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भारतीय प्रशासनिक सेवा में लेटरल एंट्री की विधिवत शुरुआत

  • 19 Apr 2019
  • 16 min read

संदर्भ

केंद्र सरकार ने लेटरल एंट्री के तहत निजी क्षेत्र के 9 विशेषज्ञों को केंद्र सरकार के विभिन्न विभागों में संयुक्त सचिव के पदों पर नियुक्त किया है। ब्यूरोक्रेसी में सुधार लाने के उद्देश्य से UPSC ने इस तरह की ये पहली भर्तियाँ की हैं। UPSC द्वारा चुने गए नौ विशेषज्ञों में अंबर दुबे (नागरिक उड्डयन), अरुण गोयल (वाणिज्य), राजीव सक्सेना (आर्थिक मामले), सुजीत कुमार बाजपेयी (पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन), सौरभ मिश्रा (वित्तीय सेवाएँ), दिनेश दयानंद जगदाले (नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा), सुमन प्रसाद सिंह (सड़क परिवहन और राजमार्ग), भूषण कुमार (शिपिंग) और काकोली घोष (कृषि, सहयोग और किसान कल्याण) शामिल हैं। कार्मिक, लोक शिकायत और पेंशन मंत्रालय को इन पदों के लिये 6077 आवेदन मिले थे।

हालिया पृष्ठभूमि

जुलाई 2017 में सरकार ने ब्यूरोक्रेसी में देश की सबसे प्रतिष्ठित मानी जाने वाली सिविल सेवाओं में परीक्षा के माध्यम से नियुक्ति के अलावा अन्य क्षेत्रों अर्थात लेटरल एंट्री (Lateral Entry) से प्रवेश का प्रावधान यानी सीधी नियुक्ति करने पर विचार करने की बात कही थी। सरकार चाहती है कि निजी क्षेत्र के अनुभवी उच्चाधिकारियों को विभिन्न विभागों में उपसचिव, निदेशक और संयुक्त सचिव स्तर के पदों पर नियुक्त किया जाए। इसके लगभग एक वर्ष बाद केंद्र सरकार ने लैटरल एंट्री की अधिसूचना जारी करते हुए 10 विभागों में संयुक्त सचिव (Joint Secretary) पदों के लिये आवेदन आमंत्रित किये थे।

इसके अलावा, नीति आयोग ने एक रिपोर्ट में कहा था कि यह ज़रूरी है कि लेटरल एंट्री के तहत विशेषज्ञों को सिस्टम में शामिल किया जाए। इसका उद्देश्य ब्यूरोक्रेसी को गति देने के लिये निजी क्षेत्र से विशेषज्ञों की तलाश करना था। इसी के मद्देनज़र सरकार ने ब्यूरोक्रेसी के लिये लेटरल एंट्री की शुरुआत की है, जिसके तहत सबसे पहले विभिन्न विभागों में संयुक्त सचिव के 9 पदों के लिये निजी क्षेत्र के आवेदकों को चुना गया है।

क्यों ज़रूरत पड़ी?

  • वैश्वीकरण ने शासन के काम को अत्यंत जटिल बना दिया है और यही वज़ह है कि इस क्षेत्र में विशेषज्ञता और कौशल की मांग पहले से बहुत अधिक बढ़ गई है।
  • अर्थव्यवस्था और अवसंरचना जैसे क्षेत्रों में थिंक-टैंकों की आवश्यकता के मद्देनज़र तथा अन्य ऐसे विभागों में जहाँ विशिष्ट प्रकार की सेवाओं की आवश्यकता होती है, लेटरल एंट्री से संयुक्त सचिवों की नियुक्ति की जानी है। 

निजी क्षेत्र के विशेषज्ञों को विशिष्ट वेतन भत्तों के साथ ब्यूरोक्रेसी में सीधे शामिल करने को विभिन्न सरकारों के उन प्रयासों की निरंतरता के साथ देखा जा सकता है जिसके तहत सरकारें शासन में बाहर से विशेषज्ञता लाना चाहती थीं। उदाहरण के लिये पहले योजना आयोग में, फिर नीति आयोग में, मुख्य आर्थिक सलाहकार कार्यालय में तथा विभिन्न मंत्रालयों के सलाहकारों के पदों पर ऐसी नियुक्तियाँ की गई थीं। वर्तमान नियुक्तियाँ UPSC की संस्थागत दृष्टि के लिहाज़ से एक बड़ी छलांग के समान है। गौरतलब है कि विदेश मंत्रालय ने कुछ वर्ष पहले ऐसा ही प्रयास करते हुए बाहरी प्रत्याशियों को अल्पकालिक अनुबंध पर रखने की बात कही थी, लेकिन इसे नकारते हुए कहा गया था कि रिक्तियों को अन्य मंत्रालयों के ब्यूरोक्रेट्स से भरा जाए।

गुण-दोषों के साथ सावधानी बरतना ज़रूरी

  • सरकार यह मानती है कि विगत 30-40 वर्षों में कई बार उच्चाधिकारियों की नियुक्ति इस प्रकार लेटरल एंट्री से की गई है और अनुभव कोई बुरा नहीं रहा। 
  • विशेषज्ञों का मानना है कि अधिकारियों के चयन का अधिकार UPSC को ही होना चाहिये। लेटरल एंट्री की प्रक्रिया से भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिल सकता है।
  • केंद्र सरकार की तुलना में भारत के राज्यों में भ्रष्टाचार अधिक है और यदि किसी को उत्तरदायी ठहराए बिना किसी पद पर नियुक्त कर दिया जाता है तो उस पर अनुशासनात्मक नियंत्रण रखना कठिन हो जाएगा।
  • अधिकांश विशेषज्ञ उच्चाधिकारियों की इस प्रकार सीधी नियुक्ति के पक्ष में हैं, यदि उनकी नियुक्ति लंबे समय अर्थात् 20-30 वर्ष के लिये की जाए। ऐसा करने से उनकी ज़िम्मेदारी निर्धारित की जा सकती है और उनके कार्य की समीक्षा भी हो सकती है।
  • इस प्रकार की नियुक्तियाँ उन्हीं हालातों में की जानी चाहिये, जब किसी उच्च सेवा के तहत किसी कार्य विशेष को करने के लिये विशेषज्ञ उपलब्ध न हों।
  • इस प्रकार की सीधी नियुक्तियों की प्रक्रिया पारदर्शी होनी चाहिये तथा उसमें किसी प्रकार के भाई-भतीजावाद का स्थान का पर कार्यकाल निश्चित होना चाहिये, क्योंकि इन्हें नीतियाँ बनाने से लेकर उन्हें लागू करने की प्रक्रिया में लंबे समय तक काम करना होता है।

प्रशासनिक सुधार रिपोर्टों में भी है उल्लेख

  • स्वतंत्र भारत में प्रशासन की कार्यशैली पर एन.डी. गोरेवाला की रिपोर्ट 'लोक प्रशासन पर प्रतिवेदन' नाम से आई। रिपोर्ट के अनुसार, कोई भी लोकतंत्र स्पष्ट, कुशल और निष्पक्ष प्रशासन के अभाव में सफल नियोजन नहीं कर सकता। इस रिपोर्ट में अनेक उपयोगी सुझाव थे, लेकिन उनका क्रियान्वयन नहीं हुआ।
  • 1952 में केंद्र ने प्रशासनिक सुधारों पर विचार करने के लिये अमेरिकी विशेषज्ञ पॉल एपिलबी की नियुक्ति की थी। उन्होंने 'भारत में लोक प्रशासन सर्वेक्षण का प्रतिवेदन' प्रस्तुत किया। इस रिपोर्ट में भी अनेक महत्त्वपूर्ण सुझाव थे, लेकिन जड़ता जस-की-तस बनी रही।
  • स्वाधीनता के 19 वर्ष बाद 1966 में पहला प्रशासनिक सुधार आयोग बना, जिसने 1970 में अपनी अंतिम रिपोर्ट पेश की।
  • इसके लगभग 30 वर्ष बाद 2005 में दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग का गठन किया गया था।
  • ब्यूरोक्रेसी में लेटरल एंट्री का पहला स्पष्ट प्रस्ताव 2005 में आया था; लेकिन तब इसे सिरे से खारिज कर दिया गया।
  • इसके बाद 2010 में दूसरे प्रशासनिक सुधार रिपोर्ट में भी इसकी अनुशंसा की गई थी, लेकिन इसे आगे बढ़ाने में समस्याएँ आने पर सरकार ने इससे हाथ खींच लिये।

अलघ समिति ने भी की थी सिफारिश

सिविल सेवा रिव्यू कमेटी के अध्यक्ष योगेन्द्र अलघ ने 2002 में अपनी रिपोर्ट में लेटरल एंट्री का सुझाव देते हुए कहा था कि जब अधिकारियों को लगता है कि उनका प्रतियोगी आने वाला है तो उनके अंदर भी ऊर्जा आती है...उनमें भी नया जोश आता है। इस रिपोर्ट में कहा गया था कि अमेरिका में स्थायी सिविल सर्वेंट और मिड करियर प्रोफेशनल्स का चलन है। वहाँ पर इनकी सेवा ली जाती है। हमारे देश में भी अंतरिक्ष, विज्ञान तथा तकनीक, बायोटेक्नोलॉजी, इलेक्ट्रॉनिक्स ऐसे विभाग हैं, जहाँ पर इनकी सेवा ली जाती है; लेकिन इसका विस्तार करने की ज़रूरत है तथा अन्य विभागों में भी इनकी सेवा ली जा सकती है।

पहले भी होती रही हैं ऐसी नियुक्तियाँ

  • भारत के पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह एक अर्थशास्त्री थे और दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर थे। उन्हें 1971 में वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय में आर्थिक सलाहकार के तौर पर नियुक्त किया गया था और उन्होंने सिविल सेवा की परीक्षा नहीं दी थी। उन्हें 1972 में वित्त मंत्रालय का मुख्य आर्थिक सलाहकार भी बनाया गया था और यह पद भी संयुक्त सचिव स्तर का ही होता है।
  • इसी प्रकार मनमोहन सिंह ने बतौर प्रधानमंत्री रघुराम राजन को अपना मुख्य आर्थिक सलाहकार नियुक्त किया था और वे भी UPSC से चुनकर नहीं आए थे, लेकिन संयुक्त सचिव के स्तर तक पहुँच गए थे और बाद में रिज़र्व बैंक के गवर्नर बनाए गए थे। 
  • इन्फोसिस के प्रमुख कर्त्ता-धर्त्ताओं में एक नंदन निलेकणी भी इसी प्रकार आधार कार्ड जारी करने वाली संवैधानिक संस्था UIDAI के चेयरमैन नियुक्त किये गए थे। 
  • इसी प्रकार बिमल जालान ICICI के बोर्ड मेंबर थे जिन्हें सरकार में लेटरल एंट्री मिली और वह रिज़र्व बैंक के गवर्नर बने।
  • रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर उर्जित पटेल भी लेटरल एंट्री से इस पद पर आए थे।
  • और पहले जाएँ तो इंदिरा गांधी ने मंतोश सोंधी की भारी उद्योग में उच्च पद पर बहाली की थी। इससे पहले वह अशोक लेलैंड और बोकारो स्टील प्लांट में सेवा दे चुके थे तथा उन्होंने ही चेन्नई में हैवी व्हीकल फैक्ट्री की स्थापना की थी।
  • NTPC के संस्थापक चेयरमैन डी.वी. कपूर ऊर्जा मंत्रालय में सचिव बने थे। 
  • BSES के CMD आर.वी. शाही भी 2002-07 तक ऊर्जा सचिव रहे। 
  • लाल बहादुर शास्त्री ने डॉ. वर्गीज़ कुरियन को NDBB का चेयरमैन नियुक्त किया था, जो तब खेड़ा डिस्ट्रिक्ट कोऑपरेटिव मिल्क प्रोड्यूसर यूनियन के संस्थापक थे।
  • हिंदुस्तान लीवर के पूर्व चेयरमैन प्रकाश टंडन को स्टेट ट्रेडिंग कॉरपोरेशन का प्रमुख बनाया गया था। 
  • केरल स्टेट इलेक्ट्रॉनिक्स डेवलपमेंट कॉरपोरेशन के चेयरमैन के.पी.पी. नांबियार को राजीव गांधी ने इलेक्ट्रॉनिक्स विभाग की ज़िम्मेवारी सौंपी थी। इसी प्रकार उन्होंने सैम पित्रोदा को भी कई अहम ज़िम्मेदारियाँ सौंपी थी। 
  • वित्त मंत्रालय में संयुक्त सचिव तथा योजना आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया के अलावा शंकर आचार्य, राकेश मोहन, अरविंद विरमानी और अशोक देसाई ने भी लेटरल एंट्री के माध्यम से सरकार में जगह बनाई।
  • जगदीश भगवती, विजय जोशी और टी.एन. श्रीनिवासन ने भी इसी प्रकार सरकार को अपनी सेवाएँ दीं। इनके अलावा योगिंदर अलघ, विजय केलकर, नितिन देसाई, सुखमॉय चक्रवर्ती जैसे न जाने कितने नाम हैं, जिन्हें लेटरल एंट्री के ज़रिये सरकार में उच्च पदों पर काम करने का मौका मिला।

नीतिगत सुधारों की ज़रूरत

    • सरकार का तर्क है कि लेटरल एंट्री के तहत उच्च पदों पर नियुक्तियाँ कोई पहली बार नहीं की जा रही हैं, बल्कि इस प्रकार की नियुक्तियाँ पूर्व में भी की जाती रही हैं, अंतर केवल इतना है कि इस बार इन नियुक्तियों के लिये आवेदन आमंत्रित किये गए हैं।
    • देखा यह गया है कि जब भी ब्यूरोक्रेसी में सुधार की चर्चा होती है, तो इसका विरोध होने लगता है; लेकिन अब सरकार ने इस राह पर कदम बढ़ा दिये हैं। सरकार का कहना है कि ऐसा करने से विकास की नई अवधारणा से ब्यूरोक्रेसी खुद को सीधे तौर पर जोड़ सकेगी।
    • इसी प्रकार कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि यदि सरकार ब्यूरोक्रेसी में सुधार करके काम करने की प्रक्रिया को सरल बनाना चाहती है, तो इसका विरोध नहीं होना चाहिये। निजी क्षेत्र से संयुक्त सचिवों की सीधी भर्ती ऐसा ही एक कदम है, क्योंकि निजी क्षेत्र में दक्षता और पारदर्शिता की मदद से ही कोई कामयाब हो सकता है, जबकि सरकारी तंत्र के लिये ऐसा होना आवश्यक नहीं।
    • इसमें कोई दो राय नहीं कि ब्यूरोक्रेसी में सुधार की आवश्यकता है, लेकिन ऐसा करने से पहले इसे राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त करने की भी आवश्यकता है।

देश के निजी क्षेत्र में प्रतिभाओं की भरमार है। सरकार इनकी सहायता से अपने नीतिगत निर्णयों की प्रक्रिया में सुधार कर सकती है। लेकिन इस रास्ते पर आगे बढ़ने से पहले यही उचित होगा कि देश की ज़रूरतों के मद्देनज़र UPSC के माध्यम से नियुक्तियों की संख्या बढ़ाई जाए। सिविल सेवाओं के लिये चयन का अधिकार संविधान के तहत केवल UPSC को दिया गया है, इसलिये इससे बाहर जाकर नियुक्तियाँ करना लोकतांत्रिक मूल्यों पर तो आघात होगा ही, साथ ही इस परीक्षा से जुड़ी मेरिट आधारित, राजनीतिक रूप से तटस्थ सिविल सेवा के उद्देश्य को भी क्षति पहुँचेगी। ऐसे में लेटरल एंट्री को लेकर उठ रहीं तमाम आशंकाओं को दूर करने का प्रयास सरकार को करना चाहिये।

अभ्यास प्रश्न: "भारतीय प्रशासनिक सेवा का ढाँचा आज भी मूलतः औपनिवेशिक शासन की सामंती मानसिकता से प्रभावित है और इसकी वज़ह से वर्तमान परिस्थितियों में कल्याणकारी योजनाओं आदि के क्रियान्वयन में कई प्रकार की बाधाएँ आती हैं।" कथन का परीक्षण कीजिये|

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