दृष्टि आईएएस अब इंदौर में भी! अधिक जानकारी के लिये संपर्क करें |   अभी कॉल करें
ध्यान दें:

डेली अपडेट्स


भारतीय अर्थव्यवस्था

बैंकिंग सुधारों की नई पीढ़ी

  • 08 May 2021
  • 10 min read

यह एडिटोरियल 06/05/2021 को ‘द हिंदू बिज़नेस लाइन’ में प्रकाशित लेख “Time for 5th generation banking reforms” पर आधारित है। इसमें भारत के बैंकिंग उद्योग में सुधारों के नए सेट पर चर्चा की गई है।

भारतीय बैंकिंग क्षेत्र एक निरंतर आधार पर विकसित हो रहा है, जिसमें इसके अनन्य होने से लेकर सामाजिक सुधार और वित्तीय समावेशन का वाहक बनना भी शामिल है। हालाँकि हाल के दिनों में बैंकिंग उद्योग ने कई समस्याओं का अनुभव किया है। उदाहरण के लिये, परिसंपत्ति की गुणवत्ता में गिरावट, वित्तीय सुदृढ़ता और दक्षता में गिरावट ने भारतीय बैंकिंग उद्योग को गंभीर रूप से प्रभावित किया है।

बढ़ती आबादी जैसी चुनौतियों, कोविड-19 महामारी के संकट और पश्चिमी देशों के भारत एवं अन्य स्थानों पर अपने विनिर्माण आधार को स्थानांतरित करने के इरादों को देखते हुए पाँचवीं पीढ़ी के बैंकिंग सुधारों को स्वीकार करना आवश्यक हो गया है।

भारतीय बैंकिंग उद्योग का विकास

  • पहली पीढ़ी की बैंकिंग: स्वतंत्रता-पूर्व अवधि (1947 तक) के दौरान स्वदेशी आंदोलन ने कई छोटे और स्थानीय बैंकों को जन्म दिया।
    • उनमें से अधिकांश आंतरिक धोखाधड़ी, परस्पर संबद्ध उधार और व्यापार एवं बैंकिंग बुक के संयोजन के कारण विफल रहे।
  • दूसरी पीढ़ी की बैंकिंग (1947-1967): भारतीय बैंकों ने कुछ व्यावसायिक परिवारों या समूहों को संसाधनों के केंद्रीकरण (खुदरा जमा के माध्यम से जुटाए जाने) की सुविधा दी और इस तरह कृषि क्षेत्र के लिये ऋण प्रवाह की उपेक्षा की गई।
  • तीसरी पीढ़ी की बैंकिंग(1967-1991): सरकार द्वारा दो प्रमुख चरणों (1969 और 1980) में 20 प्रमुख निजी बैंकों के राष्ट्रीयकरण के माध्यम से उद्योगों तथा बैंकों के बीच सांठ-गांठ तोड़ने तथा प्राथमिक क्षेत्र ऋण प्रवाह को लागू करने (1972) में सफल रही।
    • इन पहलों के परिणामस्वरूप 'क्लास बैंकिंग' से 'मास बैंकिंग' में बदलाव संभव हुआ।
    • इसके अलावा भारत (ग्रामीण) में शाखा नेटवर्क के विस्तार, सार्वजनिक जमा और कृषि एवं संबद्ध क्षेत्रों में ऋण प्रवाह पर इसका सकारात्मक प्रभाव पड़ा।
  • चौथी पीढ़ी की बैंकिंग (1991-2014): इस अवधि में ऐतिहासिक सुधारों को देखा गया जहाँ प्रतिस्पस्पर्द्धा व उत्पादकता बढ़ाने के साथ-साथ दक्षता को बढ़ाने के लिये  निजी एवं विदेशी बैंकों को नए लाइसेंस जारी किये गए।
    • इसकी प्राप्ति प्रौद्योगिकी की सहायता से; विवेकपूर्ण मानदंडों की शुरुआत करके; कार्यात्मक स्वायत्तता के साथ बैंकों के परिचालन में लचीलापन प्रदान करके; कॉर्पोरेट प्रशासन प्रथाओं के कार्यान्वयन पर ध्यान केंद्रित करके; और बेसल मानदंडों के अनुसार पूंजी आधार को मज़बूत करने जैसे विभिन्न कदमों के माध्यम से की गई थी।
  • वर्तमान मॉडल: वर्ष 2014 के बाद से, बैंकिंग क्षेत्र ने JAM (जन-धन, आधार और मोबाइल) को अपनाने और भुगतान बैंकों तथा लघु वित्त बैंकों (SFB) को लाइसेंस जारी करने जैसे कार्यों के माध्यम से वित्तीय समावेशन को बढ़ावा दिया है।

आगे की राह: पाँचवीं पीढ़ी की बैंकिंग

  • बिग बैंक: नरसिम्हम समिति रिपोर्ट (1991) में इस बात पर जोर दिया गया कि भारत में घरेलू व विदेशी बैंकों के साथ-साथ तीन या चार बड़े वाणिज्यिक बैंक भी होने चाहिये।
    • दूसरी श्रेणी में कई मध्यम-आकार के ऋणदाता शामिल हो सकते हैं, जिनमें कई ऐसे प्रमुख बैंक भी शामिल हैं जो अर्थव्यवस्था में व्यापक उपस्थिति दर्शाते हैं।
    • इन सिफारिशों के अनुसार, सरकार ने पहले ही सार्वजनिक क्षेत्र के कुछ बैंकों का विलय कर दिया है तथा DFI और बैड बैंक आदि की स्थापना की दिशा में कदम उठाए हैं।
  • विभेदित बैंकों की आवश्यकता: यद्यपि सार्वभौमिक बैंकिंग मॉडल को व्यापक रूप से पसंद किया गया है किंतु विभिन्न ग्राहकों और उधारकर्त्ताओं की विशिष्ट एवं भिन्न-भिन्न आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये विशिष्ट बैंकिंग की आवश्यकता है।
    • ये विशेष बैंक, RAM (Retail, Agriculture, MSMEs) जैसे क्षेत्रों में अनिवार्य वित्त की पहुँच को आसान बनाएँगे।
    • इसके अलावा, प्रस्तावित DFI/विशिष्ट बैंक को ऐसे प्रमुख बैंकों के रूप में स्थापित किया जा सकता है जिनके पास कम लागत वाले सार्वजनिक जमा और बेहतर परिसंपत्ति-देयता प्रबंधन तक पहुँच हो।
  • ब्लॉकचेन बैंकिंग: इसमें जोखिम प्रबंधन अधिक विशिष्ट हो सकता है और यह नवीन-बैंक (डिजिटल), वित्तीय समावेशन तथा आकांक्षी/नए भारत के उच्च विकास के लिये प्रौद्योगिकी का लाभ उठा सकते हैं।
    • इसके लिये भारतीय बैंकिंग में ब्लॉकचैन जैसी प्रौद्योगिकी को लागू किया जा सकता है।
    • ब्लॉकचेन प्रौद्योगिकी विवेकपूर्ण पर्यवेक्षण की अनुमति देगा जिससे बैंकों पर नियंत्रण रखना आसान हो सकता है।
  • नैतिक जोखिम को काम करना: सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की विफलता आज तक एक दुर्लभ घटना रही है और बैंकों में बेहतर सार्वजनिक विश्वास का मुख्य कारण इनके द्वारा प्रदत्त संप्रभु गारंटी है।
    • हालाँकि सार्वजनिक बैंकों के निजीकरण के साथ यह हमेशा सही नहीं हो सकता है।
    • इसलिये पाँचवीं पीढ़ी के बैंकिंग सुधारों को उच्च व्यक्तिगत जमा बीमा और  सार्वजनिक खजाने हेतु कम लागत के साथ नैतिक एवं प्रणालीगत जोखिमों को कम करने के लिये प्रभावी क्रमिक समाधान प्रणाली की आवश्यकता पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये।
  • ESG फ्रेमवर्क: विभेदित बैंकों को भी मान्यता प्राप्त स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्ध होने के लिये प्रोत्साहित किया जा सकता है और दीर्घकाल में अपने हितधारकों हेतु उन्हें ESG (पर्यावरण, सामाजिक ज़िम्मेदारी और शासन) फ्रेमवर्क का भी पालन करना चाहिये।
  • बैंकों को सशक्त बनाना: सरकार को विविधतापूर्ण ऋण पोर्टफोलियो का निर्माण करके, क्षेत्र-वार नियामकों की स्थापना करके, विलफुल डिफॉल्टरों से प्रभावी ढंग से निपटने के लिये अधिक-से-अधिक शक्तियाँ प्राप्त करने की अनुमति देकर इस क्षेत्र के लचीलेपन को दूर करना चाहिये।
    • एक गतिशील वास्तविक अर्थव्यवस्था में ज़िम्मेदार बैंकिंग प्रणाली स्थापित करने के लिये कॉर्पोरेट बॉण्ड मार्केट (बैंक के नेतृत्त्व वाली अर्थव्यवस्था से बदलाव) का मार्ग प्रशस्त करने की भी आवश्यकता है।

निष्कर्ष

वर्तमान परिदृश्य बैंकिंग क्षेत्र में व्यापक बदलाव हेतु प्रेरित करता है ताकि इसके लचीलेपन में सुधार हो और वित्तीय स्थिरता बनी रहे। इस संदर्भ में सरकार ने हाल ही में नए बैंकिंग सुधारों की घोषणा की है, जिसमें बुनियादी ढाँचे के लिये एक विकास वित्त संस्थान (DFI) की स्थापना, एक बैड बैंक का निर्माण और सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों (PSBs) का निजीकरण आदि शामिल है।

मेन्स अभ्यास प्रश्न: कोविड -19 महामारी से प्रेरित वर्तमान परिदृश्य, बैंकिंग क्षेत्र को अपने  लचीलेपन में सुधार करने और वित्तीय स्थिरता बनाए को रखने हेतु कुछ प्रतिमान बदलावों की मांग करता है। विवेचना कीजिये।

close
एसएमएस अलर्ट
Share Page
images-2
images-2
× Snow