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आवश्यक है राजनीति के अपराधीकरण का निषेध

  • 06 Nov 2017
  • 9 min read

संदर्भ

  • हाल ही में एक याचिका पर सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने जनप्रतिनिधियों के खिलाफ मामलों के त्वरित निवारण हेतु विशेष अदालतों के गठन का आदेश दिया है।
  • गौरतलब है कि ये अदालतें फास्ट ट्रैक कोर्ट की तरह मामलों को जल्द निपटाएंगी। साथ ही चुनाव आयोग ने भी कहा है कि आपराधिक मामलों में आरोपी नेताओं के चुनाव लड़ने पर आजीवन प्रतिबंध लगा दिया जाना चाहिये।
  • इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट में दायर जनहित याचिका पर भले ही अभी फैसला आना बाकी है, लेकिन चुनाव आयोग के साथ-साथ कानूनविदों का भी मानना है कि राजनीति का अपराधीकरण रोकने के लिये इस संबंध में कोई समुचित प्रयास करने चाहिये।
  • केवल चर्चा तक ही सीमित रहने वाले चुनाव सुधारों को अमलीजामा पहनाने का सुप्रीम के पास यह सुनहरा अवसर है। इस लेख में हम न्यायालय के वर्तमान आदेश के अलावा इस बात की भी चर्चा करेंगे कि क्या दागी नेताओं को आजीवन चुनाव लड़ने से रोक दिया जाना चाहिये?

क्यों महत्त्वपूर्ण है न्यायालय का यह निर्णय?

  • दरअसल, दोषी प्रमाणित होने के बाद जनप्रतिनिधियों के चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगाने की व्यवस्था तो है लेकिन कई मामलों में तो 20 सालों तक सुनवाई चलती रहती है और इस बीच जनप्रतिनिधि चार कार्यकाल पूरा कर लेता है।
  • ऐसे में सज़ा के बाद चुनाव लड़ने के अयोग्य घोषित करने का कोई मतलब नहीं रह जाता। ऐसे मामलों में छह महीने से ज़्यादा का स्टे नहीं दिया जाना चाहिये और एक साल के भीतर जनप्रतिनिधियों के मामलों का निपटारा किया जाना चाहिये।
  • आपराधिक गतिविधियों में संलिप्त जन-प्रतिनिधियों के मामलों का त्वरित निवारण उचित तो है, लेकिन यदि कुछ ही वर्षों के प्रतिबंध के बाद वह सक्रिय राजनीति में लौट आता है और चुनाव लड़ता है तो भी चुनाव सुधार के वास्तविक उद्देश्यों की प्राप्ति कर पाना संभव प्रतीत नहीं होता।

क्यों उचित है आजीवन प्रतिबंध?

  • अपराधी करार दिये जा चुके जनप्रतिनिधियों पर आजीवन प्रतिबंध लगाना राजनीति के निरपराधीकरण में सहायक होगा।
  • विदित हो कि ‘एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म्स’ (एडीआर) की एक रिपोर्ट के अनुसार वर्तमान लोकसभा में चुने गए 34% सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज़ हैं। अतः लगातार राजनीति में अपराधीकरण बढ़ रहा है।
  • ऐसी स्थिति में यह कदम उपर्युक्त कहा जा सकता है। यह भविष्य में चुनाव लड़ने की इच्छा रखने वाले उम्मीदवारों के लिये एक निवारक कारक की तरह कार्य करेगा और वे किसी भी आपराधिक गतिविधि में शामिल होने से बचेंगे।
  • विधायिका में स्वच्छ पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों का प्रवेश होगा। इससे आम जनता का राजनीतिक व्यवस्था में विश्वास मज़बूत होगा और लोकतंत्र की जड़ें मज़बूत होंगी। 

क्यों उचित नहीं है आजीवन प्रतिबंध लगाना?

  • वर्तमान परिस्थितियों में अपराध प्रमाणित जनप्रतिनिधि को 6 वर्ष तक चुनाव लड़ने से रोका जा सकता है। आजीवन प्रतिबंध की सख्त सज़ा के बजाय यह व्यवस्था अधिक उचित है।
  • जीवन प्रतिबंध की ज़रूरत इसलिये नहीं है क्योंकि 6 वर्ष तक मुख्य धारा राजनीति से बाहर रहने के पश्चात् किसी राजनीतिज्ञ का पुनः स्थापित होना लगभग असंभव होता है ।
  • वहीं एक डर यह भी है कि इस प्रकार के कदमों का दुरूपयोग किया जा सकता है। सत्तारूढ़ पार्टी के नेताओं के द्वारा अपने प्रतिद्वंद्वी नेताओं का सफाया करने अथवा निर्दोष राजनीतिक कार्यकर्त्ताओं पर दोषारोपण के लिये भी इसका इस्तेमाल किया जा सकता है।

इस संबंध में कानूनी प्रावधान क्या हैं?

  • कानूनी तौर पर अपराधी घोषित जनप्रतिनिधियों को चुनाव लड़ने से रोकने हेतु जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 (representation of peoples act, 1951) में निम्नलिखित प्रवधान किये गए हैं:

♦ इस अधिनियम की धारा 8(1) और (2) के अंतर्गत प्रावधान है कि यदि कोई विधायिका सदस्य (सांसद अथवा विधायक) हत्या, बलात्कार, अस्पृश्यता, विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम के उल्लंघन; धर्म, भाषा या क्षेत्र के आधार पर शत्रुता पैदा करना, भारतीय संविधान का अपमान करना, प्रतिबंधित वस्तुओं का आयात या निर्यात करना, आतंकवादी गतिविधियों में शामिल होना जैसे अपराधों में लिप्त होता है, तो वह इस धारा के अंतर्गत अयोग्य माना जाएगा एवं इसे 6 वर्ष के अवधि के लिये अयोग्य घोषित कर दिया जाएगा।
♦ वहीं इस अधिनियम की धारा 8(3) में प्रावधान है कि उपर्युक्त अपराधों के अलावा किसी भी अन्य अपराध के लिये दोषी ठहराए जाने वाले किसी भी विधायिका सदस्य को यदि दो वर्ष से अधिक के कारावास की सज़ा सुनाई जाती है तो उसे दोषी ठहराए जाने की तिथि से आयोग्य माना जाएगा। ऐसे व्यक्ति को सज़ा पूरी किये जाने की तिथि से 6 वर्ष तक चुनाव लड़ने के लिये अयोग्य माना जाएगा।
♦ हालाँकि, धारा 8(4) में यह भी प्रावधान है कि यदि दोषी सदस्य निचली अदालत के इस आदेश के खिलाफ तीन महीने के भीतर उच्च न्यायालय में अपील दायर कर देता है तो वह अपनी सीट पर बना रह सकता है। किंतु, 2013 में ‘लिली थॉमस बनाम यूनियन ऑफ इंडिया’ के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने इस धारा को असंवैधानिक ठहरा कर निरस्त कर दिया था।

निष्कर्ष

  • भारतीय राजनीति की यह विडंबना रही है कि बड़ी संख्या में कानून बनाने वाले ऐसे हैं जो स्वयं कानून की धज्जियाँ उड़ाते आए हैं। यह दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को शर्मसार करने वाला है।
  • सरकारों का तर्क हमेशा से यही रहा है कि 6 वर्ष तक चुनाव लड़ने पर रोक का प्रावधान ही पर्याप्त है, जबकि 6 वर्षों का ही प्रतिबंध झेल रहे दागी नेताओं की संख्या उँगलियों पर गिनी जा सकती है।
  • 6 वर्षों तक की भी रोक इसलिये नहीं लगती क्योंकि मामले की सुनवाई साल दर साल चलती रहती है और दागी नेता आराम से चुनाव जीतकर संसद और विधानसभाओं की गरिमा और सुचिता का हनन करते रहते हैं। अतः एक वर्ष के अंदर आपराधिक मामलों की सुनवाई की यह पहल निश्चित ही सराहनीय है।
  • जहाँ तक आजीवन प्रतिबंध का सवाल है तो यह भारतीय राजनीति को स्वच्छ करने की दिशा में एक दूरगामी एवं महत्त्वपूर्ण कदम साबित हो सकता है, लेकिन पहले यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि इस प्रकार के कठोर प्रावधानों का दुरुपयोग न हो।
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