधि से अधिक समय के लिये) और न्यायालय में स्वयं का बचाव करने से संबद्ध लागत, मानसिक कष्ट और पीड़ा वास्तविक दंड काटने की तुलना में अधिक महंगी और पीड़ादायी सिद्ध होती है।
  • नियुक्ति/भर्ती में देरीः न्यायिक पदों को आवश्यकतानुसार यथाशीघ्र नहीं भरा जाता है। 135 मिलियन आबादी के देश में लगभग 25000 न्यायाधीश ही उपलब्ध हैं।
    • उच्च न्यायालयों में लगभग 400 रिक्तियाँ हैं, जबकि और निचली अदालतों में करीब 35% पद खाली पड़े हैं।
  • CJI की नियुक्ति में पक्षपात और भाई-भतीजावाद: चूँकि भारत के मुख्य न्यायाधीश के पद के लिये उम्मीदवारों के मूल्यांकन के लिये कोई विशिष्ट मानदंड निर्धारित नहीं है, भाई-भतीजावाद और पक्षपात आम है।
    • इसके कारण न्यायिक नियुक्ति में पारदर्शिता का अभाव है, जो विधि-व्यवस्था को विनियमित कर सकने की देश की क्षमता पर नकारात्मक प्रभाव डालती है।
    • इसके अलावा, वे किसी भी प्रशासनिक निकाय के प्रति जवाबदेह नहीं हैं जो सही उम्मीदवार की अनदेखी करते हुए गलत उम्मीदवार के चयन का कारण बन सकता है।
  • प्रतिनिधित्व की असमानता: चिंता का एक अन्य क्षेत्र उच्च न्यायपालिका की संरचना है, जहाँ महिलाओं का प्रतिनिधित्व पर्याप्त रूप से कम है। 1.7 मिलियन पंजीकृत अधिवक्ताओं में से केवल 15% महिलाएँ हैं।
    • उच्च न्यायालयों में महिला न्यायाधीशों का प्रतिशत मात्र 11.5 है, जबकि उच्चतम न्यायालय में वर्तमान में 33 कार्यरत न्यायाधीशों में से मात्र चार ही महिला न्यायाधीश हैं।

आगे की राह

  • नियुक्ति प्रणाली में सुधार: रिक्तियों को तुरंत भरा जाना चाहिये। यह आवश्यक है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिये और अग्रिम सुझाव देने के लिये एक उपयुक्त समयरेखा स्थापित की जाए।
    • एक अन्य महत्त्वपूर्ण तत्व जो निर्विवाद रूप से भारत को एक बेहतर न्यायिक प्रणाली विकसित करने में सहायता कर सकता है, वह है एक अखिल भारतीय न्यायिक सेवा (AIJS) की स्थापना करना।
  • जाँच प्रक्रिया में सुधार: भारत में एक सक्रिय जाँच/अन्वेषण नीति का अभाव है, जिसके कारण कई निर्दोष लोग गलत तरीके से आरोपित किये जाते हैं और दंडित होते हैं।
    • भारत सरकार को न्याय प्रणाली में सभी हितधारकों को ध्यान में रखते हुए एक जाँच नीति तैयार करने की आवश्यकता है जो प्रभावी, सक्रिय और व्यापक हो।
  • न्याय के लिये नवोन्मेषी समाधान: लंबित मामलों की भारी संख्या के समाधान के लिये केवल अधिक न्यायाधीशों की नियुक्ति से ही उद्देश्य पूरा नहीं होगा, बल्कि इसके लिये नवोन्मेषी समाधानों की भी आवश्यकता है।
    • उदाहरण के लिये, मेटावर्स प्रौद्योगिकी के माध्यम से बुनियादी नागरिक मामलों का समाधान, डेटा स्टोर करने के लिये ब्लॉकचेन तकनीक का उपयोग, कार्यप्रवाह के सरलीकरण के लिये आईटी समाधानों की खोज, कोर्टरूम सुविधाओं में सुधार आदि वर्तमान बैकलॉग से निपटने के कुछ सार्थक तरीके हो सकते हैं।
  • बेहतर ज़िला न्यायालय: भारत में न्यायिक सुधार की आवश्यकता में ज़िला न्यायालय चिंता के प्राथमिक क्षेत्र हैं, जिसके लिये उर्ध्वगामी रणनीति (Bottom-up Strategy) की आवश्यकता है।
    • निम्नतम स्तर पर न्यायिक प्रभावशीलता में सुधार के लिये निचली अदालतों के न्यायिक ऑडिट को ध्यान में रखा जाना चाहिये।
  • लैंगिक समानता सुनिश्चित करना: महिला न्यायाधीशों के रूप में अपने सदस्यों के एक निश्चित प्रतिशत के साथ उच्च न्यायपालिका में लैंगिक विविधता को बनाए रखने और बढ़ावा देने की आवश्यकता है जो भारत की लिंग-तटस्थ न्यायिक प्रणाली के विकास की ओर ले जाएगी।

अभ्यास प्रश्न: भारतीय न्यायपालिका से संबंधित प्रमुख चुनौतियों की विवेचना कीजिये। भारतीय न्यायिक प्रणाली की प्रभावशीलता को बढ़ाने के लिये कुछ अभिनव समाधान भी सुझाइये।

  यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

प्रारंभिक परीक्षा:

प्र. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (वर्ष 2019)

  1. भारतीय संविधान के 44वें संविधान संशोधन ने प्रधान मंत्री के चुनाव को न्यायिक समीक्षा से परे रखने वाला एक अनुच्छेद जोड़ा।
  2. भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता के उल्लंघन के रूप में भारत के संविधान के 99वें संशोधन को रद्द कर दिया।

 उपर्युक्त कथनों में से कौन सा/से सही है/हैं?

 (A) केवल 1
 (B) केवल 2
 (C) 1 और 2 दोनों
 (D) न तो 1 और न ही 2

 उत्तर: (B)


मुख्य परीक्षा

प्र. भारत में उच्च न्यायपालिका के न्यायाधीशों की नियुक्ति के संदर्भ में 'राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम, 2014' पर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का आलोचनात्मक परीक्षण करें।  (150 शब्द)

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