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भारतीय अर्थव्यवस्था

NPA समस्या का समाधान नहीं है बैंकों का विलय

  • 11 Jun 2019
  • 16 min read

टीम दृष्टि द्वारा The Hindu और The Indian Express में प्रकाशित विभिन्न समाचारों तथा अन्य स्रोतों से मिली जानकारी के आधार पर तैयार इस Editorial में देश में बड़े बैंकों की आवश्यकता, बैंकों के विलय, NPA और बैंकों से होने वाली धोखाधड़ी का विश्लेषण किया गया है।

संदर्भ

अभी अधिक समय नहीं हुआ, जब बैंक ऑफ बड़ौदा में देना बैंक और विजया बैंक का विलय हुआ और उसके बाद 1 अप्रैल से अपेक्षाकृत बड़े पूंजी आकार वाले बैंक ऑफ बड़ौदा ने काम करना शुरू कर दिया। यह भारत में बैंकों का पहला त्रिपक्षीय विलय है। इससे पहले 2017 में भारतीय स्टेट बैंक के सहयोगी बैंकों– स्टेट बैंक ऑफ पटियाला, स्टेट बैंक ऑफ त्रावणकोर, स्टेट बैंक ऑफ बीकानेर एंड जयपुर, स्टेट बैंक ऑफ हैदराबाद, स्टेट बैंक ऑफ मैसूर और भारतीय महिला बैंक का स्टेट बैंक के साथ एकीकरण किया गया था। अब एक बार फिर बैंकों के पुनर्गठन की चर्चा चल रही है। इस बार ओरियंटल बैंक ऑफ कॉमर्स, आंध्र बैंक और इलाहाबाद बैंक का पंजाब नेशनल बैंक में विलय हो सकता है। दरअसल, केंद्र सरकार चाहती है कि लंबे समय से घाटे में चल रहे छोटे और क्षेत्रीय बैंकों का किसी बड़े बैंक में विलय कर दिया जाए, ताकि इनका NPA कम हो सके और ग्राहकों को बेहतर सुविधाएँ दी जा सकें।

क्यों किया जा रहा है विलय?

कुछ छोटे और कमज़ोर बैंकों का विलय करके एक बड़ा बैंक बनाने के पीछे सरकार का उद्देश्य ऐसे बैंकों को आकार देना है जो टिकाऊ होने के साथ-साथ अधिक ऋण देने की क्षमता भी रखते हों। दरअसल, बैंकिंग क्षेत्र में पिछले कुछ वर्षों में NPA में लगातार बढ़ोतरी होने की वज़ह से जहाँ सार्वजनिक क्षेत्रों के बैंकों का घाटा बढ़ा है, वहीं बैंकों की परिचालन लागत भी बढ़ी है। इसके अलावा बैंकिंग सेवाओं पर सरकारी बैंकों का मार्जिन भी पहले की तुलना लगातार कम होता जा रहा है। ऐसी स्थिति में सरकार के सामने दो ही विकल्प बचते हैं कि या तो इन्हें बंद कर दिया जाए या फिर इनका विलय कर दिया जाए।

संभवतः इन समस्याओं पर विचार करते हुए घाटे में चल रहे बैंकों को मजबूत बैंकों के साथ मिलाकर उन्हें स्थिरता देने के लिये ही भारत सरकार बैंकों का विलय कर रही है। सरकार का यह मानना है कि ऐसा करने से बैंकों की आर्थिक स्थिति सुधारने में मदद मिलेगी और उनकी परिचालन लागत में भी कमी आएगी।

भारत में बैंकों के विलय की पृष्ठभूमि और मौजूदा बैंकिंग परिदृश्य

  • छोटे या घाटे में चल रहे बैंकों का आपस में विलय कर देना दुनिया की लगभग हर अर्थव्यवस्था में होता आया है। भारत में भी बैंकों के विलय की यह प्रक्रिया लंबे समय से अपनाई जाती रही है, जिसके चलते देश में अब तक छोटे-बड़े कई विलय किये जा चुके हैं।
  • केंद्र सरकार भारतीय रिज़र्व बैंक की सलाह सेके किसी भी राष्ट्रीय बैंक का किसी दूसरे राष्ट्रीय बैंक या किसी अन्य बैंकिंग संस्थान के साथ विलय कर सकती है। इस क्रम में राष्ट्रीयकृत बैंकों का पहला विलय वर्ष 1993-94 में पंजाब नेशनल बैंक और न्यू इंडिया बैंक के विलय को माना जाता है।
  • इसके बाद सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के विलय पर विचार करने के लिये कई समितियाँ गठित की गईं- वर्ष 1998 में नरसिम्हन समिति, वर्ष 2008 में लीलाधर समिति और वर्ष 2014 में नायक समिति।

A।ternative Mechanism की व्यवस्था

इन्हीं समितियों की रिपोर्टों को मद्देनज़र रखते हुए सरकार ने एक समूह के रूप में A।ternative Mechanism की व्यवस्था की है। इसकी अध्यक्षता केंद्रीय वित्त मंत्री करते हैं। विलय की स्वीकृति के लिये बैंकों से मिले प्रस्ताव को सबसे पहले इसी समूह के पास भेजा जाता है। A।ternative Mechanism बैंकिंग कंपनी (उपक्रमों का अर्जन और अंतरण) अधिनियम 1970/1980 के आधार पर विलय प्रक्रिया शुरू करता है।

हालिया तीन बैंकों का विलय और उनका NPA

  • अगर वर्तमान बैंकिंग ताने-बाने को देखें तो देश में इस समय सार्वजनिक क्षेत्र के कुल 19 बैंक कार्यरत हैं, जिनमें बैंकिंग सेक्टर के कुल NPA में इन बैंकों की हिस्सेदारी लगभग 90 फीसदी है।
  • हाल ही में जिन तीन बैंकों का विलय हुआ उनमें सबसे ज्यादा NPA अनुपात 22 फीसदी देना बैंक का था, बैंक ऑफ बड़ौदा का NPA अनुपात 12.4 फीसदी और विजया बैंक का NPA अनुपात 6.9 फीसदी था, लेकिन विलय के बाद अस्तित्व में आए नए बैंक का कुल NPA अनुपात 13 फीसदी हो गया।
  • इनमें से देना बैंक की बेहद ख़राब आर्थिक स्थिति के चलते ही भारतीय रिज़र्व बैंक ने उसे तत्काल सुधारात्मक कार्रवाई ढाँचे (Prompt Corrective Action Framework) के तहत ऋण देने से प्रतिबंधित कर दिया था।

वित्त वर्ष 2017-18 के दौरान ऋण वसूली की स्थिति इतनी गंभीर रही कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को करीब 1.2 लाख करोड़ रुपए मूल्य के NPA को राइट ऑफ करना पड़ा यानी बट्टे खाते में डालना पड़ा। इसका मतलब यह हुआ कि बैंकों ने मान लिया कि इन ऋणों की वसूली अब कभी नहीं हो पाएगी।

बीते कुछ समय से स्थिति यह है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक केवल अपने NPA के कारण ही चर्चा में हैं। ऐसे में सरकार के लिये सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को पटरी पर लाने के उपाय करना एक बड़ी चुनौती बन गया है।

क्या बैंकों का विलय ही एकमात्र उपाय है?

ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या बैंकों के विलय से घाटे में चल रहे बैंक उबर सकेंगे? ऐसा करने से सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के भविष्य, इनसे जुड़े बैंक कर्मचारियों, बैंकिंग सेवाओं और उनके ग्राहकों पर क्या असर होगा?

  • दरअसल, लगातार घाटे में चल रहे सरकारी बैंकों की सेहत ठीक करने के लिये सरकार ने बैंकों के विलय की प्रक्रिया शुरू की है। इसका एक बड़ा कारण NPA के चलते घाटे में फँसे बैंकों को उबारना है।
  • इसका एक अन्य कारण बैंकों की भारी-भरकम परिचालन लागत को कम करना है। सरकार का मानना है कि बैंकों की परिचालन लागत के मुकाबले उनसे होने वाला मुनाफा कम है तथा इस खर्च को कम करना ज़रूरी हो गया है।
  • आने वाले समय में बैंकिंग सेक्टर में प्रतिस्पर्द्धा और अधिक बढ़ेगी। ऐसे में छोटे बैंकों का बाज़ार में टिके रह पाना आसान नहीं होगा। इसलिये बैंकिंग सुधार के तहत विलय द्वारा प्रबंधन खर्च में कमी लाने की कोशिश की जा रही है।
  • विलय से बैंकों के निदेशकों सहित उच्च प्रबंधकों और सरप्लस कर्मचारियों की संख्या तो कम होगी ही, बैंक एक-दूसरे के संसाधनों का इस्तेमाल भी कर सकेंगे। ऐसा माना जा रहा है कि विलय के बाद परिसंपत्तियों से होने वाली साझा-आय (Mutua। Income) बैंकों के घाटे को कम करने में मददगार हो सकेगी।
  • बैंकों का विलय किये जाने का एक बड़ा कारण बढ़ते ऋण के मुद्दे से निपटना भी है। ये वे ऋण हैं जो कॉर्पोरेट उधारकर्त्ताओं ने लिये हुए हैं और वे इसका भुगतान नहीं कर रहे हैं। ऐसे में अगर बैंकों से कर्ज़ मिलना कठिन हुआ तो कारोबार और अर्थव्यवस्था पर इसका बुरा असर पड़ सकता है।

इन सब के अलावा वैश्विक जोखिम प्रबंधन मानक बासेल-III के तहत पूंजी नियमों को लागू करने के लिये भी सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को लगभग 2.4 लाख करोड़ रुपए की जरूरत होगी और इतनी बड़ी पूंजी की व्यवस्था केवल सरकार के बूते पूरा कर पाना कठिन होगा, इसलिये भी बैंकों का विलय करना पड़ रहा है। दरअसल, बैंकों का विलय होने से उनका पूंजी आधार बढ़ेगा जिससे वे बड़ी परियोजनाओं के लिये अधिक कर्ज़ देने में सक्षम हो सकेंगे।

हालिया विलय प्रक्रिया के प्रभाव

  • विजया बैंक और देना बैंक का विलय बैंक ऑफ बड़ौदा में हो जाने के बाद विजया बैंक और देना बैंक के सभी व्‍यवसाय, परिसंपत्तियाँ, अधिकार, स्‍वामित्‍व, दावे, लाइसेंस, स्‍वीकृतियाँ, अन्‍य विशेषा‍धिकार और समस्त उधारी, देनदारियाँ और दायित्‍व बैंक ऑफ बड़ौदा को हस्तांतरित हो गए हैं। साथ ही इन बैंकों के अधिकारियों और कर्मचारियों का समायोजन बैंक ऑफ बड़ौदा में हो गया है। इस विलय से सार्वजनिक बैंकों की संख्या 21 से घटकर 19 रह गई है और बैंक ऑफ बड़ौदा सार्वजनिक क्षेत्र के भारतीय स्टेट बैंक तथा निजी क्षेत्र के ICICI बैंक के बाद देश का तीसरा सबसे बड़ा बैंक भी बन गया है।

बैंक विलय से होने वाले लाभ

  • माना जा रहा है कि छोटे और भारी घाटे में चल रहे बैंकों का विलय बड़े बैंकों में करने से सार्वजनिक क्षेत्र की बैंकिंग प्रणाली मज़बूत होगी।
  • इससे बैंक मजबूत और टिकाऊ तो बनेंगे ही, साथ में उनकी ऋण देने की क्षमता भी बढ़ेगी। इससे बैंकों के बैड लोन के मुद्दे को हल करना और ऋण की बढती मांग को पूरा करना आसान हो सकेगा।
  • बैंकों के विलय से इनकी संख्या तो कम होती ही है, साथ ही इन्हें बेहतर तरीके से पूंजी उपलब्ध कराई जा सकेगी।
  • बैंकों के विलय से बैंकिंग सेवाओं का दायरा भी बढ़ जाता है, और ग्राहकों को देशभर में आसानी से बैंकिंग सेवाएँ मिल जाती हैं।
  • देखा यह गया है कि विलय से बैंकों की परिचालन क्षमता बढ़ती है तथा संचालन लागत में कमी आती है। इससे बैंकिंग गतिविधियों में वृद्धि तथा बैंकों की वित्तीय स्थिति में सुधार भी होता है।

विरोध भी होता है

सरकार का कहना है कि बैंकों के विलय से कर्मचारियों पर कोई नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ता और उनकी सेवा शर्तों में भी कोई बदलाव नहीं होता और न ही किसी की छंटनी की जाती है । लेकिन बैंक कर्मचारी यूनियन्स विलय का कड़ा विरोध करती हैं। उनका मानना है कि इससे कर्मचारियों के हितों पर बुरा असर पड़ता है तथा क्षेत्र में रोज़गार सृजन और ग्राहक सेवाएँ भी प्रभावित होती हैं। चूँकि विलय प्रक्रिया में शामिल बैंकों की कई शाखाएँ एक ही जगह पर काम कर रही होती हैं और ऐसे में यदि इनमें से कुछ को बंद करना पड़ता है तो कर्मचारियों के समायोजन और ग्राहकों के हितों पर नकारात्मक असर पड़ता है।

बैंकों के विलय का ग्राहकों पर असर

विलय के बाद बैंक के ग्राहकों को नया अकाउंट नंबर और कस्टमर ID मिल सकती है। ग्राहकों को नए अकाउंट नंबर या IFSC कोड की जानकारी आयकर विभाग, बीमा कंपनियों आदि के साथ अपडेट करानी पड़ेगी। ग्राहकों को नई चेकबुक के साथ नया डेबिट कार्ड और क्रेडिट कार्ड भी इश्यू हो सकता बैंक की कुछ शाखाएँ बंद हो सकती हैं और ग्राहकों को नई शाखा में जाना पड़ सकता है।

धोखाधड़ी को भी रोकना होगा

ऐसा माना जाता है कि विलय के बाद परिचालन एवं अन्य खर्चों में कटौती होने से बड़े बैंकों का मुनाफा बढ़ता है। साथ ही बैंकों के पास पूंजी उपलब्ध रहने से वे सस्ती दरों पर ग्राहकों को कर्ज़ दे सकेंगे। विलय के बाद पर्याप्त मानव संसाधन की मदद से NPA और जोखिम प्रबंधन के मोर्चे पर बड़े बैंक बेहतर तरीके से काम कर सकते है, लेकिन इसके साथ धोखाधड़ी की संभावना भी बढ़ सकती है।

अभी हाल ही में सूचना के अधिकार (RTI) के तहत मांगी गई जानकारी में रिज़र्व बैंक ने जो आँकड़े उपलब्ध कराए हैं, उनसे पता चलता है कि वित्त वर्ष 2018-19 में बैंक धोखाधड़ी के 6800 मामले सामने आए, जिनमें 71,500 करोड़ रुपए की धोखाधड़ी हुई। इस तरह बैंक धोखाधड़ी के मामलों की राशि में एक साल में 73% की वृद्धि हुई है, क्योंकि 2017-18 में ऐसे 5916 मामलों में 41,167.03 करोड़ रुपए की धोखाधड़ी हुई थी। पिछले 11 वित्त वर्षों में फ्रॉड के कुल 53,334 मामलों में 2.05 लाख करोड़ रुपए फँसे हैं।

विलय के साथ अन्य कदम उठाना भी ज़रूरी

हालाँकि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का विलय उन्हें NPA की समस्या और पूँजी की कमी से बचाने का कोई रामबाण उपाय नहीं है। इसके साथ-साथ NPA वसूली के लिये एकीकृत प्रयास, पूंजी प्रबंधन, परिचालन लागत और अन्य खर्चों में कटौती, ऋण प्रस्तावों के मूल्यांकन में गुणवत्ता का समावेश, ऋण वसूलने के लिये बैंक के उचाधिकारियों को अधिकार, भ्रष्टाचार पर नियंत्रण, राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्ति आदि उपायों को भी लागू करने की ज़रूरत है।

अभ्यास प्रश्न: अधिक संख्या में कमज़ोर और छोटे बैंकों के बजाय कुछ बड़े और मज़बूत बैंक तेज़ी से आगे बढ़ रही भारत की अर्थव्यवस्था के लिये बेहतर हैं। इस परिप्रेक्ष्य में बैंकों के विलय की चर्चा करें।

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