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भारतीय अर्थव्यवस्था

सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का निजीकरण

  • 13 Apr 2021
  • 8 min read

यह लेख "बैंकों के राष्ट्रीयकरण के आर्थिक औचित्य" पर आधारित है, जिसे द हिंदुस्तान टाइम्स में 10/04/2021 को प्रकाशित किया गया था। यह राष्ट्रीयकृत PSB के पक्ष और विपक्षों की बात करता है।

बैंक किसी भी अर्थव्यवस्था में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और इसकी प्रमुख प्रेरक शक्ति हैं। हालाँकि हाल के वर्षों में, भारतीय बैंकिंग क्षेत्र में कई सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक (PSB) घोटाले के शिकार हुए हैं और उच्च गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों (NPA) के कारण भी इन्हें भारी नुकसान का सामना करना पड़ा है।

इसके कारण कई अर्थशास्त्रियों ने सरकार को PSB के निजीकरण का सुझाव दिया है और अब RBI तथा सरकार इन बैंकों के निजीकरण पर विचार कर रहे हैं।

हालाँकि कोई भी निर्णय लेने से पहले सरकार को राष्ट्रीयकृत PSB के सकारात्मक और नकारात्मक पक्षों पर सक्रिय रूप से विचार करना चाहिये।

बैंकों के राष्ट्रीयकृत बने रहने के पक्ष में तर्क

  • बैंकिंग क्षेत्र का लोकतंत्रीकरण: भारत में बैंकों का राष्ट्रीयकरण वर्ष 1969 में पहली बार किया गया था। इससे पहले वे अपने धन का 67% उद्योगों को देते थे और कृषि क्षेत्र में वित्त उपलब्ध कराने के प्रति अत्यंत उदासीन थे।
  • इसके अलावा, वाणिज्यिक बैंक किसानों को पैसा उधार नहीं दे सकते थे क्योंकि वे केवल 1% से भी कम गाँवों में मौजूद थे।
  • जब हरित क्रांति चल रही थी तब किसानों को बैंक ऋण नहीं मिल पाया था और उन्हें अपना उत्पादन बढ़ाने के लिये महँगी लागत हेतु अधिक क्रेडिट की आवश्यकता थी।
  • इस प्रकार राष्ट्रीयकृत बैंकों ने जनता की बैंकिंग सेवाओं के लोकतंत्रीकरण में मदद की।
  • सामाजिक कल्याण को बढ़ाना: सार्वजनिक बैंक भारत के गैर-लाभकारी ग्रामीण क्षेत्रों या गरीब क्षेत्रों में भी शाखाएँ, एटीएम, बैंकिंग सुविधाएँ आदि उपलब्ध कराते हैं, जहाँ बड़ी जमा राशि प्राप्त करने या पैसा कमाने की संभावना कम होती है।
  • हालाँकि निजी बैंक ऐसा करने के इच्छुक नहीं होते हैं और वे प्रायः ऐसी सुविधाएँ शहरी क्षेत्रों में खोलना पसंद कर सकते हैं।
  • यदि कॉर्पोरेट क्षेत्र को फिर से बैंकिंग पर हावी होने दिया जाता है तो जनता की सेवा करने की इच्छा के बजाय लाभ कमाना उनका प्रमुख उद्देश्य बन जाएगा।
  • अंतर्राष्ट्रीय उदाहरण: ज्यादातर पूर्वी एशियाई सफल देशों के संदर्भ में यह देखा गया कि वहाँ की वित्तीय प्रणालियों को प्रभावी रूप से सरकारों द्वारा नियंत्रित किया गया है।
  • दूसरी ओर, पश्चिमी देश जहाँ बैंकिंग काफी हद तक निजी क्षेत्र के हाथों में है,  की सरकारों को निजी बैंकों को दिवालिया होने से बचाना पड़ा है।

बैंकों के राष्ट्रीयकृत बने रहने के विरुद्ध तर्क

  • निजीकरण का मतलब है सरकारी स्वामित्व वाली कंपनी को पूरी तरह से या आंशिक रूप से निजी क्षेत्र को बेचना या इसके स्वामित्व को  निजी क्षेत्र में स्थानांतरित करना। भारत की अर्थव्यवस्था को अपेक्षाकृत बंद अर्थव्यवस्था से मुक्त करने के लिये यह वर्ष 1991 में निजीकरण को बढ़ावा दिया गया था।

हालाँकि हाल के वर्षों में निम्नलिखित कारक भारत सरकार को राष्ट्रीयकृत बैंकों के निजीकरण हेतु प्रेरित कर रहे हैं:

  • NPA का विस्तार: बैंकिंग प्रणाली गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों (NPA) के बोझ से दबी हुई है और यह समस्या अधिकांश सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में निहित है।
  • विनियामक निगरानी की कमी: PSB को RBI (RBI अधिनियम, 1934 के तहत) और वित्त मंत्रालय (बैंकिंग विनियमन अधिनियम, 1949 के तहत) द्वारा पूरी तरह से नियंत्रित किया जाता है।
  • इस प्रकार RBI के पास PSB के नियंत्रण से संबंधित सभी शक्तियाँ नहीं हैं, जो कि निजी क्षेत्र के बैंकों के संबंध में प्राप्त हैं, जैसे कि बैंकिंग लाइसेंस को रद्द करने, बैंक का विलय करने, बैंक को बंद करने या निदेशक मंडल को दंडित करने से संबंधित शक्तियाँ।
  • स्वायत्तता का अभाव: सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक बोर्ड अभी भी पर्याप्त रूप से विशेषज्ञता प्राप्त नहीं हैं, क्योंकि सरकार की अभी भी बोर्ड के सदस्यों की नियुक्तियों में बड़ी भूमिका है।
  • यह बैंकों के सामान्य कामकाज में राजनीतिकरण और हस्तक्षेप का मुद्दा बनता है।
  • इसे टेलीफोन बैंकिंग कहा जाता है, जिसमें राजनेता बैंक अधिकारियों को टेलीफोन रिंग द्वारा अपने क्रोनियों को पैसा उधार देने के निर्देश देते हैं।
  • मुनाफे की निकासी: निजी बैंक लाभ-चालित होते हैं जबकि सरकारी योजनाओं जैसे कि कृषि ऋण माफी आदि से PSB का कारोबार बाधित होता है।
  • सामान्य तौर पर, सार्वजनिक उपक्रमों को सार्वजनिक मांग के चलते अनुत्पादक परियोजनाओं को भी वित्त उपलब्ध कराना होता है।

आगे की राह 

  • शासन में सुधार: PSB के शासन और प्रबंधन में सुधार के लिये पीजे नायक समिति की सिफारिशों को लागू करने की आवश्यकता है।
  • बैंकों को जोखिम रहित बनाना: NPA के प्रभावी समाधान और ऋण देने के लिये विवेकपूर्ण मानदंडों का पालन करने की आवश्यकता है।
  • इस संदर्भ में बेड बैंकों की स्थापना और इनसॉल्वेंसी बैंकरप्सी कोड के माध्यम से NPA के शीघ्र समाधान की दिशा में कदम अत्यंत प्रभावी हैं।
  • PSB का निगमीकरण: अंधे निजीकरण के बजाय PSB को जीवन बीमा निगम (एलआईसी) जैसे निगम में परिवर्तित किया जा सकता है। यह सरकारी स्वामित्व को बनाए रखते हुए PSBs को अधिक स्वायत्तता देगा।

निष्कर्ष

निजी क्षेत्र के बैंकों के पास PSB की तुलना में बेहतर बैलेंस शीट होने के बावजूद यह विचार करना बहुत महत्त्वपूर्ण है कि केवल निजीकरण इस क्षेत्र के सामने आने वाली सभी समस्याओं को हल नहीं करेगा। निजीकरण से बेहतर समाधान शायद स्वयं को सुधारने के लिये PSB को स्वायत्तता देना और उन्हें राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त रहते हुए कार्य करने देना हो सकता है।

प्रश्न: PSB के निजीकरण से बेहतर समाधान उन्हें स्वयं को सुधारने के लिये स्वायत्तता देना और राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त रहते हुए कार्य करने देना हो सकता है। टिप्पणी कीजिये। 

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