इंदौर शाखा: IAS और MPPSC फाउंडेशन बैच-शुरुआत क्रमशः 6 मई और 13 मई   अभी कॉल करें
ध्यान दें:

डेली अपडेट्स


भारत-विश्व

खाड़ी देशों के लिये विदेश नीति

  • 04 Oct 2018
  • 11 min read

संदर्भ

हाल ही में भारतीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में संयुक्त राष्ट्र महासभा के 73वें सत्र को संबोधित किया। इस महासभा में सभी प्रमुख देशों के प्रतिनिधि जैसे - चीन के शीर्ष राजनयिक वांग यी से लेकर एंटीगुआ और बारबूडा के विदेश मंत्री तक शामिल थे हालाँकि, इस सभा में खाड़ी सहयोग परिषद के नेताओं की अनुपस्थिति थी जो कि अफसोस की बात है क्योंकि इस साल संयुक्त राष्ट्र में खाड़ी देशों- अरब और ईरान के बीच का टकराव का मुद्दा शीर्ष अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा मुद्दों में से एक था। साथ ही, यह तर्कसंगत है कि भारत के लिये भी यह सबसे महत्त्वपूर्ण उभरती क्षेत्रीय सुरक्षा चुनौती है। माना जा रहा है कि भारत, अरब दुनिया के साथ-साथ ईरान को विशेषाधिकार देकर अपने हितों को अनदेखा कर रहा है।

खाड़ी सहयोग परिषद (GCC)

  • खाड़ी सहयोग परिषद अरब प्रायद्वीप में छह देशों का एक राजनीतिक और आर्थिक गठबंधन है जिसमें बहरीन, कुवैत, ओमान, कतर, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात शामिल हैं।
  • 1981 में स्थापित, GCC छह राज्यों के बीच आर्थिक, सुरक्षा, सांस्कृतिक और सामाजिक सहयोग को बढ़ावा देता है और सहयोग तथा क्षेत्रीय मामलों पर चर्चा करने के लिये हर साल एक शिखर सम्मेलन आयोजित करता है।

खाड़ी सुरक्षा के मुद्दे पर वैश्विक स्थिति

  • वर्ष 2015 में यूएस और ईरान के बीच परमाणु समझौते पर ज़ोरदार बहस और इस समझौते को राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा त्यागने के बाद यह महत्त्वपूर्ण चर्चा का विषय बन गया।
  • उल्लेखनीय है कि यह इस वर्ष संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के शिखर सम्मेलन के मुख्य विषय का भी हिस्सा था।
  • हाल ही में ईरान पर यूरोप में अमेरिका और उसके सबसे महत्त्वपूर्ण सहयोगियों के बीच मतभेद तेज़ी से उभरकर सामने आए।
  • हालाँकि, ईरान मुद्दे पर वाशिंगटन की असहमति के साथ ही मॉस्को और बीजिंग के लिये भी यह मुद्दा नया नहीं हैं।
  • हाल ही में न्यूयॉर्क में अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पियो और आठ अरब राष्ट्रों के मंत्रियों के बीच हुई बैठक में भारतीय प्रतिनिधिमंडल ने इसके आलोचनात्मक दृष्टिकोण पर ध्यान नहीं दिया जिसमें अरब पक्ष से GCC के छह देशों के साथ-साथ मिस्र और जॉर्डन के भी शामिल थे।
  • बैठक के बाद अमेरिकी विदेश विभाग ने कहा था कि "सभी प्रतिभागियों ने इस क्षेत्र और संयुक्त राज्य अमेरिका को ईरान से होने वाले खतरों का सामना करने की आवश्यकता पर सहमति व्यक्त की है।"
  • इस दौरान सभी मंत्रियों ने इस क्षेत्र में सुरक्षा और स्थिरता को बढ़ावा देने के लिये मध्य पूर्व सामरिक गठबंधन की स्थापना करने जैसे मुद्दों पर "उत्पादक चर्चा" की थी।
  • यहाँ तक कि आलोचकों ने ‘अरब नाटो’ के रूप में एक रखरखाव गठबंधन के गठन पर भी ज़ोर दिया है।
  • कुछ लोग इसे ईरान द्वारा समर्थित मध्य पूर्व में ‘शिया क्रिसेंट’ के उद्भव संबंधी डर का सामना करने के लिये ‘सुन्नी चुनौती’ कहते हैं।

शिया क्रिसेंट क्या है ?

  • यह एक भू-राजनैतिक अवधारणा है इस पद का प्रयोग मध्यपूर्व की राजनीति में शिया दृष्टिकोण से क्षेत्रीय सहयोग की क्षमता को दर्शाने के लिये किया जाता रहा है।
  • हाल के वर्षों में ईरान ने मध्य पूर्व में अपने प्रभाव को बढ़ाने के लिये बाधाओं का लाभ उठाया है।
  • वर्ष 2003 में इराक पर आक्रमण, अरब स्प्रिंग के परिणामस्वरूप अस्थिरता, आईएसआई जैसे सुन्नी चरमपंथी आंदोलनों के उदय ने ईरान को अपनी सैन्य और राजनीतिक लक्ष्यों को आगे बढ़ाने में सक्षम बनाया है।
  • तेहरान जो कि एक ‘भूमि पुल’ के रूप में ईरान से इराक होकर सीरिया, लेबनान, गोलन में इज़राइली सीमा तक जुड़ता है दरअसल, इसे ही शिया क्रिसेंट कहा जाता है।
  • जनवरी में लॉन्च होने वाले इस नए संगठन से ईरान के खिलाफ अमेरिका प्रतिबंधों को मज़बूत किये जाने कि उम्मीद है जो अगले महीने से प्रभावी हो जाएगा।
  • दरअसल, संदेहवादियों का मानना है कि मध्य पूर्व सामरिक गठबंधन को अरब खाड़ी के भीतर विभाजनों के साथ बनाए रखना मुश्किल होगा। लेकिन अमरीका को उम्मीद है कि क्षेत्रीय अरब गठबंधन वित्तीय बाध्यताओं के साथ मिलकर ईरान के इस्लामी गणराज्य को अपने व्यवहार को बदलने के लिये मज़बूर करेगा।
  • इस संदर्भ में आलोचकों का तर्क है कि यह वास्तव में तेहरान में ‘शासन परिवर्तन’ से संबंधित है।

खाड़ी देश के लिये भारत की विदेश नीति

  • पिछले दो दशकों में भारत को अमेरिका के साथ घनिष्ठ साझेदारी बनाने के लिये ईरान कारक का प्रबंधन करना पड़ा है।
  • खाड़ी सुरक्षा के मुद्दे पर भारत में भले ही बहस नहीं हुई है लेकिन इससे किसी भी तरह से इसका महत्त्व कम नहीं होता है।
  • भारत ईरान के साथ राष्ट्रपति बराक ओबामा के परमाणु समझौते और खाड़ी के अरब देशों में कड़े विरोध के बारे में भी जागरूक है।
  • अब प्रश्न यह है कि भारत की विदेश नीति को कैसे खाड़ी क्षेत्र में तेज़ी से बदलती स्थिति से निपटना चाहिये।
  • उल्लेखनीय है कि भारत की आर्थिक और राजनीतिक विशेषताएँ दुनिया के किसी अन्य उप-क्षेत्र से मेल नहीं खाती हैं।
  • लेकिन यहाँ समस्या भारत द्वारा इसके एक हिस्से यानी अमेरिकी प्रश्न पर विचार करने और दूसरे पक्ष यानी अरब के प्रश्न पर मौन रहने से उत्त्पन्न होती है।
  • दरअसल, ईरान के परमाणु प्रसार के लिये भारत का दृष्टिकोण दिल्ली और वाशिंगटन के बीच एक बड़ा मुद्दा बन गया था।
  • भारत के कुछ परंपरावादी विचारकों ने तर्क दिया कि भारत को अमेरिका के खिलाफ ईरान के साथ खड़ा होना चाहिये, जबकि यथार्थवादियों के छोटे समूह ने ज़ोर देकर कहा कि भारत को ईरान की बजाय अपने परमाणु हितों का खयाल रखना चाहिये।
  • ईरान ने परमाणु समझौते और ओबामा प्रशासन से कुछ प्रतिबंधों पर राहत देने के लिये प्रमुख राजनीतिक रियायतें दीं थीं किंतु ट्रंप प्रशासन इसे काफी अच्छा नहीं मानता है।
  • अमेरिकी राष्ट्रपति को भरोसा है कि ईरान वाशिंगटन के साथ परमाणु समझौते पर फिर से बातचीत करेगा।
  • अतः भारतीय अर्थव्यवस्था पर अमेरिका की ईरान प्रतिबंधों के प्रभाव से बचने के तरीकों को खोजने के लिये भारत द्वारा उठाए गये कदम पर्याप्त व्यावहारिक हैं।
  • लेकिन जब खाड़ी देश – अरब और ईरान के बीच संघर्ष से निपटने की बात आती है तो भारत का दृष्टिकोण यथार्थवाद से वंचित दिखाई देता है।
  • उल्लेखनीय है कि भारत का झुकाव तेहरान की ओर अधिक है लेकिन भारत के अधिकांश हित जैसे - व्यापार, ऊर्जा, प्रवासी प्रेषण और आतंकवाद विरोधी सहयोग आदि सभी अरब देशों से जुड़े हुए हैं।
  • मध्य पूर्व के देशों का मानना है कि भारत जो हर अवसर पर उपमहाद्वीप में पाकिस्तान के अस्थिरता को अस्वीकार करती है, कभी भी अरब दुनिया में क्षेत्रीय राजनीतिक व्यवस्था को कमज़ोर करने के लिये ईरान के प्रयास के बारे में कोई आलोचना नहीं करता है।
  • इसलिये दिल्ली ईरान के बारे में गहन अरब भय और भारत से राजनीतिक समझ के आकलन के लिये उसकी अपेक्षा को अनदेखा नहीं कर सकता है।

निष्कर्ष :

  • उपर्युक्त वैश्विक घटनाक्रमों को ध्यान में रखते हुए भारत को खाड़ी देशों के लिये मज़बूत और प्रभावशाली विदेश नीति प्रस्तुत करने की आवश्यकता है ताकि भारत का खाड़ी देशों के साथ संबंध सामान्य रहे और भविष्य की आवश्यकताओं पर भी कोई आँच न आए। हालाँकि, भारत ने इस क्षेत्र हेतु कई महत्त्वपूर्ण प्रयास किये भी किंतु ये प्रयास स्थिति की गंभीरता को देखते हुए पर्याप्त नहीं है।
  • भले ही भारत ने अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं एवं अन्य कारणों से अमेरिका के साथ अपने संबंधों को बढ़ावा दिया है, किंतु खाड़ी देशों से अधिकांश भारतीयों का रोज़गार और विदेशी मुद्रा प्रेषण जैसे हित जुड़े हुए हैं, जिसे दरकिनार नहीं किया जा सकता है।
close
एसएमएस अलर्ट
Share Page
images-2
images-2
× Snow