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खुले में शौच: आखिर क्यों नहीं बदलती यह प्रवृत्ति?

  • 23 Feb 2017
  • 8 min read

सन्दर्भ

विदित हो कि वर्ष 2015 में जारी संयुक्त राष्ट्र की सहस्राब्दी विकास लक्ष्य रिपोर्ट के अनुसार विश्व में भारत के सबसे ज़्यादा लोग खुले में शौच करते हैं। ग्रामीण भारत में अभी भी बड़ी संख्या में लोग खुले में शौच के लिये जाते हैं। हमारे देश में सरकारी सहायता से स्वच्छता प्राप्त करने की तमाम कोशिशें बहुत पहले से ही हो रही हैं, और इसके लिये बहुत से अभियान भी चलाए गए जैसे पूर्ण स्वच्छता अभियान, निर्मल भारत अभियान आदि। मोदी सरकार ने शासन सम्भालते ही स्वच्छ भारत अभियान का लोकार्पण किया था। स्वच्छ भारत अभियान के तहत बड़ी संख्या में शौचालय बनाएगए हैं फिर भी भारत में इतनी बड़ी संख्या में लोग घर में  शौचालय होते हुए भी खुले में शौच जाने को प्राथमिकता क्यों देते हैं? यह सवाल नीति निर्माताओं, शोधकर्ताओं और वैज्ञानिकों के लिये काफी पेचीदा है।

क्यों शौचालय का उपयोग नहीं करते हैं लोग ?

  • खुले में शौच को सामाजिक मान्यता मिली हुई है जबकि शौचालय को विलासिता या महँगी चीज माना जाता है। शौचालय निर्माण के फैसले प्रतिष्ठा से जुड़े हुए हैं जिनका स्वास्थ्य की चिन्ता से कम वास्ता है। इस प्रकार जिन लोगों ने अपने घर में शौचालय का निर्माण कराया वे सामाजिक-आर्थिक रूप से उच्च स्थिति में थे। साथ ही वे शौचालय से सम्बन्धित लाभ के विषय में जागरूक थे। इसी वज़ह से उन्होंने अपनी प्राथमिकताओं के हिसाब से बहुत महँगे शौचालयों का निर्माण कराया।
  • पवित्रता और प्रदूषण की अवधारणाओं के कारण उपर्युक्त शौचालय मॉडल को अनदेखा किया गया। घरों में निर्मित शौचालयों को सरकार द्वारा बनाए गए शौचालयों की अपेक्षा ज़्यादा तवज्ज़ो दी गई। क्योंकि सरकार द्वारा निर्मित शौचालयों के गड्ढे छोटे थे इसलिये पवित्रता और प्रदूषण के लिहाज से लोगों को सही नहीं लगे।
  • खुले में शौच व्यवहार उम्र और लिंग के हिसाब से भिन्न पाया जाता है। ग्रामीण खुले में शौच को प्राथमिकता इसलिये देते हैं क्योंकि इससे उन्हें आपस में बातचीत करने का मौका मिलता है और साथ ही समुदाय में यह एक रिवाज है। खुले में शौच का सम्बन्ध लिंग और उम्र से है।
  • एक ओर जहाँ वृद्ध पुरुष एवं महिलाएँ शौचालय का उपयोग करते हैं वहीं युवा और अधेड़ पुरुष खुले में शौच जाना पसन्द करते हैं। पुरुष और महिला में तुलना करने पर पाया गया कि ज़्यादातर पुरुषों का रुझान खुले में शौच की तरफ होता है तो महिलाएँ अपनी लज्जालु स्वभाव के कारण शौचालय के उपयोग को प्राथमिकता देती हैं।
  • स्वच्छ भारत अभियान के तहत बनाए जा रहे शौचालयों के गड्ढे इतने छोटे हैं कि यह ज़ल्दी ही भर जाते हैं। विदित हो कि भारत में मैला ढोने की परम्परा को कानूनी तौर पर प्रतिबंधित कर दिया है। अब लोगों को स्वयं अपने शौचालयों के गड्ढे साफ करने होंगे, जो कि एक स्वागत योग्य कदम है। लेकिन समस्या यह है कि भारत में लोग स्वयं के अपशिष्ट को भी साफ करने को धार्मिक आधार  पर एक प्रतिबंधित कृत्य मानते हैं। अतः शौचालयों के गड्ढे भर जाने के डर से वे खुले में शौच करने को ही बेहतर समझते हैं।

क्या हो आगे का रास्ता ?

  • दरअसल, भारत में स्वच्छता से जुड़े मसलों पर बातचीत बेहद कम हुई है, जबकि शौचालयों का निर्माण बहुत बड़े स्तर पर किया जा रहा है। अनेक सामाजिक शोधों के उपरांत यह निष्कर्ष निकाला गया है कि सामाजिक विज्ञान और व्यवहार परिवर्तन में गहरा सम्बन्ध है, खासतौर पर शौचालय उपयोग के मामले में।
  • शौचालय से सम्बन्धित प्रयास समुदाय को ध्यान में रखकर किये जाने चाहियें न कि एक व्यक्ति के। शौचालय की संख्या से अधिक, उसके डिज़ाइन का सामाजिक और भूवैज्ञानिक लिहाज़ से सभी वर्गों के अनुकूल होना आवश्यक है। शौचालयों के निर्माण में निर्माण की गुणवत्ता, उन्नत रख-रखाव, सीवेज प्रबन्धन प्रणाली और पानी की उपलब्धता का ध्यान रखना अत्यंत ही आवश्यक है।
  • स्वच्छता से सम्बन्धित हस्तक्षेप करते समय यह ध्यान रखना चाहिये कि शौचालय निर्माण समाजिक मानदंडो पर आधारित हों न कि लक्ष्य-उन्मुख रणनीतियों पर, सामाजिक मानदंडों की अनदेखी करने वाली नीतियाँ अपने वास्तविक उद्देश्य को प्राप्त करने में असफल रहती हैं। पूर्व के अनुभवों से ज्ञात होता है कि समुदाय आधारित प्रयास जिसमें समाज के सभी वर्गों को साथ में लेकर कार्य किया गया उनसे धीरे-धीरे लोगों के स्वास्थ्य व्यवहार में परिवर्तन आया।
  • मैला ढोने की समस्या से निपटने के लिये सरकार को शौचालयों के निर्माण के दौरान दो गड्ढों का निर्माण कराना चाहिये। यदि एक गड्ढा भर गया तो दुसरे गड्ढे की सहायता से शौचालय बंद नहीं होगा पहले गड्ढे में अपशिष्ट आसानी से अपघटित हो जाएगा, जिसे आसानी से साफ किया जा सकता है। ग्रामीण इलाकों में यह युक्ति कारगर साबित हो सकती है।

निष्कर्ष

  • यह एक प्रमाणित सत्य है कि व्यक्ति अपने सामाजिक सम्पर्कों से ही शौचालय बनाने के लिये प्रेरित होता है। यदि समान जाति, शिक्षा या अच्छे सामाजिक सम्बन्ध हों तो व्यक्ति बिना किसी सरकारी मदद के अपने घर में शौचालय का निर्माण करा लेता है। सरकार द्वारा शौचालय निर्माण के लिये सब्सिडी दिये जाने के बावजूद यह असफल रही, क्योंकि इस बारे में जाति आधारित सामाजिक विभाजन को ध्यान में नहीं रखा गया है।
  • शौचालय निर्माण के लिये व्यक्तिगत पसन्द के बजाय एक समुदाय को महत्त्व देना चाहिये। इसके लिये समुदाय में पहले से प्रचलित अव्यवहारिक मानदण्डों को स्वास्थ्य, शिक्षा और संचार के माध्यम से दूर करके उनकी जगह नए मानदण्डों को स्थापित करना चाहिये। हालाँकि यह एक क्रमिक प्रक्रिया है। जब नए मानदण्डों को कोई समुदाय अपनाने लगता है और वे उन्हें अपने व्यवहार में समाहित कर लेता है तो वह प्रगतिवादी समाज कहा जाता है, और भारत खुले में शौच की समस्या से तब तक निज़ात नहीं पा सकता जब तक समाज प्रगतिवादी मूल्यों को स्वीकार नहीं कर लेता।
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