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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

भारत की अंतर्राष्ट्रीय व्यापार चुनौतियाँ

  • 03 Mar 2017
  • 9 min read

गौरतलब है कि तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के तत्त्वधानों में वर्ष 1995 में विश्व व्यापार संगठन की (World Trade Organization’s - WTO) स्थापना की गई| उन्होंने अमेरिकी हितों को बढ़ावा देने के उद्देश्य से वर्ष 1947 से चली आ रही बहुपक्षीय व्यापार प्रणाली जीएटीटी (General Agreement on Tariffs and Trade) का विस्तार करते हुए, इस व्यवस्था को डब्लूटीओ के रूप में लागू करने का विचार प्रस्तुत किया| परन्तु अब समय बदल गया है तथा इस बदले परिदृश्य में अमेरिका की कमान डोनाल्ड ट्रम्प के हाथों में है| ऐसे में हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन तथा वर्तमान में अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प दो अलग-अलग व्यक्तित्व हैं|

प्रमुख बिंदु

  • ध्यातव्य है कि राष्ट्रपति ट्रम्प की सरकार का डब्लूटीओ के प्रति रुख थोड़ा अलग है| कुछ समय पहले ही ट्रम्प प्रशासन ने अमेरिकी व्यापार प्रतिनिधि कार्यालय से विश्व व्यापार संगठन की विवाद प्रणाली (WTO’s dispute system) को नाकाम करने के तरीके खोजने को कहा है|
  • ऐसी स्थिति में भारत के लिये अपने निहितार्थ को साधने का ये एक सुनहरा अवसर है, अत: भारत को अपनी व्यापार नीति तथा योजनाओं के विषय में कोई मज़बूत कदम उठाए जाने की आवश्यकता है|
  • वस्तुतः ट्रम्प प्रशासन में पर्याप्त उत्साह की कमी होने के कारण डब्लूटीओ के सन्दर्भ में कोई विशेष परिवर्तन होना संभव नहीं है| इसका कारण है कि ट्रम्प प्रशासन का मुख्य लक्ष्य अमेरिका को महान राष्ट्र बनाना है| जबकि अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य इसके विपरीत हैं|
  • अमेरिका की इस नीति के संबंध में अंतर्राष्ट्रीय समुदायों का रुझान कुछ खास सकारात्मक प्रतीत नहीं हो रहा है, इसका कारण है कि प्रत्येक राष्ट्र स्वयं को श्रेष्ठ तथा महान बनाना चाहता है, ऐसे में कोई क्यों स्वयं की अपेक्षा किसी दूसरे को महान बनाने की दिशा में कार्य करेगा| 
  • ध्यातव्य है कि ट्रम्प प्रशासन व्यापार संरक्षणवाद को बढ़ावा प्रदान करने का काम कर रहा है, स्पष्ट है कि इससे डब्लूटीओ का स्थायित्व तथा इसकी प्रासंगिकता दोनों ही संदेह के दायरे में आ जाती है| यह और बात है कि बात चाहे डब्लूटीओ की हो अथवा किसी अन्य संगठन की, अमेरिका अंतर्राष्ट्रीय व्यापार एजेंडा पर अपना प्रभाव को बनाए रखना जारी रखेगा|

भारतीय परिदृश्य

  • हालाँकि इससे विभिन्न स्तरों पर भारत मुश्किल स्थिति में पहुँच जाता है| उदाहरण के लिये सर्वप्रथम, पिछले कुछ समय से अमेरिका भारत का सबसे बड़ा एकल व्यापारीक भागीदार राष्ट्र है| 
  • दूसरा, वर्ष 1991 में उदारीकरण के  दौर के उपरांत अंतर्राष्ट्रीय व्यापार की महत्ता दिनोंदिन बढ़ती जा रही है| वर्ष 2011 से चीन की तुलना में भारत ने सम्पूर्ण विश्व के साथ अपनी व्यापार प्रतिशतता को कई गुना अधिक बढ़ा दिया है| 
  • अत: ऐसी स्थिति में आवश्यक है कि इस संबंध में भारत की प्रतिक्रिया भी कई स्तरों की होनी चाहिये| क्योंकि अभी तक भारत द्विपक्षीय, क्षेत्रीय और मेगा-क्षेत्रीय व्यापार समझौते की समस्या को सुलझाने के लिये विश्व व्यापार संगठन के तत्त्वधानों के अंतर्गत व्यापार व्यवस्था को ही उचित प्राथमिकता देता है|
  • यहाँ यह स्पष्ट कर देना अत्यंत आवश्यक है कि यदि भविष्य में भी वाशिंगटन विश्व व्यापार संगठन की अवहेलना करता है जैसे कि वह हमेशा से करता आया है तो इसकी देखा-देखी अन्य देश भी इसी मार्ग को अपनाएंगे| स्पष्ट है कि यदि ऐसा होता है तो बहुत जल्द यह संतुलन पूरी तरह से अव्यवस्थित हो जाएगा|
  • अत: यह सुनिश्चित करते हुए कि जब अंतर्राष्ट्रीय व्यापार से संबद्ध इन अव्यवस्थाओं की बात हो तो इससे निपटने के लिये राजनीतिक इच्छाशक्ति और कूटनीतिक प्रयासों का प्रयोग किया जाना चाहिये ताकि बिना समय गँवाए किसी प्रभावकारी निर्णय तक पहुँचा जा सके|
  • यही कारण है कि वर्ष 2007 से अभी तक भारत-यूरोपीय संघ मुक्त व्यापार समझौता (India-European Union free trade agreement) लंबित पड़ा हुआ है|
  • स्पष्ट है कि इस संदर्भ में नई दिल्ली को कई सुधार करने की आवश्यकता है|
  • ध्यातव्य है कि वर्ष 1992-93 में चेलैया समिति (Chelliah committee) की रिपोर्ट में प्रशासन को सरलीकृत बनाने तथा विकृतियों को कम करने के लिये प्रशुल्कों की सीमित संख्या के महत्त्व पर बल दिया गया था|
  • प्रशुल्कों के सम्बन्ध में इस समिति द्वारा प्रस्तुत सिफारिशों के अनुसार वर्ष 1998 तक छह दरें क्रियान्वित हो जानी चाहिये थीं तथापि इसकी अनुशंसाओं के विपरीत भारत के पास वर्तमान में 15 एमएफएन (Most Favoured Nation - MFN) प्रशुल्क मौजूद हैं|
  • विदित हो कि बिज़नेस स्टैण्डर्ड पत्र में प्रकाशित एक लेख में इस बात की ओर संकेत किया गया था कि एमएफएन का यह ढाँचा छूट और रियायतों की प्रणाली से भी अधिक जटिल हो गया है, जो कि भारत के औसत व्यापार भारित प्रशुल्कों को निम्न प्रशुल्क युक्त अर्थव्यवस्थाओं के समक्ष ला देता है| 
  • परन्तु, इसके बावजूद भारत की शीर्ष दरें अपेक्षाकृत अधिक ही होती हैं जो कि इसके उच्च प्रशुल्क युक्त अर्थव्यवस्था होने का परिचायक है| जबकि एक दूरदर्शी नीति को प्रशुल्क संरचना के युक्तिकरण (Rationalization) से संबद्ध होना चाहिये|
  • ध्यातव्य है कि भारत की विदेश व्यापार नीति (foreign trade policy), 2015-20 इस परिप्रेक्ष्य में दूरदर्शी नहीं जान पड़ती है| व्यापार के क्षेत्र में तकनीकी (Technical), स्वच्छता (Sanitary) और पादप संबंधी (Phytosanitary) बाधाएँ दिनोंदिन महत्त्वपूर्ण होती जा रही हैं|
  • अत: आवश्यक है कि एक ऐसी व्यापार नीति को क्रियान्वयित किया जाए जिससे भारतीय निर्यातक अंतर्राष्ट्रीय मानकों को पूरा करने में पर्याप्त सहायता प्राप्त सकें| हालाँकि यदि इस सन्दर्भ में आवश्यक हो तो अनुपालन की लागत को भी कम किया जा सकता है ताकि व्यापार की सुगमता बनी रह सके| 
  • वस्तुतः इस नीति के अंतर्गत व्यापार को बढ़ावा देने हेतु आवश्यक रियायतों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये, साथ ही निर्यातकों के मध्य एक स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा को भी बल प्रदान किया जाना चाहिये ताकि इस क्षेत्र से संबद्ध अन्य चुनौतियों का समय पर तथा सटीक हल निकाला जा सके|

अंतत: यह कहना गलत नहीं होगा कि यदि भारत अंतर्राष्ट्रीय व्यापार जगत में अपनी महत्ता एवं प्रभुत्व को स्थापित करना चाहता है तो उसे इन गतिरोधों का समाधान करने के लिये विश्व व्यापार संगठन के भीतर तथा बाहर कार्य करके कृषि सब्सिडियों और पेशेवरों के मुक्त आवगमन (जो इसकी प्रासंगिकता को समाप्त कर रहे हैं अथवा करना चाहते हैं) जैसे परिवर्तनों तथा इससे संबद्ध चुनौतियों का न केवल सामना करना होगा, बल्कि इसके लिये आवश्यक कार्यवाहियों को भी वास्तविक जामा पहनना होगा|

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