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सोशल मीडिया के इस दौर में चुनाव आयोग की भूमिका

  • 08 Nov 2017
  • 7 min read

संदर्भ

लोकतंत्र, सार्वजनिक संस्थाओं की अखंडता, योग्यता और तटस्थता के दम पर ही फलता-फूलता है और जहाँ तक तटस्थता का प्रश्न है देश में चुनाव-आयोग एक ऐसी संस्था है जिसने इसकी मिसाल कायम की है। लेकिन, आज सोशल मीडिया के इस दौर में जनादेश गाँव समाज के हितकारी मुद्दों के आधार पर नहीं बन रहा, बल्कि पार्टियों के सोशल मीडिया रूम से निकल रहा है। ऐसे में चुनाव आयोग को अपने निष्पक्षता के मूल चरित्र को बनाए रखने के लिये आज संघर्ष करना पड़ रहा है।

आवश्यक है राजनीति के अपराधीकरण का निषेध

क्यों बढ़ गई है सोशल मीडिया की भूमिका?

  • आज सोशल मीडिया जनमत हासिल करने का एक शक्तिशाली उपकरण बन गया है। इसकी महत्ता का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के पहले एक बड़ी राष्ट्रीय पार्टी ने टिकट उम्मीदवारी की एक शर्त 25 हज़ार ‘फेसबुक लाइक’ भी रखी थी।
  • दरअसल, आज स्मार्टफोन और इन्टरनेट हवा-पानी की तरह ही हो चला है। सोशल मीडिया आज अधिकांश लोगों के लिये सूचना का पहला स्रोत बन चुका है। ऐसे में जनता से सीधे जुड़ने के बजाय सोशल मीडिया के माध्यम से संवाद की प्रवृत्ति को बल मिल रहा है, जिसके फायदे तो हैं ही लेकिन हानियाँ भी कम नहीं हैं।

चुनाव आयोग द्वारा किये गए प्रतिबंधात्मक उपाय

  • अन्य मीडिया साधनों की भाँति सोशल मीडिया भी चुनाव आयोग द्वारा जारी दिशा-निर्देशों के माध्यम से विनियमित किया जाता है।
  • चुनाव आयोग के निर्देशानुसार सभी प्रत्याशियों को नामांकन दाखिल करते समय शपथ-पत्र के माध्यम से किसी भी सोशल मीडिया साइट पर अपने एकाउंट की जानकारी देना आवश्यक है।
  • जनप्रतिनिधि अधिनियम, 1951 के सेक्शन 126 के अनुसार मतदान के 48 घंटे पूर्व टेलीविज़न, इंटरनेट, चलचित्र, रेडियो, अखबार आदि के द्वारा मतदान को प्रभावित करने से संबंधित कोई भी सामग्री प्रसारित या प्रकाशित नहीं की जा सकेगी।
  • चुनाव आयोग ने यह भी प्रावधान किया है कि सोशल मीडिया पर प्रत्याशी अथवा राजनीतिक दलों के प्रचार में होने वाले व्यय को अनुमानित चुनावी खर्चे में शामिल किया जाएगा।

समस्याएँ क्या हैं?

  • पहले जब व्यक्ति न्यूज़ पढ़ने के लिये समाचार-पत्रों पर निर्भर था तो वह वैसी ख़बरों से रूबरू होता था जो कई माध्यमों से छनकर उस तक पहुँचती थी।
  • लेकिन अब ‘रियल टाइम खबरों’ का दौर है जहाँ कोई भी फेक न्यूज़ लाखों लोगों द्वारा शेयर की जाती है, ट्विट और रि-ट्विट की जाती है, कभी-कभी तो किसी का विचार, किसी का निजी प्रोपगेंडा भी सत्य मान लिया जाता है।
  • जिन चीज़ों का कोई अस्तित्व भी नहीं है, उन्हें बार-बार सोशल मीडिया में दिखाया जाता है जिससे लोगों को यही सत्य प्रतीत होने लगता है और जनता एक तरह से झूठी उपलब्धियों को सच्चा मानकर वोट कर रही होती है।
  • जनप्रतिनिधि अधिनियम के अनुसार चुनाव आयोग को झूठी सूचनाएँ देना अपराध माना गया है, लेकिन 2014 के आम चुनावों में विभिन्न राजनीतिक दलों के सोशल मीडिया विज्ञापन बजट के करीब 10,000 करोड़ रुपए का होने के बावजूद चुनाव आयोग कार्रवाई करने में विफल रहा।

आगे की राह

  • जहाँ तक फेक न्यूज़ का सवाल है तो अभी तक तो ऐसा कोई भी स्पष्ट कानून नहीं है जो फेक न्यूज़ को निषिद्ध करता हो। हालाँकि, इसके इतर कुछ उपाय हैं जिनसे कुछ हद तक समस्या का समाधान किया जा सकता है, जैसे:

♦ फेक न्यूज़ के संबध में ‘इंडियन ब्रॉडकास्ट फाउंडेशन’ और ‘प्रसारण सामग्री शिकायत परिषद’ में शिकायत दर्ज़ कराई जा सकती है।
♦ वहीं यदि फेक न्यूज़ नफरत फैलाने वाली हो तो भारतीय दंड संहिता के धारा 153 और 295 तहत एफआईआर दर्ज़ कराई जा सकती है।
♦ यदि फेक न्यूज़ के माध्यम से किसी व्यक्ति संस्था की गरिमा को धूमिल करने का प्रयास  किया जाता है तो मान-हानि के आरोप में सिविल या क्रिमिनल मामले दर्ज़ किये जा सकते हैं।

निष्कर्ष

  • इसमें कोई दो राय नहीं है कि उपरोक्त उपाय चुनावों को सोशल मीडिया के दुष्प्रभाव से बचाने में नाकाफी ही साबित होंगे।
  • ऐसे में चुनाव आयोग को अपने खर्चों में थोड़ी बढ़ोतरी करते हुए स्वयं की सोशल मीडिया में आधिकारिक उपस्थिति के अलावा, सोशल मीडिया पर बड़ी संख्या में अपने प्रतिनिधि नियुक्त कर लेना चाहिये:

♦ ऐसा होने पर चुनाव आयोग कानूनी दायरे से बाहर जा कर सोशल मीडिया में प्रचार करने वाले लोगों पर निगरानी रख सकता है।
♦ इससे चुनाव आयोग जहाँ एक ओर लोगों में चुनावों के प्रति जागरूकता बढ़ा सकता है, वहीं नियमों का अनुपालन भी सुनिश्चित कर सकता है।

  • जहाँ तक बढ़े हुए खर्च को समन्वित करने का सवाल है तो चुनाव आयोग को अपने लाव-लश्कर के साथ सोशल मीडिया पर तभी सक्रिय होना चाहिये जब चुनाव नज़दीक हों।
  • लेकिन, जिस तरह से लगभग प्रत्येक वर्ष किसी न किसी राज्य में चुनाव होते रहते हैं, उसे देखते हुए चुनाव आयोग को भी अपना एक स्थायी सोशल मीडिया सेल बना लेना चाहिये। यदि इस कदम से चुनाव आयोग की निष्पक्षता को बनाए रखने में सहायता मिलती है तो इस पर किया गया खर्च पैसों का सदुपयोग की कहा जाएगा।
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