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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

विश्व व्यापार संगठन और भारत की खाद्य सुरक्षा चिंताएँ

  • 08 Feb 2017
  • 5 min read

सन्दर्भ

अमेरिका और चीन के मध्य विवाद के संबंध में विश्व व्यापार संगठन में हो रही कार्यवाहियों में भारत ने भाग लेने की अनुमति माँगी है। ज्ञात हो कि हाल ही में विश्व व्यापार संगठन ने अमेरिका के उस अनुरोध को स्वीकार कर लिया था जिसमें अमेरिका ने चीन के गेंहूँ, चावल और कपास के न्यूनतम मूल्य संबंधित कार्यक्रमों के विरुद्ध आपत्ति दर्ज़ कराते हुए सुनवाई की माँग की थी। अब भारत को डर है कि उसके स्वयं के न्यूनतम समर्थन मूल्य से संबंधित कार्यक्रमों का  भविष्य दाँव पर न लग जाये। 

क्या है कृषि क्षेत्र में विश्व व्यापार समझौता?

  • दरअसल वर्ष 1994 से विश्व व्यापार समझौता कृषि क्षेत्र में लागू हुआ। यह समझौता कृषि क्षेत्र में निवेश और व्यापार के नियमों को वैश्विक स्तर पर संस्थाबद्ध किये जाने का प्रयास था।  इसका मुख्य उद्देश्य कृषि क्षेत्र को सरकारी नियंत्रण से मुक्त कर उत्पाद एवं व्यापार का निजीकरण करना था।
  • विश्व व्यापार संगठन का तर्क यह था कि यदि देश अपने सुरक्षित अन्न भंडार की सीमा कम कर देते हैं या खत्म कर देते हैं तो इससे विश्व व्यापार उस दिशा की ओर मुड़ जाएगा, जहाँ माँग अधिक होगी। किसानों को विनियमित बाज़ारों से लाभ होगा और उनके उत्पादों का बेहतर मूल्य मिलेगा। बाजार की स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा के कारण उपभोक्ताओं को भी सस्ते  मूल्य पर खाद्य सामग्रियाँ प्राप्त होंगी।

कृषि क्षेत्र में विश्व व्यापार समझौते का प्रभाव

  • विश्व व्यापार समझौतों के तहत सरकारी खरीद तथा समर्थन मूल्य को कम कर दिये जाने से किसान बेबस और लाचार हो गए। दूसरी ओर विकसित राष्ट्रों ने तरह-तरह के बहाने बनाकर अपने किसानों को भारी सहायता जारी रखी। हम सभी इस तथ्य से परिचित हैं कि न तो सभी देशों की व्यावसायिक  क्षमताएँ एक जैसी होती हैं न उनके हित समान होते हैं, इसलिये अंतरराष्ट्रीय व्यापार की शीर्ष संस्था विश्व व्यापार संगठन में कृषि सब्सिडी को लेकर अंतर्विरोध रह-रह कर सतह पर आ जाते हैं।
  • विकसित देशों के किसानों की व्यक्तिगत उत्पादन लागत कम हुई और बाजारों में कम कीमत पर अपने उत्पादों को बेचकर भी वे मुनाफे में रहे वहीं हमारे किसान अपनी अत्यधिक कृषि लागत और कम बाज़ार भाव के कारण ऋणग्रस्त होकर आत्महत्या करने को मजबूर हुए।

निष्कर्ष

  • विकासशील देशों के विरोध को देखते हुए विकसित देशों के समूह ने वर्ष 2013 में बीच का रास्ता यह निकाला कि प्रस्तावित कृषि समझौते के सब्सिडी वाले प्रावधान को 11वें मंत्रिस्तरीय सम्मेलन तक स्थगित रखा जाएगा। यानी अगले चार वर्ष तक कोई देश इस प्रावधान को डब्ल्यूटीओ के विवाद निपटारा प्राधिकरण में चुनौती नहीं दे सकता था।
  • अब वर्ष 2017 में इस प्रावधान की समय सीमा की समाप्ति के साथ ही विश्व व्यापार संगठन में खाद्य सुरक्षा से संबंधित मामलों की बाढ़ आने वाली है। सबसे बड़ी चिंता यह है कि यदि कृषि सब्सिडी और न्यूनतम समर्थन मूल्य की सीमा बांध दी गई तो भारत में खाद्य सुरक्षा एक बड़ी चुनौती होगी।
  • विडंबना यह है कि विश्व व्यापार संगठन के कर्ता-धर्ताओं ने कृषि सब्सिडी का हिसाब भी गलत तरीके से किया हुआ है। इसकी गणना 1986-88 की कीमतों के आधार पर की जाती है। यदि वर्तमान कीमतों या वर्तमान लागत के आधार पर वे आकलन करेंगे तो जो सब्सिडी बहुत अधिक और राज्य पर बड़ा बोझ दिखाई दे रही है, वह वास्तव में बहुत कम रह जाएगी।
  • विदित हो कि न्यूनतम समर्थन मूल्य ही सरकारी अनाज के खरीद का आधार है। यदि इस आधार को ही डब्ल्यूटीओ ने ध्वस्त कर दिया तो न केवल किसानों के हितों को चोट पहुँचेगी, बल्कि खाद्य सुरक्षा का भविष्य भी अधर में लटक जाएगा।
  • हालाँकि कुछ संधियों के मद्देनज़र भारत को इस संबंध में कुछ रियायतें मिली हुई हैं लेकिन इन रियायतों की भी अपनी एक सीमा है और डब्ल्यूटीओ का कृषि समझौता खाद्य सुरक्षा नीति के विरुद्ध होने के साथ ही देश की नीति-निर्धारण की संप्रभुता में हस्तक्षेप भी है।
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