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भारतीय अर्थव्यवस्था

‘डी-डॉलराइज़ेशन’ को बढ़ावा देना

  • 30 Jan 2023
  • 16 min read

यह एडिटोरियल 26/01/2023 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित “Contesting the hegemony of the dollar” लेख पर आधारित है। इसमें वैश्विक व्यापार में अमेरिकी डॉलर के प्रभुत्व को कम करने के विभिन्न देशों के प्रयासों के बारे में चर्चा की गई है।

संदर्भ

‘डी-डॉलराइज़ेशन’ (De-dollarisation) से तात्पर्य है वैश्विक बाज़ारों में डॉलर के प्रभुत्व को कम करना। यह तेल और/या अन्य वस्तुओं के व्यापार, विदेशी मुद्रा भंडार के लिये अमेरिकी डॉलर की खरीद, द्विपक्षीय व्यापार समझौते, डॉलर-डिनोमिनेटेड आस्तियों आदि के मामले में अमेरिकी डॉलर को अन्य मुद्राओं से प्रतिस्थापित करने की प्रक्रिया है।

  • वैश्विक अर्थव्यवस्था में डॉलर का प्रभुत्व अमेरिका को अन्य अर्थव्यवस्थाओं पर असंगत रूप से अधिक प्रभाव प्रदान करता है। अमेरिका ने लंबे समय से विदेश नीति लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये एक उपकरण के रूप में प्रतिबंधों (Sanctions) का इस्तेमाल किया है।
  • डी-डॉलराइज़ेशन विभिन्न देशों के केंद्रीय बैंकों को भू-राजनीतिक जोखिमों से बचाने की इच्छा से प्रेरित है, जहाँ आरक्षित मुद्रा के रूप में अमेरिकी डॉलर की स्थिति को एक आक्रामक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है।

डॉलर के उपयोग या ‘डॉलराइज़ेशन’ से संबद्ध चुनौतियाँ

  • आर्थिक संप्रभुता को खतरा:
    • कई देशों का मानना है कि वैश्विक व्यापार में डॉलर का प्रभुत्व उनकी आर्थिक संप्रभुता के लिये खतरा उत्पन्न करता है, क्योंकि यह अमेरिकी सरकार को वैश्विक अर्थव्यवस्था पर उल्लेखनीय नियंत्रण प्रदान करता है।
  • मुद्रा संबंधी हेरफेर:
    • वैश्विक व्यापार में डॉलर का प्रभुत्व अमेरिकी सरकार को अन्य देशों पर आर्थिक लाभ हासिल करने के लिये अपनी मुद्रा में हेरफेर करने का अवसर देता है।
  • वित्तीय संकट का जोखिम:
    • वैश्विक व्यापार में डॉलर के प्रभुत्व से वैश्विक वित्तीय संकट का खतरा भी बढ़ जाता है, क्योंकि अमेरिकी अर्थव्यवस्था में संकट का वैश्विक अर्थव्यवस्था पर शृंखला प्रभाव (Ripple Effect) उत्पन्न हो सकता है।
  • अमेरिका पर निर्भरता:
    • वैश्विक व्यापार व्यापक रूप से अमेरिकी डॉलर में संचालित होता है, इसलिये जो देश अमेरिका के साथ बहुत अधिक संलग्न होते हैं, वे अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर अत्यधिक निर्भर बन सकते हैं।
  • भू-राजनीति:
    • कुछ देश अमेरिकी डॉलर पर अपनी निर्भरता कम करना चाहते हैं क्योंकि इसे अपनी अर्थव्यवस्था पर अमेरिकी प्रभाव को कम करने के एक तरीके के रूप में देखते हैं और कुछ मामलों में इसे अमेरिकी प्रभुत्व के विरुद्ध एक प्रतिरोध के रूप में भी देखा जाता है।

डी-डॉलराइज़ेशन के लाभ

  • अमेरिकी डॉलर पर निर्भरता कम करना:
    • अन्य मुद्राओं या मुद्राओं के एक समूह के उपयोग से दुनिया के देश अमेरिकी डॉलर और अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर अपनी निर्भरता कम कर सकते हैं। यह अमेरिका के आर्थिक एवं राजनीतिक घटनाक्रमों का उनकी अर्थव्यवस्थाओं पर प्रभाव को कम करने में मदद कर सकता है।
  • आर्थिक स्थिरता में सुधार:
    • विभिन्न देश अपने मुद्रा भंडार में विविधता लाकर मुद्रा में उतार-चढ़ाव और ब्याज दर में परिवर्तन के प्रति अपने जोखिम को कम कर सकते हैं, जिससे आर्थिक स्थिरता को सुदृढ़ करने तथा वित्तीय संकट के जोखिम को कम करने में मदद मिल सकती है।
  • व्यापार और निवेश बढ़ाना:
    • अन्य मुद्राओं का उपयोग कर विभिन्न देश ऐसे अन्य देशों के साथ व्यापार और निवेश बढ़ा सकते हैं जो अमेरिका के साथ मजबूत संबंध नहीं रखते; इससे विकास के लिये नए बाज़ारों और अवसरों का द्वार खुल सकता है।
  • अमेरिकी मौद्रिक नीति के प्रभाव को कम करना:
    • अमेरिकी डॉलर के उपयोग को कम करके दुनिया के देश अपनी अर्थव्यवस्थाओं पर अमेरिकी मौद्रिक नीति के प्रभाव को कम कर सकते हैं।

राष्ट्रीय मुद्राओं से संबद्ध चुनौतियाँ

  • पूर्ण परिवर्तनीय नहीं:
    • राष्ट्रीय मुद्राओं (National Currencies) के लिये एक चुनौती यह है कि ये पूर्ण परिवर्तनीय (Fully Convertible) नहीं हैं। इस परिदृश्य में, व्यापार की वैकल्पिक प्रणालियों और विभिन्न मुद्रा संचलन प्रणालियों के उदय के बावजूद अमेरिकी डॉलर अभी भी हावी बना हुआ है।
  • मुद्रा की अस्थिरता:
    • राष्ट्रीय मुद्राएँ डॉलर के सापेक्ष मूल्य में उतार-चढ़ाव प्रदर्शित कर सकती हैं, जिससे विभिन्न देशों के लिये अपनी आर्थिक नीतियों की योजना बनाना और व्यवसायों के लिये दीर्घकालिक निवेश करना कठिन सिद्ध हो सकता है।
  • अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में राष्ट्रीय मुद्राओं का सीमित उपयोग:
    • अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में डॉलर का व्यापक रूप से उपयोग किया जाता है, जिससे राष्ट्रीय मुद्राओं के लिये प्रतिस्पर्द्धा करना कठिन हो जाता है। इससे देशों के लिये एक दूसरे के साथ व्यापार करना और व्यवसायों के लिये अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विस्तार करना जटिल बन सकता है।
  • डॉलर पर निर्भरता:
    • कई देश व्यापार एवं वित्तीय लेन-देन के लिये डॉलर पर बहुत अधिक निर्भर हैं, जो उन्हें डॉलर के मूल्य में परिवर्तन और अमेरिकी सरकार की नीतियों के प्रति संवेदनशील या भेद्य बनाता है।
  • वित्तीय अस्थिरता:
    • अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय प्रणाली में डॉलर का प्रभुत्व अन्य देशों में वित्तीय अस्थिरता में योगदान कर सकता है, क्योंकि वे वित्तीय संकटों के प्रति अधिक संवेदनशील बन सकते हैं।
  • मौद्रिक संप्रभुता:
    • डॉलर की वर्चस्ववादी भूमिका अन्य देशों की मौद्रिक संप्रभुता को सीमित करती है जहाँ उनके लिये अपनी अर्थव्यवस्थाओं को स्थिर करने के लिये मौद्रिक नीति का उपयोग करना कठिन हो जाता है।

विभिन्न देशों की सरकारों द्वारा उठाये गए कदम

  • वैश्विक प्रयास:
    • द्विपक्षीय ‘करेंसी स्वैप’:
      • आसियान देशों, चीन, जापान और दक्षिण कोरिया के बीच द्विपक्षीय करेंसी स्वैप (Bilateral Currency Swaps) 380 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुँच गया है और इसमें लगातार वृद्धि हो रही है।
      • इसी तरह, दक्षिण अफ्रीका के ‘रैंड’ (Rand) का उपयोग कई अफ्रीकी देशों द्वारा किया जा रहा है।
      • लैटिन अमेरिकी देश अधिक अंतर-क्षेत्रीय व्यापार की ओर आगे बढ़ रहे हैं।
    • राष्ट्रीय मुद्राओं में व्यापार की शुरुआत:
  • भारत के प्रयास:
    • जुलाई 2022 में भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) ने निर्दिष्ट भारतीय बैंकों में विशेष वोस्ट्रो खातों (vostro accounts) की अनुमति देकर अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के लिये एक ‘रुपया निपटान प्रणाली’ का अनावरण किया जो रुपए के अंतर्राष्ट्रीयकरण की दिशा में एक सजग कदम है।

आगे की राह

  • विदेशी मुद्रा भंडार का विविधीकरण:
    • विभिन्न देशों की सरकारें यूरो या चीनी युआन जैसी अन्य मुद्राओं में अपने विदेशी मुद्रा भंडार का एक बड़ा भाग धारण कर अमेरिकी डॉलर पर अपनी निर्भरता कम कर सकती हैं।
  • अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में घरेलू मुद्राओं के उपयोग को प्रोत्साहित करना:
    • सरकारें अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में अपनी स्वयं की मुद्राओं के उपयोग को बढ़ावा दे सकती हैं जहाँ कारोबारों को इनके उपयोग के लिये वित्तीय प्रोत्साहन प्रदान कर आकर्षित किया जा सकता है।
      • वर्ष 2019 से भारत रूस को ईंधन, तेल, खनिज और विशिष्ट रक्षा आयात के लिये अनौपचारिक रूप से रुपए में भुगतान कर रहा है।
  • वैकल्पिक भुगतान प्रणाली विकसित करना:
    • सरकारें वैकल्पिक भुगतान प्रणालियों (जैसे चीनी नेतृत्व वाला एशियन इंफ्रास्ट्रक्चर इंवेस्टमेंट बैंक) के विकास के लिये प्रयास कर सकती हैं जो डॉलर पर निर्भर नहीं हों।
  • आर्थिक गठजोड़ का निर्माण:
    • डॉलर पर निर्भरता कम करने के लिये विभिन्न सरकारें अन्य देशों के साथ आर्थिक गठजोड़ का निर्माण कर सकती हैं।
  • अन्य मुद्राओं में निवेश:
    • मुद्रा में उतार-चढ़ाव के जोखिम को कम करने या डॉलर के आधिपत्य का मुकाबला करने के लिये सरकारें अन्य मुद्राओं में निवेश भी कर सकती हैं।

अभ्यास प्रश्न: अमेरिकी डॉलर के आधिपत्य ने किस हद तक वैश्विक आर्थिक एवं राजनीतिक व्यवस्था को आकार दिया है और इस आधिपत्य को कैसे कम किया जा सकता है?

 यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ) 

प्रश्न. हाल ही में, निम्नलिखित में से किस मुद्रा को IMF के SDR बास्केट में शामिल करने का प्रस्ताव किया गया है? (वर्ष 2016)

(A) रूबल
(B) रैंड
(C) भारतीय रुपया
(D) रॅन्मिन्बी

उत्तर: (D)

  • विशेष आहरण अधिकार (SDR) एक अंतर्राष्ट्रीय आरक्षित संपत्ति है, जिसे IMF द्वारा वर्ष 1969 में अपने सदस्य देशों के आधिकारिक भंडार के पूरक के लिये बनाया गया था।
  • SDR का मूल्य पाँच मुद्राओं की एक टोकरी पर आधारित है - यूएस डॉलर, यूरो, चीनी रॅन्मिन्बी, जापानी येन और ब्रिटिश पाउंड स्टर्लिंग।
  • चीनी रॅन्मिन्बी को 1 अक्टूबर, 2016 को मुद्राओं की टोकरी में जोड़ा गया था। अतः विकल्प (D) सही उत्तर है।

प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (वर्ष 2019)

  1. क्रय शक्ति समता (PPP) विनिमय दरों की गणना विभिन्न देशों में वस्तुओं और सेवाओं की एक ही टोकरी की कीमतों की तुलना करके की जाती है।
  2. PPP डॉलर के लिहाज से भारत दुनिया की छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन सा/से सही है/हैं?

(A) केवल 1
(B) केवल 2
(C) 1 और 2 दोनों
(D) न तो 1 और न ही 2

उत्तर: (A)

  • अर्थव्यवस्थाओं में मूल्य स्तरों में काफी अंतर के कारण बाज़ार विनिमय दर परिवर्तित जीडीपी, अर्थव्यवस्थाओं के सापेक्षिक आकार और भौतिक कल्याण के स्तरों को सही ढंग से नहीं मापता है। दूसरी ओर क्रय शक्ति समानता (PPP) अर्थव्यवस्थाओं के उत्पादन और उनके निवासियों के कल्याण की 'वास्तविक' शर्तों में तुलना करना संभव बनाती है।
  • PPP एक आर्थिक सिद्धांत है जो "बास्केट ऑफ गुड्स" दृष्टिकोण के माध्यम से विभिन्न देशों की मुद्राओं की तुलना करता है। इस अवधारणा के अनुसार, दो मुद्राएँ संतुलन में होती हैं - जिन्हें मुद्राओं का सममूल्य के रूप में जाना जाता है - जब विनिमय दरों को ध्यान में रखते हुए, दोनों देशों में वस्तुओं की एक टोकरी की कीमत समान होती है। हर तीन साल में विश्व बैंक पीपीपी और अमेरिकी डॉलर के संदर्भ में विभिन्न देशों की तुलना करने वाली एक रिपोर्ट जारी करता है। अतः कथन 1 सही है।
  • PPP डॉलर के संदर्भ में चीन (23.52 ट्रिलियन डॉलर) दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, इसके बाद संयुक्त राज्य अमेरिका (21.4 ट्रिलियन डॉलर) और भारत (9.56 ट्रिलियन डॉलर) क्रमशः दूसरे और तीसरे स्थान पर हैं। अतः कथन 2 सही नहीं है।
  • हालाँकि नाममात्र जीडीपी के मामले में संयुक्त राज्य अमेरिका दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है जिसके बाद चीन है। जापान तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है जबकि जर्मनी और भारत क्रमशः चौथे और पाँचवें स्थान पर हैं। अतः विकल्प (A) सही उत्तर है।

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