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भारतीय राजनीति

बाल सामूहिक बलात्कार कानून की वैधता

  • 17 Aug 2022
  • 6 min read

प्रिलिम्स के लिये:

सर्वोच्च न्यायालय, धारा 376-DB, धारा 376-AB, भारतीय दंड संहिता, अनुच्छेद 21, अनुच्छेद 14।

मेन्स के लिये:

भारतीय दंड व्यवस्था में आजीवन कारावास में आवश्यक सुधार।

चर्चा में क्यों?

हाल ही में महाराष्ट्र में नौ वर्ष  की बच्ची के साथ सामूहिक बलात्कार के ज़ुर्म में उम्रकैद की सज़ा काट रहे एक 29 वर्षीय व्यक्ति द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की गई है।

  • सर्वोच्च न्यायालय उस कानून की वैधता की जाँच करेगा जो 12 वर्ष से कम उम्र के बच्चे के साथ सामूहिक बलात्कार के ज़ुर्म में दोषी व्यक्ति को या तो आजीवन कारावास या अपराध का प्रायश्चित अथवा सुधार करने का अवसर दिये बगैर फांँसी की सज़ा देता है।

याचिका में रेखांकित मुद्दे:

  • न्यायाधीश के विकल्पों को प्रतिबंधित करना:
    • इसने तर्क दिया कि भारतीय दंड संहित की धारा 376DB (12 वर्ष से कम उम्र के बच्चे का सामूहिक बलात्कार) ने ट्रायल न्यायाधीशों को प्राप्त विकल्पों को व्यक्ति के शेष जीवन के लिये सज़ा अथवा मृत्युदंड तक सीमित कर दिया है।
      • हालाँकि आजीवन कारावास प्रावधान के तहत न्यूनतम, अनिवार्य सज़ा का प्रावधान किया गया है।
  • वर्ष 2018 के संशोधन में व्याप्त विसंगति:
    • याचिकाकर्त्ता ने आगे तर्क दिया कि अगस्त 2018 में किये गए आपराधिक संशोधनों के माध्यम से निर्मित दंड प्रणाली में एक विसंगति है।
      • धारा 376DB को वर्ष 2018 में पेश किया गया था जब बलात्कार के अपराध के लिये कठोर सज़ा प्रदान करने के लिये दंड संहिता में संशोधन किया गया था।
  • मनमानी:
    • जबकि धारा 376-AB में 12 साल से कम उम्र की लड़की से दुष्कर्म के दोषी व्यक्ति को कम से कम 20 साल की सजा का प्रावधान था।
    • जबकि धारा 376-DB में 12 साल से कम उम्र की लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार में शामिल प्रत्येक व्यक्ति के लिये आजीवन कारावास की अनिवार्य न्यूनतम सजा का प्रावधान है।
    • दोनों धाराओं में अधिकतम सजा के रूप में मौत की सजा का प्रावधान है।
      • बिना छूट के इस आजीवन कारावास का मतलब उस व्यक्ति के लिये 60-70 साल की जेल हो सकती है जिसकी आयु अभी 20 वर्ष से कम है।
  • जीवन के अधिकार का उल्लंघन:
    • धारा 376DB ने निचली न्यायालय को आजीवन कारावास या मृत्युदंड की उच्च सजा के अलावा कोई विकल्प नहीं दिया।
    • याचिका में तर्क दिया गया कि धारा 376DB संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार) और अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) का उल्लंघन करती है।
  • वैश्विक परिदृश्य:
    • इस मुद्दे के वैश्विक संदर्भ को देखते हुए, विंटर बनाम यूनाइटेड किंगडम के मामले में यूरोपीय मानवाधिकार न्यायालय ने फैसला सुनाया कि पैरोल की वास्तविक संभावना के बिना आजीवन कारावास मानव अधिकारों पर यूरोपीय सम्मेलन के अनुच्छेद 3 का उल्लंघन था।
      • यह माना गया कि आजीवन कारावास को केवल सजा नहीं माना जा सकता क्योंकि उन्होंने कैदी को प्रायश्चित का कोई अवसर प्रदान नहीं किया और ऐसे वाक्य मानवीय गरिमा के सम्मान के साथ असंगत थे।
      • संयुक्त राज्य अमेरिका सर्वोच्च न्यायालय ने माना था कि चरम मामलों में असंगत वाक्य ने आठवें संशोधन का उल्लंघन किया, जो अमेरिकी संविधान क्रूर और असामान्य दंड को प्रतिबंधित करता है।

सर्वोच्च न्यायलय का दृष्टिकोण:

  • सर्वोच्च न्यायलय ने अनिवार्य मौत की सजा को असंवैधानिक बताते हुए पहले ही रद्द कर दिया है इसलिये ने इस सवाल पर विचार करने की आवश्यकता बताई।
    • इसके अलावा, इसने एक अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल के साथ-साथ याचिकाकर्ता को इस मुद्दे पर लिखित प्रस्तुतियाँ और प्रस्ताव प्रस्तुत करने को कहा।
  • ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य:
    • वर्ष 1983 में 'मिठू बनाम पंजाब' में सर्वोच्च न्यायलय ने फैसला सुनाया था कि आईपीसी की धारा 303 उस हद तक असंवैधानिक थी, जिसमें किसी अन्य मामले में उम्रकैद की सजा काटते हुए हत्या करने वाले व्यक्ति को अनिवार्य मौत की सजा का प्रावधान था।
      • धारा 303 में यह अनिवार्य किया गया है कि सर्वोच्च न्यायलय को ऐसे मामलों में मौत की सजा के अलावा कोई अन्य सजा नहीं देनी चाहिये।

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स्रोत: द हिन्दू

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